कहानीकार, उपन्यासकार और नाटककार असगर वजाहत हमारे बीच एक सम्मानित व्यक्ति हैं। वे जनवादी लेखक संघ से जुड़े प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति हैं । उनसे कभी उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अपने साहित्य में साम्प्रदायिक विचारों की पैरवी करेंगे या उसके वर्चस्व को महत्ता देंगे । असगर वजाहत के लिए स्वप्न में भी ऐसा सोचना किसी मूर्खता से कम नहीं होगा । वे एक प्रतिबद्ध लेखक हैं । उनकी पहचान का शायद सबसे बड़ा दस्तावेज उनका नाटक ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या वो समझो जन्म्या ही नहीं’ से है। जिसने लाहौर नहीं देखा वो समझो जन्मा ही नहीं।
इधर उनके एक नाटक पर बनी फिल्म ‘गांधी गोडसे – एक युद्ध’ ने सुना है, बवाल मचाया हुआ है। राजकुमार संतोषी द्वारा निर्मित यह फिल्म ‘पठान’ फिल्म के साथ रिलीज हुई थी जिसे पिटना ही था सो सिनेमाघरों में नहीं आयी । कहीं इधर उधर आयी हो तो आयी हो। लेकिन इसकी आलोचना प्रगतिशील विचारों वाले लोगों द्वारा जम कर की जा रही है । ‘सत्य हिंदी’ के सिनेमा से जुड़े कार्यक्रम ‘सिनेमा संवाद’ में भी इस बार का विषय अमिताभ श्रीवास्तव ने इसी विषय पर रखा । पैनल में तीन चिर परिचित चेहरे थे , अजय ब्रह्मात्मज, जवरीमल पारेख और धनंजय। तीनों दिग्गज इस फिल्म को अलग अलग तरीके से पीट रहे थे । मुझे लगा आज के इस दूषित माहौल में वाकई यह फिल्म क्या गुल खिलाएगी। साम्प्रदायिक शक्तियों, बीजेपी आईटी सेल और हिन्दूवादियों के हाथ तो ब्रह्मास्त्र ही लग गया समझो । तीनों का कमोबेश मत था कि गांधी -गोडसे संवाद में गोडसे को महत्व देना और गांधी के समकक्ष रखना कहां की बुद्धिमानी है। तरह तरह की आशंकाएं व्यक्त की गयीं कि गोडसे को महान बताती इस फिल्म को हिंदूवादी शक्तियां अपने लोगों के बीच आव्हान करेंगी इस फिल्म को देखें और लोगों को देखने को प्रेरित करें । तीनों पैनलिस्टों की बातें सुनकर मैंने अमिताभ से कहा अब तो इस फिल्म को देखने की इच्छा नहीं रही । अमिताभ ने कहा, फिर भी देख लीजिए।
मैंने मित्रों, फिल्म देखी । और मैं ‘सत्य हिंदी’ के अन्य कार्यक्रम मुकेश कुमार के ‘ताना बाना’ में इसी विषय पर बात करने आये हिंदी के प्राध्यापक डॉ हैदर अली से शत प्रतिशत सहमत हुआ कि फिल्म एक बेहतरीन दस्तावेज है जिसकी कहानी को ‘रिक्रियेट’ किया गया है। मुझे याद पड़ता है कि एक बार ‘ताना बाना’ में ही आये असगर वजाहत ने इस फिल्म को देखने की लोगों से अपील की थी। हैदर अली न केवल वजाहत साहब से जुड़े हैं बल्कि उन्होंने इस नाटक में भी काम किया है और यह फिल्म भी उन्होंने तीन चार बार देखी है ।
पूरी फिल्म देख कर मुझे लगता है यह संघ, बीजेपी और हिन्दूपरस्त लोगों को एक हद तक निराश ही करेगी । इसमें गोडसे के मुंह से जो कहलवाया गया है उसमें ऐसा कुछ नहीं है जो ये साम्प्रदायिक शक्तियां नहीं कहती रही हैं मसलन एक दिन हमारा देश हिंदू राष्ट्र बनेगा, तुम (यानी गांधी) हिंदुओं के दुश्मन हो आदि आदि। बरक्स इसके गांधी के संवादों के सामने गोडसे हर बार निरुत्तर हुआ है। बल्कि उसका चेहरा फक्क पड़ा है। मुसलमानों पर लड़ाई झगड़े , हिंसा, मारकाट वगैरह के जब गोडसे आरोप लगाता है तो गांधी कहते हैं मुसलमान तो सातवीं सदी में आये हमारे यहां। क्या उससे पहले हमारे देश में लड़ाई झगड़े, हिंसा, मारकाट नहीं होती थी। दरअसल गोडसे गांधी के हर संवाद के सामने अज्ञानी और मूर्ख जैसा ही साबित हुआ है । जो पाठ पढ़ाया हुआ मठ बुद्धि का व्यक्ति लगता है । फिल्म में एक संवाद है जिसमें एक कैदी गोडसे को कहता है तुमने तो अंग्रेजों पर एक पत्थर भी नहीं मारा और गांधी पर गोली चला दी ? उस वक्त उस सामान्य से कैदी के सामने निरुत्तर रहे गोडसे का चेहरा देखने लायक था। इस फिल्म का दूसरा पक्ष भी है जो हिंदूवादियों को अखरेगा । गांधी की कुछेक बातों पर हमेशा से विवाद रहा है । स्त्री पुरुष प्रेम संबंध एक ऐसा ही प्रसंग है । फिल्म में गांधी के स्वप्न में कस्तूरबा आती हैं और उन्हें लताड़ती हैं कि उन्होंने जेपी और प्रभावती जो पति पत्नी थे उन्हें भी एक न होने दिया । फिल्म में भी एक जोड़ा है जिसे गांधी ने अलग किया जबकि वे प्रेम विवाह करना चाहते थे । गोडसे के प्रयास से गांधी दोनों के विवाह के लिए राजी हुए उन्होंने वर वधू को आशीर्वाद दिया और उस शादी में खुशी खुशी गोडसे भी शामिल हुआ । यही नहीं ठीक इसी वक्त जब एक कैदी फूलों के बीच छुपाई हुई पिस्तौल से गांधी पर गोली चलाता है तो गोडसे उसका हमला निष्फल करके गांधी की जान बचाता है । हम कह सकते हैं कि फिल्म में गांधी गोडसे को वैचारिक विरोध के बावजूद नये रिश्तों के साथ प्रस्तुत किया गया है। गोडसे जो रियल लाइफ में भी लगभग मठ बुद्धि का ही था । वह गांधी ने के प्रति सहृदय हुआ और जब फिल्म के अंत में दोनों की जेल से एक साथ रिहाई पर दोनों के समर्थक आमने सामने नारे बाजी कर रहे थे तो उन्हीं के बीच से गांधी गोडसे एक साथ निकल गये । पूरी फिल्म देख कर नहीं लगता कि जो खौफ प्रगतिशील लोगों में है उसका कोई अर्थ बाकी है । क्योंकि फिल्म में गोडसे गांधी से कमतर ही है और वैसे ही पिटेपिटाए उसके तर्क और संवाद हैं । ‘सिनेमा संवाद’ के तीनों पैनलिस्टों पर मुझे हैरत है । जबकि मैं तीनों के विश्लेषण से हमेशा प्रभावित रहता हूं । पर कभी कभी जब हम विरोध के लिए विरोध करते हैं तो ‘एक्सपोज़’ भी हो ही जाते हैं । यह सब आजकल तमाम बहसों और चर्चाओं में भी दिखाई पड़ता है।
इस हफ्ते ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर चार बहसें आयीं। नीरजा चौधरी, अखिलेंद्र प्रताप सिंह, परंजय दास ठाकुरता और प्रोफेसर अरुण कुमार के साथ। नीरजा चौधरी में अब वह तेवर रह नहीं गये हैं ऐसा कहा जाए तो क्या ठीक नहीं रहेगा । स्वयं संतोष भारतीय भी उनसे कहते रहे आप कुछ सवालों से बच रही हैं । मुझे लगा उनके पास जवाब थे ही नहीं। अखिलेंद्र प्रताप सिंह हमेशा की तरह थे । परंजय गुहा ठाकुरता भी अदालत की गिरफ्त में ज्यादा कुछ न बोलने से बंधे थे । इसलिए कुछ रोचक नहीं हुआ । हां, प्रोफेसर अरुण कुमार के साथ अभय दुबे और संतोष जी की बातचीत मजेदार और असरदार रही । राजनीतिक सवाल पर बल्कि विपक्ष पर प्रो. अरुण कुमार ने पलट कर अभय दुबे से ही सवाल कर लिया । अभय जी की एक बात हमें अटपटी सी लगी कि जब जनता में बैचेनी होती है या माहौल बनता है तो उसे विपक्ष भुनाता है । उनका आशय यही था शब्द कुछ और थे । जबकि अरुण कुमार का कहना ज्यादा सही था कि विपक्ष को जनता को ‘मोबिलाइज़’ करना चाहिए । अभय जी से हमारा प्रश्न यही है कि अगर जनता में सत्ता के खिलाफ बेचैनी नहीं दिख रही तो उस बेचैनी को पैदा करना भी तो विपक्ष का ही काम है । क्या विपक्ष को जनता के बीच नहीं जाना चाहिए । विपक्ष अगर जनता के बीच स्वत: बेचैनी उपजने का इंतजार करेगा तो फिर शेष उसकी भूमिका क्या रह जाएगी । यों आज के विपक्ष को देख कर हमें तो रत्ती भर भी उससे उम्मीद नहीं दिखती । राहुल गांधी की यात्रा भी राहुल गांधी की छवि तक सिमट कर रह गई लगता है। राहुल गांधी से रोजाना अपेक्षा की जा रही है। कल थोड़ा सा प्रैस वालों से वे बोले हैं । पर सबसे बड़ा सवाल सड़क पर जनता के बीच जाने का है । सबा नकवी ने सवाल किया कि ऐसे वक्त में कन्हैया कुमार कहां है । उसे क्यों नहीं आगे किया जाता । मोदी जी तो 2014 से लगातार झूठ बोलकर भी आज तक झूठ सच का ज्ञान समझा रहे हैं।
अडानी प्रकरण पर इस समय राजनीति गर्म है । रवीश कुमार के रोजाना आने वाले वीडियो धारदार साबित हो रहे हैं । बीजेपी के प्रवक्ताओं को तो जैसे सांप सूंघ गया है । आलोक जोशी के जबरदस्त हमले आठ दिनों से लगातार चल रहे हैं । इसीलिए संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइज़र’ ने रवीश कुमार, आलोक जोशी, अजीत अंजुम जैसों को नक्सलवादी साबित कर दिया है। लग तो यही रहा है कि विपक्ष का काफी हद तक काम सोशल मीडिया कर रहा है । सारी जमीन तैयार कर दी है इसका फायदा भी अगर विपक्ष न उठाए पाये तो क्या कहेंगे । इतना तय है कि इससे बड़ा मौका अपनी राजनीति को फिर नहीं मिलने वाला । अडानी पर चोट दरअसल सीधे मोदी पर चोट है ।
पुनश्च: – हमारा मानना है कि दिल्ली मुंबई और बड़े शहरों के पत्रकारों – बुद्धिजीवियों को छोटे शहरों और गांव देहातों में जाकर वहां से देश और राजनीति को देखना चाहिए। सिनेमा संवाद के पैनलिस्टों को भी ।
मित्रो, वायरल है कल से फिर भी इतना लिख गया । जाने कैसे । शायद आपके दबाव के चलते । पढ़ें और बताएं।