प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आसियान और जी-20 देशों के सम्मेलन में भाग लेने के बाद भारत लौट आए हैं. वह अपने साथ देश के किसानों एवं ग़रीबों के लिए एक अच्छी ख़बर भी लाए हैं. भारत और अमेरिका ने भारतीय किसानों के हितों को सुरक्षित रखते हुए खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर गतिरोध दूर कर लिया है. अमेरिका ने खाद्यान्न के भंडारण के मुद्दे पर भारत के प्रस्ताव को अपनी सहमति दे दी है. अब इसे डब्ल्यूटीओ की आम परिषद में अनुमोदन के लिए भेजा जाएगा, जिससे व्यापार सुगमता करार पर हस्ताक्षर हो सकें. यह करार कई महीनों से अटका हुआ है. कई देशों को डब्ल्यूटीओ में भारत का दृष्टिकोण उचित लगा है. लंबे समय से डब्ल्यूटीओ के मसले पर कई मुद्दों को लेकर गतिरोध बना हुआ था. इस वजह से कई देश नाराज़ भी हुए, लेकिन भारत सरकार ने किसानों के हितों को सर्वोपरि रखते हुए समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए. इस समझौते की राह में भारत का खाद्य सुरक्षा क़ानून और किसानों को मिलने वाली सब्सिडी का विवाद एक बड़ी बाधा था. इस मुद्दे पर डब्ल्यूटीओ के 160 सदस्य देशों में से केवल क्यूबा, वेनेजुएला एवं बोलिविया भारत के पक्ष में थे. लेकिन, बाकी देशों के विरोध के बावजूद भारत अपनी मांग पर अड़ा रहा.
इससे पहले पर्यावरण के मुद्दे पर विकसित एवं विकासशील देशों के बीच इस तरह के मतभेद सामने आए थे, लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद भारत ने डब्ल्यूटीओ की बैठक में अपने देश के ग़रीबों के हितों को सर्वोपरि रखते हुए विकसित देशों के दबाव के आगे झुकने से इंकार कर दिया और यह कहा कि भारत अपने देश के गरीबों एवं किसानों के हितों के ख़िलाफ़ किसी भी समझौते पर अपनी सहमति नहीं देगा. पहली बार भारत ने ऐसे व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने से इंकार किया था, जिससे 160 देशों के बीच के अंतरराष्ट्रीय संबंध और व्यापार प्रभावित होने वाले थे. ऐसा करके भारत ने दुनिया को एक संदेश दिया था कि उसके लिए अपने किसानों-ग़रीबों का हित सर्वोपरि है, और वह उन्हें दरकिनार करके कोई समझौता नहीं करेगा. उनके हितों को सुनिश्चित करने के बाद ही व्यापार को बढ़ावा देने वाले किसी भी समझौते को अंतिम रूप दिया जाएगा.
इसके अलावा, भारत ने अपने रुख पर गंभीरता दिखाते हुए यह भी कहा था कि यदि उसकी ज़रूरतों को अनदेखा किया गया, तो वह डब्ल्यूटीओ की सदस्यता छोड़ सकता है. इसी मुद्दे पर भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में तल्खी आ गई थी, जिसे दूर करने के लिए प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के पहले अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी भारत आए थे. भारत ने यह भी साफ़ कर दिया था कि वह व्यापार सुविधा समझौते (एफटीए) की तब तक पुष्टि नहीं करेगा, जब तक खाद्य सुरक्षा के मसले का कोई स्थायी समाधान नहीं हो जाता. बीते सितंबर महीने में मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान इस मसले पर बात हुई थी. इसके बाद ब्रिस्बेन में जी-20 सम्मेलन के दौरान दोनों देशों के बीच फूड सब्सिडी को लेकर समझौता हो गया. इस पर खुशी जताते हुए डब्ल्यूटीओ के डायरेक्टर-जनरल रौबर्टो अजेवीडो ने कहा कि दोनों देशों के बीच हुए समझौते से अहम गतिरोध ख़त्म हो चुका है और अब जल्द से जल्द अंतरराष्ट्रीय मुक्त व्यापार के लिए महत्वपूर्ण बाली समझौता लागू किया जा सकता है.
पहली नज़र में तो यह विवाद ही अजीब लग सकता है कि आख़िर खाद्य सुरक्षा क़ानून की बात डब्ल्यूटीओ तक कैसे पहुंची? क्या खाद्य सुरक्षा का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय व्यापार से बहुत अलग नहीं है? यह सवाल वाजिब है, पर समस्या यही है कि जब गैट के स्थान पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियमन के लिए विश्व व्यापार संगठन की स्थापना की गई, तो इसके नियमों का दायरा बहुत बढ़ा दिया गया. विकासशील देशों की ऐसी नीतियां, खासकर सब्सिडी, जिसे अब तक घरेलू या राष्ट्रीय नीति की बात माना जाता था, वह भी अब अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियमों के अंतर्गत आने लगी. उस समय भी इस बदलाव का कई नागरिक संगठनों ने बहुत विरोध किया था, पर इस विषय को तब समुचित महत्त्व नहीं दिया गया. अब सरकार के सामने भी स्पष्ट हो रहा है कि इस वजह से कितनी नई समस्याएं पैदा हुई हैं. डब्ल्यूटीओ के नियम बताते हैं कि किस तरह की और कितनी सब्सिडी स्वीकार की जा सकती है और किस पर आपत्ति लग सकती है. यह अलग बात है कि ये नियम अब तर्कसंगत नहीं रह गए हैं, क्योंकि ये बहुत पहले की क़ीमतों पर आधारित हैं, जब विश्व बाज़ार में खाद्य क़ीमतें आज से बहुत कम थीं. जब भारत ने खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाया, तो सस्ता अनाज प्राप्त करने वालों की संख्या काफी हद तक बढ़ाई गई. जबकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बिकने वाले अनाज की क़ीमत और कम की गई. इस तरह भारत की खाद्य सब्सिडी बढ़ गई और हमसे पहले कुछ विकसित देशों ने हिसाब लगाकर यह बता भी दिया. यह बात अलग है कि हिसाब ठीक से नहीं लगाया गया कि हम डब्ल्यूटीओ द्वारा तय सीमा पार कर रहे हैं.
भारत अब तक बाली समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना इसलिए करता रहा, क्योंकि दिसंबर 2013 में इस बात का आश्वासन मिला था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर सब्सिडी 2017 तक जारी रखी जाएगी, जिसके फलस्वरूप ट्रेड फैसिलिटेशन एग्रीमेंट करना था. अमेरिका और वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) के प्रमुख समेत तमाम विकसित देश लगातार यह आरोप लगाते रहे हैं कि कृषि एवं खाद्य सब्सिडी के मुद्दे पर भारत का अड़ियल रुख डब्ल्यूटीओ समझौते को पटरी से उतार रहा है. भारत की जिद के चलते ही डब्ल्यूटीओ के प्रोटोकॉल के तहत ट्रेड फैसिलिटेशन एग्रीमेंट (टीएफए) 14 जुलाई की तय तिथि को लागू नहीं हो सका. अब इस बात को लेकर सहमति हुई है कि सब्सिडी की समय सीमा 2017 नहीं रहेगी. अमेरिकी ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव (यूएसटीआर) की तरफ़ से जारी बयान में इसे ज़्यादा साफ़ किया गया है. कहा गया है कि खाद्य सब्सिडी मुद्दे का स्थायी हल होने तक भारत को इस तरह की सब्सिडी से नहीं रोका जाएगा और न कोई इसके ख़िलाफ़ विवाद निस्तारण पैनल में जाएगा. हालांकि, पहले भारत इस मुद्दे पर 2017 तक मामला न उठाने की छूट देने वाले पीस क्लॉज पर सहमत हो गया था, लेकिन बाद में इसकी पेचीदगी ने सरकार को संकट में डाला और उसके बाद सख्त रुख अपनाया गया कि इस मुद्दे के स्थायी हल तक भारत टीएफए के लिए तैयार नहीं होगा. यहीं पर पेंच फंसा है, क्योंकि डब्ल्यूटीओ में कोई भी समझौता लागू करने के लिए हर सदस्य का सहमत होना ज़रूरी है. हालांकि, कई मामलों में हमने जिस तरह की नीतियां अपनानी शुरू की हैं, उनसे लगता है कि सरकारी खरीद और खाद्य सब्सिडी के मुद्दे पर हम बीच का रास्ता अपनाने जा रहे हैं. फिलहाल भारत सरकार इस शर्त पर सहमत हुई है कि जब तक इस मसले का कोई स्थायी समाधान नहीं हो जाता, तब तक पीस क्लॉज अनिश्चित समय तक बढ़ा देना चाहिए. पीस क्लॉज के अंतर्गत विभिन्न देशों के खाद्य सुरक्षा क़ानूनों को जगह दी गई है. भारत अब पहले की तरह खाद्यान्न का संग्रहण एवं वितरण खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत करता रहेगा. भारत सरकार चाहती थी कि ट्रेड फैसिलिटेशन एग्रीमेंट बिना शर्त क्रियान्वित किया जाए.
भारत अब तक बाली समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना इसलिए करता रहा, क्योंकि दिसंबर 2013 में इस बात का आश्वासन मिला था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर सब्सिडी 2017 तक जारी रखी जाएगी, जिसके फलस्वरूप ट्रेड फैसिलिटेशन एग्रीमेंट करना था. अमेरिका और वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) के प्रमुख समेत तमाम विकसित देश लगातार यह आरोप लगाते रहे हैं कि कृषि एवं खाद्य सब्सिडी के मुद्दे पर भारत का अड़ियल रुख डब्ल्यूटीओ समझौते को पटरी से उतार रहा है.
जी-20 सम्मेलन के दौरान चीन और अमेरिका के बीच ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करने के संबंध में समझौता हुआ है. दोनों ही दुनिया के सबसे ज़्यादा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करने वाले देश हैं. समझौते के तहत अमेरिका 2025 तक वर्ष 2005 की तुलना में 26-28 प्रतिशत कार्बन कटौती करेगा, जबकि चीन 2030 तक अपनी ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने वाले ईंधन में जैविक ईंधन की 20 प्रतिशत की कटौती करेगा. इससे पहले यूरोपियन यूनियन 1990 के कार्बन उत्सर्जन स्तर पर 40 प्रतिशत की कटौती करने का ऐलान कर चुका है. मोदी दुनिया को मेक इन इंडिया कार्यक्रम के अंतर्गत उद्योग स्थापित करने के लिए निमंत्रण दे रहे हैं. इसका सीधा असर चीन पर पड़ेगा. चीन अब कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने के आधार पर भारत को निशाना बनाने की कोशिश करेगा. डब्ल्यूटीओ की तरह दूसरे विकसित देश पर्यावरण के मसले पर भी भारत के ऊपर दिसंबर में पेरू की राजधानी लीमा में होने वाली क्लाइमेट चेंज कांफ्रेंस से पहले दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
हालांकि, प्रधानमंत्री ने डब्ल्यूटीओ के जिस मसौदे के लिए सहमति जताई है, उसे उन्हें देश के सामने रखना चाहिए. इस मसले पर अंतिम फैसला देश की संसद में हर पक्ष की बातें सुनकर होना चाहिए. हालांकि, सरकार किसानों और ग़रीबों के हितों की बात कर रही है, लेकिन दूसरे पक्षों की बातें सुनकर और देश को विश्वास में लेकर ही इस दिशा में कोई ठोस क़दम उठाना चाहिए. ऐसा करना ही देश के किसानों और गरीबों के हक़ में होगा.
डब्ल्यूटीओ में भारत की मांगें
- भारत मांग कर रहा था कि नए समझौते को अंतिम रूप डब्ल्यूटीओ के सदस्यों द्वारा फूड सब्सिडी के नियमों में बदलाव को सहमति देने के बाद ही किया जाना चाहिए.
- सरकारों को फूड सब्सिडी की सीमा उत्पादन की लागत का 10 प्रतिशत ही रखनी है. यह लागत 1986-88 की क़ीमतों पर आधारित है. इसका आकलन वर्तमान क़ीमतों के आधार पर होना चाहिए.