आज हम हिन्दी की सुपरिचित कवयित्री सुदर्शन शर्मा
की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं
टिप्पणी है श्रीकांत सक्सेना की
ब्रज श्रीवास्तव
प्रस्तावना
सुदर्शन जी स्त्री के पक्ष में खड़े होकर उनकी आवाज़ बनी है । वर्षों से स्थापित ढांचों और खाँचों में निबद्ध स्त्री,सम्पूर्ण मनुष्य की ही भांति,अंतर्मन की ग्रंथियों को खोलकर,मुक्ति उड़ान का सपना देख रही है,ये कविताएं इसी उड़ान के पंख हैं।इनमें एक तरफ जहां आक्रोश है तो प्रेम और कोमलता भी है । कर्तव्य हैं तो अधिकार पाने की अदम्य अभीप्सा भी है । मानवीय गरिमा के साथ, दुनिया को संतुलन और साम्य के साथ ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की समेकित जीवन-दृष्टि भी है ।
कविताओं में विचारों का विस्तार है जो शब्दों के परे जाकर भी पाठक को उद्देलित करती हैं। पढ़ने-सुनने के साथ-साथ ये कविताएं अनुशीलन की अपेक्षा भी रखती हैं । ज़्यादा न कहकर पाठकों के हवाले आज की
मीठी,तीखी सी कविताएं …..
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1️⃣
|| डेटाबेस ||
आंकड़ों में शुमार नहीं होतीं
ख़ुदक़ुशी कर चुकीं
बहुत सी औरतें
औरतें
जो ख़ुद को मार कर
सजा देती हैं बिस्तर पर
पूरे सोलह सुहाग चिन्हों के साथ
औरतें
जो जला कर मार डालती हैं ख़ुद को
रसोईघर में
और बेआवाज़ पकाती रहती हैं
सबकी फरमाइश के पकवान
औरतें
जो लांघ गई थीं कभी
खींची गई रेखाएँ सभी
प्रेम के अतिरेक में
और डूब मरी थीं
रवायतों के चुल्लु भर पानी में
अब भी तैरती रहती हैं
घूरती आँखों के समंदर में
सुबह से शाम तक
मुर्दा रूहों पर
तेजाब से झुलसे
चेहरे चढ़ाए औरतें
कीमत की तख्ती थामे
मण्डी में खड़ी
कलबूत औरतें
बहुत-बहुत सारी
आत्महत्यारिन औरतें
जिनकी कभी कोई गणना नहीं हुई
मुकदमे दर्ज हुए
पर सुनवाई नहीं हुई
सज़ा हुई
पर रिहाई नहीं हुई
शायद रेल की पटरी पर लेटी,
दरिया के किनारे खड़ी
या
माचिस घिसने को तैयार
औरत के पास है
इनका डेटाबेस!!
— सुदर्शन शर्मा
2️⃣
||पानी पर तीन कविताएं ..||
पानी – (१)
पृथ्वी पर मरने से पहले
मनुष्य की आंख में मरा पानी पर्यावरण विदों को
मनुष्य की आंख का पानी बचाना चाहिए था पहले
ताकि बचा रहता
पत्तों टहनियों हवा
और बच्चों की नाव वाले गड्ढों में
पानी
पानी – (२)
मनुष्य ने सारा पानी अपने नाम लिख लिया
नदियों को दे दिए वह नाम
जो देना चाहता था अपनी संतानों को
और समंदरों को बांट लिया आपस में मनुष्य को जानवरों को सौंप देना चाहिए था पानी का प्रबंधन
क्योंकि जानवरों की आंख में अभी जिंदा है
पानी
पानी – (३)
पृथ्वी पर पानी की हत्या करने के उपरांत
अन्य ग्रहों पहुंचा मनुष्य
पानी की तलाश में
मनुष्य नहीं जानता था
अन्य ग्रहों पर प्यास के समानुपात में दिया जाता है पानी
दंभ के समानुपात में केवल युद्ध मिलता है
वहां
— सुदर्शन शर्मा
3️⃣
|| बेदखलनामा ||
पृथ्वी कब से छाप रही है अपने अखबार के हर दूसरे पन्ने पर मनुष्यों का बेदखल नामा
मेरा और मेरे पूर्वजों का नाम छपा था किसी एक दिन
और किसी दूसरे दिन छपने वाला है मेरी आने वाली पीढ़ियों का नाम
तुम जो माँ माँ पुकार कर वक्ष पर चढ़ बैठे हो
और रख दी है विकास की खड़ग उसके कंठ पर
ऐसी मातृ हंता प्रजाति को अपनी संतान
नहीं मानती पृथ्वी
—- सुदर्शन शर्मा
4️⃣
|| देरसवेर ||
देर सवेर सभी लड़कियां ब्याह दी गयीं
देर सवेर सभी पिता निवृत्त हो गए
किराए के घरों में जीवन गुज़ार देने वाले पिता की पुत्रियों के फेरे पड़े
किसी घर के मालिकाना हक़ के साथ
और खाने को मोहताज पिताओं की बेटियां विदा हो गयीं
दूर देस में उपलब्ध रोटी के साथ,
और इस तरह
कुछ विधुर, तलाकशुदा और किशोर से युवा होते बच्चों के पिताओं के घर सज गए
उम्र में उनसे आधी कुंवारी लड़कियों के मूक आत्मसमर्पण से
खाते पीते अघाते घरों के अल्प बुद्धि बेटों को संभालने
भुखमरी से जूझते घरों की कुछ खिलखिलाती ज़हीन बेटियां आयीं
और कुछ ऐबी लड़कों को सुधारने हेतु लायी गयीं,
बिन बाप की कम उम्र सीधी लड़कियां
कुछ काली, मोटी या ‘शादी की उम्र लांघ चुकी’ पढ़ी-लिखी कमाऊ लड़कियां निठल्ले लड़कों के हिस्से आ गयीं
और घर से भाग चुकी लड़कियां
दंडस्वरूप भेज दी गई उन घरों में
जो किसी सड़क या पगडण्डी से नहीं जुड़ते थे
यह एक व्यवस्था थी
जिसके अंतर्गत
देर सवेर सभी लड़कियां ब्याह दी गयीं
देर सवेर सभी पिता निवृत्त हो गए
— सुदर्शन शर्मा
5️⃣
|| स्त्री के भीतर की कुंडी ||
एक स्त्री ने भीतर से कुंडी लगाई
और भूल गयी
खोलने की विधि
या कि कुंडी के पार ही जनमी थी
एक स्त्री
उस स्त्री ने केवल कोलाहल सुना
देखा नहीं
कुछ भी,
नाक की सीध चलती रही
जैसे कि घोड़ाचश्म पहने जनमी थी वो स्त्री
जैसे कोई पुरुष जनमा था
कवच,कुंडल पहने
दस्तकों ने बेचैन किया
तो सांकल से उलझ पड़ी वो स्त्री
इस उलझन पर बड़ी गोष्ठियां होती रहीं
पोप-पादरी
क़ाज़ी -इमाम
से लेकर
आचार्य-पुरोहित
ग्रह नक्षत्र
सब एकत्रित हुए
उन्होंने कहा
करने को तो कुछ भी कर सकती है
किंतु सांकल से नहीं उलझ सकती
वो स्त्री
उस स्त्री के भीतर की सांकल पर
संस्कृतियों के मान टिके हैं
और बंद कपाट के सहारे खड़ा है
गर्वीला इतिहास
उन्होंने कहा
ईश्वर को ना पुकारे वो स्त्री
वो नहीं आयेगा
क्योंकि एक स्त्री के भीतर की बंद कुंडी
‘धर्म की हानि’ नहीं है
इस समय
मैं भीतर हूँ उस स्त्री के
और जंग खायी कुंडी पर डाल रही हूँ
हौसले का तेल,
मैं सिखा रही हूँ
एक स्त्री को भीतर की कुंडियां खोलना
क्या आपको आता है
किसी स्त्री के भीतर जा कर
बंद कुंडियां खोलने का हुनर?
— सुदर्शन शर्मा
6️⃣
|| तरकीबें ||
मनुष्यमनुष्य बने रहने की ज़्यादा तरकीबें नहीं बची हैं मेरे पास
बस मैं कभी कभी
गैंतियों तले गिड़गिड़ाती ज़िंदगियों पर रो लेती हूँ
या फिर ये
कि मृत्यु का भौंडा उत्सव मनाता होमोसेपियन
अभी भी भयभीत नहीं कर पाता मुझे
मैं मनुष्य बनी रहूँ
इसलिए पदक्रम की तमाम सीढ़ियां तोड़ कर
समतल करना चाहती हूँ
मनुष्यता का आंगन
कि हरहरा कर गिर पड़े
सबसे ऊपरी पायदान पर खड़ा
मेरा ही कोई
पूर्वज,पड़ोसी, इष्ट या सखा
मनुष्य बने रहने के लिये
मैं उखाड़ती रहती हूँ
वो सारी देहरियां
जिन्हें लांघते हुए
अटक कर गिर पड़ती हैं स्त्रियां
और काट दी जाती हैं
देहरियों के बीचोबीच
मैं कभी कभी
कटी हुई स्त्रियों को उनके पैर उठा कर देती हूँ
कि वो जोड़ लें उन्हे धड़ के साथ
और भाग निकलें
यहाँ से
इतने से भी बात ना बनी
तो मैं निकाल लाऊंगी
घूरती आंखों को कोटरों से
और रख दूंगी
उन्हीं स्टापू खेलती बच्चियों की हथेलियों पर
कंचों की तरह
या कभी उलट दूंगी
पड़ोस के प्लॉट में कचरा बीनते साहिब ए आलम का बोरा
किसी आलीशान लिविंग रूम में
और आते में भर लाऊंगी
किताबें, चप्पलें और रोटियां
वहाँ से
देखना
मैं यही करूंगी
एक दिन
क्योंकि
मनुष्य बने रहने की चंद ही तरक़ीबें बची हैं
अब मेरे पास
— सुदर्शन शर्मा
🟡🟢🔵🟣🟤
|| परिचय ||
सुदर्शन शर्मा
मूल रूप से पिंड मलौट, ज़िला मुक्तसर,पंजाब से।
फिलहाल श्रीगंगानगर (राजस्थान) में निवास
अंग्रेज़ी, हिंदी और शिक्षा में स्नातकोत्तर।
वृत्ति -अध्यापन
पुस्तक – ‘तीसरी कविता की अनुमति नहीं’ पहला और एकमात्र काव्य संग्रह बोधि प्रकाशन , जयपुर की ‘दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना – 2018 के अंतर्गत प्रकाशित ।
हिंदी पंजाबी की कुछ पत्रिकाओं, कुछ सांझा संकलनों और ब्लाग्स पर कुछ रचनाएं प्रकाशित।
– श्रीकांत सक्सेना