पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महंगाई पर काबू न कर पाने को यूपीए सरकार की सबसे बड़ी असफलता बताया था. उनके कार्यकाल में लगातार बढ़ती महंगाई सरकार की कुनीतियों का सामूहिक परिणाम थी. परस्पर विरोधी नीतियों और उनके लक्ष्यों में महंगाई के कारण निहित हैं. यहां तीन लक्ष्य एक साथ प्राप्त करना असंभव है, जैसे किसानों को फसलों की सही क़ीमत मिले, खाद्य पदार्थों की खुदरा क़ीमतें कम हों और मुद्रास्फीति या कहें कि महंगाई एक सीमा में हो. दरअसल, खाद्य क्षेत्र का पूरी तरह कायाकल्प किए बगैर यह सब संभव नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में फसल उत्पादन की लागत में लगातार वृद्धि हुई है. इसीलिए खाद्य पदार्थ महंगे हो गए. खाद्यान्न की क़ीमतों में वृद्धि होने की वजह से मोटे अनाज की भी मांग बढ़ी, इसके चलते चारे की क़ीमत में भी उछाल आया और प्रोटीनयुक्त पॉल्ट्री उत्पाद भी महंगे हो गए. सरकार इन तीनों लक्ष्यों के बीच तालमेल बना पाने में असफल रही.
युक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार का दस वर्षीय कार्यकाल अपार महंगाई के लिए हमेशा याद किया जाएगा. एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के होते हुए भी महंगाई पर काबू नहीं किया जा सका. जनता त्राहि-त्राहि करती रही और सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि महंगाई कब और कैसे कम होगी. देश के लिए इससे बड़ी विडंबना भला क्या होगी! सरकार के मंत्री लगातार महंगाई बढ़ने की भविष्यवाणियां करते रहे, लेकिन उनके पास महंगाई पर लगाम लगाने का कोई फॉर्मूला नहीं था. कांग्रेस का हाथ-आम आदमी के साथ जैसे नारे के सहारे सत्ता पर क़ाबिज हुई कांग्रेस पार्टी ने स़िर्फ लोक-लुभावन राजनीति जारी रखी. उसने देश की अर्थव्यवस्था मजूबूत करने की बजाय आंकड़ों से खेलने की कोशिश की. सरकार ने हर सप्ताह होलसेल प्राइज इंडेक्स के आधार पर महंगाई मापना जारी रखा और सीपीआई यानी कंज्यूमर प्राइज इंडेक्स लागू किया, जिसमें मासिक आधार पर महंगाई मापी जाती है. सीपीआई में वर्ष 2004-05 को आधार वर्ष बनाया. यह बदलाव करने के बाद भी सरकार महंगाई के आंकड़े कम करने की जादूगरी नहीं कर सकी. सरकार ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना की शुरुआत की. इस योजना को लेकर कांग्रेस सरकार बहुत आशांवित थी कि इसके लागू होने के बाद देश में बेरोज़गारी ख़त्म होगी, गांवों से लोगों का पलायन बंद होगा, उनके रहन-सहन के स्तर में सुधार आएगा. कांग्रेस ने इस योजना के सकारात्मक पहलुओं को तो ध्यान में रखा, लेकिन नकारात्मक पहलुओं को नज़रअंदाज कर दिया. यह योजना एक तरह से कांग्रेस के लिए गले की हड्डी बन गई. यूपीए-एक के कार्यकाल में यह योजना 100 ज़िलों से शुरू हुई और फिर धीरे-धीरे पूरे देश में लागू हो गई. धीरे-धीरे मनरेगा के दुष्प्रभाव सामने आने लगे, जिनके चलते महंगाई आसमान छूने लगी.
क्या है मनरेगा
मनरेगा एक ऐसी योजना है, जिसके अंतर्गत देश के ग्रामीण इलाकों के अकुशल श्रमिकों को 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी दी गई थी. इससे लोगों के लिए सौ दिनों के काम और एक निश्चित आमदनी की व्यवस्था हो गई. सामान्य तौर पर यदि कोई व्यक्ति आय अर्जित करता है, तो वह किसी न किसी वस्तु के उत्पादन या सेवा प्रदान करने में भागीदार होता है, लेकिन मनरेगा में किसी भी तरह का परमानेंट इंफ्रास्ट्रक्चर गांवों में विकसित नहीं हो सका. दूसरे शब्दों में कहें, तो मनरेगा के अंतर्गत किसी तरह की वस्तु का उत्पादन नहीं हुआ. एक स्वस्थ अर्थ व्यवस्था के लिए उत्पादन और आय में संतुलन होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं होता है, तो महंगाई बढ़ती है और जिसे हम तकनीकी तौर पर मुद्रास्फीति या इंफ्लेशन कहते हैं. महंगाई तब बढ़ती है, जब अर्थ व्यवस्था में उपलब्ध पूंजी कुल उत्पादित वस्तुओं की तुलना में ज़्यादा होती है. यदि सरकार की कोई योजना उत्पादन बढ़ाए बगैर पैसा बाज़ार में लाती है, तो यह निश्चित है कि मुद्रास्फीति (महंगाई) बढ़ेगी. यदि आप आय के साथ-साथ उसी अनुपात में उत्पादन भी बढ़ाते हैं, तो उससे महंगाई नहीं बढ़ती है, लेकिन मनरेगा की वजह से ऐसा हुआ.
मनरेगा लागू होने के बाद कृषि एवं निर्माण क्षेत्र में मज़दूरों की कमी हो गई. शहरी क्षेत्रों में भी मज़दूरी में लगभग दोगुनी वृद्धि हो गई. इसका सीधा असर उन सभी क्षेत्रों में हुआ, जहां मज़दूरों की आवश्यकता होती है. इससे वस्तुओं के उत्पादन की लागत भी बढ़ गई. इस वजह से उपभोक्ताओं को ज़्यादा पैसे खर्च करने पड़े. आख़िरकार मनरेगा ने क्या किया? यदि आप नोट छापकर बेरोज़गार लोगों को बांटने लगें (जो कोई उत्पादन नहीं कर रहे हैं), तो उससे महंगाई बढ़ेगी. इस तरह के इंफ्लेशन से उन लोगों की आमदनी घटती है, जो वस्तुओं का उत्पादन करते हैं. मनरेगा दरअसल, पूरी तरह से पैसा बांटने वाली योजना थी. हर शख्स अर्थ व्यवस्था के इस आधारभूत सूत्र को समझता है, लेकिन सरकार ने इस सूत्र को स्वीकार नहीं किया और वह इस योजना को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताती रही.
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महंगाई पर काबू न कर पाने को यूपीए सरकार की सबसे बड़ी असफलता बताया था. उनके कार्यकाल में लगातार बढ़ती महंगाई सरकार की कुनीतियों का सामूहिक परिणाम थी. परस्पर विरोधी नीतियों और उनके लक्ष्यों में महंगाई के कारण निहित हैं. यहां तीन लक्ष्य एक साथ प्राप्त करना असंभव है, जैसे किसानों को फसलों की सही क़ीमत मिले, खाद्य पदार्थों की खुदरा क़ीमतें कम हों और मुद्रास्फीति या कहें कि महंगाई एक सीमा में हो. दरअसल, खाद्य क्षेत्र का पूरी तरह कायाकल्प किए बगैर यह सब संभव नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में फसल उत्पादन की लागत में लगातार वृद्धि हुई है. इसीलिए खाद्य पदार्थ महंगे हो गए. खाद्यान्न की क़ीमतों में वृद्धि होने की वजह से मोटे अनाज की भी मांग बढ़ी, इसके चलते चारे की क़ीमत में भी उछाल आया और प्रोटीनयुक्त पॉल्ट्री उत्पाद भी महंगे हो गए. सरकार इन तीनों लक्ष्यों के बीच तालमेल बना पाने में असफल रही. इसके अलावा, ऐसी वितरण प्रणाली, जिसमें अधिकांश अनाज बर्बाद हो जाता हो, आत्मघाती होती है. इससे सरकार पर भार बढ़ता है और महंगाई बढ़ती चली जाती है. यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान कोई भी नीति टिकाऊ या प्रभावशाली नहीं रही, जिससे महंगाई पर लगाम कसी जा सकती.
यूपीए सरकार ने अप्रैल, 2010 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में उपभोक्ता मामलों के वर्किंग ग्रुप का गठन किया था, जिसमें बतौर सदस्य महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री भी शामिल थे. ग्रुप ने जनवरी 2011 में अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली थी और उसने महंगाई पर लगाम कसने के लिए 64 अनुशंसाएं कीं. जैसे कि आवश्यक वस्तुओं के वायदा बाज़ार पर रोक लगाई जाए, केंद्रीय मूल्य स्थिरीकरण फंड की स्थापना हो, केंद्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर नीति निर्धारण के लिए समन्वय तंत्र की स्थापना के साथ-साथ समयबद्ध तरीके से कृषि-विपणन के लिए आधारभूत ढांचा विकसित किया जाए. जिन स्थानों में अनाज की कमी रहती है, वहां भंडारण क्षमता बढ़ाई जाए सके और वितरण में संगठित क्षेत्रों एवं सहकारी संस्थाओं को शामिल करके प्रतिस्पर्धा बढ़ाई जाए. केंद्रीय मूल्य स्थिरीकरण फंड बनाने की अनुशंसा के तहत कहा गया था कि आवश्यक वस्तुओं की कमी की स्थिति में यह वस्तु के उत्पादन एवं वितरण में राज्य सरकारों की मदद करेगा. देश में एकीकृत कृषि बाज़ार बनाने के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर अंतर-मंत्री समूह प्रणाली विकसित करनी होगी, जो नीति निर्धारण में सहयोग करेगी. ग्रुप ने आवश्यक वस्तु अधिनियम की धारा 10-ए के अंतर्गत अपराधों को ग़ैर ज़मानती बनाने की अनुशंसा की थी. साथ ही इस अधिनियम से जुड़े अपराधों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन करने, कालाबाज़ारी, रखरखाव एवं आवश्यक वस्तु आपूर्ति अधिनियम-1980 के अंतर्गत दी जाने वाली सजा को छह माह से बढ़ाकर एक साल करने की अनुशंसा की थी, लेकिन यूपीए सरकार ने इन तमाम अनुशंसाओं को लागू नहीं किया.
केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमतों के निर्धारण के लिए किरीट पारिख की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था. इस कमेटी ने सिफारिश की कि सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या सीमित कर दी जाए. इस पर सरकार द्वारा एक कनेक्शन धारक को प्रति वर्ष मिलने वाले सिलेंडरों की संख्या 9 कर दी गई, जो बाद में चुनाव के दौरान 12 हो गई. कमेटी ने डीजल के मूल्य में 6 रुपये की वृद्धि करने, डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी हर माह 50 पैसे का इज़ाफा करके ख़त्म करने के साथ-साथ पेट्रोल के दाम निर्धारित करने का अधिकार पेट्रोलियम कंपनियों को देने की अनुशंसा की. जनता इससे बेहाल हो गई. डीजल एवं गैस के दाम बढ़ने का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष असर महंगाई पर हुआ. ऐसे में मुद्रास्फीति पर लगाम कस पाना बहुत मुश्किल हो गया. आरबीआई के लिए मौद्रिक नीति में बदलाव एवं ब्याज दरों में कमी करना और ज़्यादा मुश्किल हो गया. यूपीए सरकार ने मौद्रिक स्थिति के आकलन के लिए आरबीआई द्वारा मौद्रिक नीति में बदलाव प्रत्येक तीन माह की जगह 45 दिनों में करने का प्रावधान किया. आरबीआई लगातार ब्याज दरों में इज़ाफा करता रहा. उसका ध्यान इंफ्लेशन कम करने के लिए बाज़ार में तरलता कम करने पर ही केंद्रित रहा. आरबीआई के गवर्नर इंफ्लेशन को काबू में किए बगैर ब्याज दरों में कमी करने के लिए तैयार नहीं थे. इस वजह से होम लोन लेने वालों की संख्या में कमी आई. रियल इस्टेट व्यापार मंदी में चला गया. आज देश में मकानों की संख्या खरीदारों से ज़्यादा है. लागत बढ़ने की वजह से रियल इस्टेट कारोबारी कम कीमत पर फ्लैट बेचने को तैयार नहीं हैं. सरकार से आस लगाई जा रही थी कि वह होम लोन की नई नीति लेकर आएगी और उसकी ब्याज दरों में कटौती करेगी, लेकिन सरकार ने ऐसा कोई क़दम नहीं उठाया.
भारत में खाद्य पदार्थों की क़ीमतें लगातार बढ़ रही हैं. पिछले कुछ सालों में खाद्य महंगाई दर लगातार दो अंकों में ही रही है. हाल में खाद्य महंगाई दर के जो आंकड़े आए हैं, वे नवगठित सरकार के लिए ठीक नहीं हैं. पहले की अपेक्षा उनमें कुछ कमी तो ज़रूर आई है, लेकिन अभी भी उक्त आंकड़े ख़तरनाक स्तर पर हैं. पिछले मई 2013 के मुक़ाबले अब महंगाई 9.6 प्रतिशत बढ़ गई है. सब्जियों, फलों, दुग्ध उत्पादों, अंडा और मांस के दामों में इज़ाफा हुआ. इनके दामों में औसतन दस प्रतिशत से ज़्यादा की वृद्धि दर्ज की गई. पिछले तीन-चार सालों में आसमान छूती महंगाई सरकार के लिए चुनौती बनी हुई है. पिछले तीन सालों की खाद्य महंगाई दर औसतन 11.5 प्रतिशत है. इसका मतलब है की खाने-पीने की चीजों के दाम लगातार तेजी से बढ़ रहे हैं. बाज़ार में तेजी से खाने-पीने की चीजों की आपूर्ति करनी होगी, जिससे बढ़ती क़ीमतों पर काबू पाया जा सके और महंगाई पर लगाम लगाई जा सके. कृषि उत्पादों को बाज़ार में सुचारू रूप से पहुंचाने के लिए सरकार को एपीएमसी एक्ट में अपेक्षित बदलाव करने होंगे. इसके लिए केंद्र सरकार को राज्यों को तैयार करना होगा.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने महंगाई पर लगाम लगाने के लिए कुछ क़दम उठाने की बात कही है. उन्होंने इसके लिए पांच सूत्रीय कार्यक्रम बनाया है, जिसमें आलू एवं प्याज के निर्यात पर पाबंदी लगा दी गई है. प्याज के निर्यात का अधिकतम मूल्य 1800 रुपये कर दिया गया है. इससे किसान प्याज को देश में बेचने के लिए प्रेरित होंगे और प्याज की बढ़ती क़ीमत पर काबू पाया जा सकेगा. राज्य सरकारों से एग्रीकल्चरल प्रोडक्ट मार्केटिंग एक्ट में संशोधन करके उसमें से फलों एवं सब्जियों को हटाने के लिए कहा गया है, ताकि किसान अपने उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेच सकें. इससे वे मंडी और बिचौलियों के मकड़जाल से भी मुक्त हो जाएंगे और उत्पादों के दामों में कमी आएगी. सरकार ने दालों एवं खाद्य तेलों का आयात करने और दुग्ध उत्पादों के निर्यात की समीक्षा करने का निर्णय लिया है.
गलत नीतियों ने बढ़ाई महंगाई
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