एकदा अपनी अफगानिस्तान यात्रा पर राममनोहर लोहिया ने काबुल में स्वास्थ्य—लाभ कर रहे बादशाह खान से भारत आने का आग्रह किया। आगमन पर दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरते ही (1969) उनसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी काँख में दबी पोटली थामने की कोशिश की। मगर यह सादगी—पसंद फ़कीर अपना असबाब खुद ढोता रहा। उसमें फकत एक जोड़ी खादी का कुर्ता-पैजामा और मंजन था। बादशाह खान ने पूछा था “लोहिया कहाँ है?” जवाब मिला उनका इंतकाल हो गया। सत्तावन साल में ही? फिर पूछा, उनका कोई वारिस? बताया गया: अविवाहित थे और गांधीवादी हीरालाल लोहिया की अकेली संतान थे।

उन्हीं दिनों (सितंबर 1969) गुजरात में आजादी के बाद का भीषणतम दंगा हुआ था। शुरुआत में एक लाख मुसलमान प्रदर्शनकारी अहमदाबाद की सड़कों पर जुलूस निकालकर नारे लगा रहे थे: “इस्लाम से जो टकराएगा, मिट्टी में मिल जायेगा।” मुजाहिरे का कारण था कि चार हजार किलोमीटर दूर अलअक्सा मस्जिद की मीनार पर किसी सिरफिरे यहूदी ने तोड़फोड़ की थी। इतनी दूर साबरमती तट पर विरोध व्यक्त हुआ। प्रतिक्रिया में भड़के हिन्दुओं ने रौद्र रूप दिखाया। मारकाट मची।

तभी बादशाह खान शांतिदूत बनकर अहमदाबाद आये थे। दैनिक “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के मेरे संपादक ने मुझे बादशाह खान के शांति मिशन की सप्ताह भर की रिपोर्टिंग का जिम्मा सौंपा। ”इंडियन एक्सप्रेस” ने सईद नकवी को तैनात किया था। ढाई दशक बाद इस दरवेश के दुबारा दर्शन मुझे गुजरात में हो रहे थे। पहली बार सेवाग्राम आश्रम में मेरे संपादक पिता (स्व. श्री के. रामा राव) लखनऊ जेल से रिहा होकर सपरिवार गांधीजी के सान्निध्य में हमें लाये थे। अनीश्वरवादी थे पर उन्होंने मुझ बालक को बादशाह खान के चरण स्पर्श करने को कहा था।

इतने सालों बाद अहमदाबाद में मैंने सीमान्त गांधी के पैर छुये थे, स्वेच्छा से। अनुभूति आह्लादमयी थी। गुजरात में बादशाह खान की तक़रीर हुई मस्जिदों में, जुमे की नमाज के बाद। वे बोले, “मैं कहता था तुम्हारे सरबराह नवाब, जमीनदार और सरमायेदार हैं। पाकिस्तान भाग जायेंगे। मुस्लिम लीग का साथ छोड़ो। तब तुम्हारे लोग मुझे ”हिंदू बच्चा” कहते थे। आज कहाँ हैं वे सब?” दूसरे दिन वे हिन्दुओं की जनसभा में गये| वहां कहा, “कितना मारोगे मुसलमानों को? चीखते हो कि उन्हें पाकिस्तान भेजो या कब्रिस्तान! भारत में इतनी रेलें, जहाज और बसें नहीं हैं कि बीस करोड़ को सरहद पार भेज सको। साथ रहना सीखो। गांधीजी ने यही सिखाया था।”

अगले दिन प्रेस कांफ्रेंस में एक युवा रिपोर्टर ने उनसे पूछा कि “जब पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दू बंगाली युवतियों के साथ पंजाबी मुसलमान बलात्कार कर रहे थे और कलमा पढ़वा रहे थे, तो आप क्या कर रहे थे?” सरहदी गांधी का जवाब सरल, छोटा सा था : “पाकिस्तानी हुकूमत ने मुझे पेशावर की जेल में पन्द्रह सालों से नजरबन्द रखा था।” उस समय मैं 28 वर्ष का जूनियर रिपोर्टर था। मैंने उस हिन्दू महासभायी पत्रकार का कालर पकड़कर और फटकारा कि, “पढ़कर, जानकर आया करो कि किससे क्या पूछना है।”

उन्हीं दिनों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो फाड़ की कगार पर थी। कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, एस. के. पाटिल, अतुल्य घोष आदि ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से बरतरफ कर दिया था। बादशाह खान से मेरा प्रश्न था, “आप तो राष्ट्रीय कांग्रेस में 1921 से पच्चीस साल तक जुड़े रहे, क्या आप दोनों धड़ों को मिलाने की कोशिश करेंगे?” उनका गला रुंधा था। नमी आ गयी थी। आर्त स्वर में बोले : “तब (1947) मेरी नहीं सुनी गई थी। सब जिन्ना की जिद के आगे झुक गये थे। मुल्क का तकसीम मान लिया। आज मेरी कौन सुनेगा?”

उनकी नजर में यह कांग्रेस “वैसी नहीं रही जो बापू के वक्त थी। आज तो सियासतदां खुदगर्जी से भर गये हैं।” बादशाह खान को यह बात सालती रही कि दुनिया को अपना कुटुंब कहने वाला हिन्दू भी फिरकापरस्त हो गया है। कट्टर मुस्लिमपरस्ती के तो वे स्वयं चालीस साल तक शिकार रहे। आत्मसुरक्षा की भावना प्रकृति का प्रथम नियम है। किन्तु उत्सर्ग भाव तो शालीनता का उत्कृष्टतम सिद्धांत होता है। बादशाह खान का त्यागमय जीवन इसी उसूल का पर्याय है।

के. विक्रम राव

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