जोश और जुनून हो तो विपरीत परिस्थितियों में भी राह निकल आती है. महाराष्ट्र में नक्सल प्रभावित इलाका गढ़चिरौली व चंद्रपुर जिले कभी किसानों की आत्महत्या की वजह से चर्चा में रहते थे. यहां के किसानों के बारे में कहा जाता था कि वे कर्ज में ही जन्म लेते हैं, कर्ज में जीते हैं और कर्ज में ही दम तोड़ देते हैं. अंकोला निवासी पर्ल साइंटिस्ट अशोक मनवानी ने सूखाग्रस्त चंद्रपुर के किसानों की तकदीर बदलने की ठान ली. उन्होंने सूखा प्रभावित क्षेत्रों में किसानों को मोतियों के उत्पादन के लिए प्रेरित किया. उनके प्रशिक्षण का परिणाम है कि नक्सल प्रभावित यह क्षेत्र आज मोतियों के उत्पादन के लिए चर्चा में है.
वर्ष 2012 में अशोक मनवानी ने पचास किसानों को मोतियों के उत्पादन की ट्रेनिंग दी. वे बताते हैं कि जंगल में किसानों को ट्रेनिंग देना भी आसान नहीं था. ओएस्टर (सीप) खोलने के लिए ओपनर व ऑपरेशन टूल्स स्थानीय बाजार में उपलब्ध नहीं थे. कुछ समृद्ध किसान चेन्नई से इन उपकरणों को मंगाकर मोती का उत्पादन कर रहे थे. इन महंगे टूल्स को खरीदना चंद्रपुर के किसानों के लिए संभव नहीं था. किसानों को ट्रेनिंग तो दे दी गई, लेकिन वे बिना उपकरण के मोतियों का उत्पादन करें तो कैसे? उन्होंने कहा, बिना सरकारी मदद और समुचित उपकरण के इन किसानों की मदद कर पाना काफी मुश्किल था. एक बार तो ऐसा हुआ कि किसानों को ट्रेनिंग देने के दौरान मेरे पास भी ऑपरेशन टूल्स उपलब्ध नहीं थे. चेन्नई स्थित कंपनी बंद हो चुकी थी. सोचा, क्यों न कुछ ऐसा उपकरण बनाया जाए जो सस्ता हो और आसानी से उपलब्ध भी हो. साइकिल के स्पोक से ओएस्टर ओपनर बना दिया. ओएस्टर का आवरण खोलते समय यह ख्याल रखना होता है कि वह ज्यादा न खुले, नहीं तो जीव दम तोड़ देता है. इस उपकरण से किसानों की परेशानी कम हुई, लेकिन अभी एक समस्या और थी. ओएस्टर को तालाब में डालने से पहले उसे ऑपरेट करना होता है. उसके अंदर एक बाह्य पदार्थ डालना होता है, जिससे मोतियों का उत्पादन होता है. यहां के किसानों को ऑपरेशन टूल्स उपलब्ध कराने के लिए एक लकड़ी की मशीन बनाई, जिससे इस इलाके में मोतियों का उत्पादन संभव हो सका. इन दोनों आविष्कारों के लिए वैज्ञानिक अशोक मनवानी को सरकार से अवार्ड भी मिल चुका है.
आज चंद्रपुर में सुयोग कावड़े जैसे कई किसान मोतियों का उत्पादन कर लाखों रुपये महीने कमा रहे हैं. इस इलाके की खासियत है कि यहां तालाब व छोटी नदियों में सीप बहुतायत में उपलब्ध हैं. कुछ किसान नदी से सीपियों को निकाल मुंबई व आस-पास के इलाकों में बेचकर भी पैसा कमा रहे हैं. कुछ किसान सीपियों से हैंडीक्राफ्ट्स तैयार कर स्थानीय बाजार में बेच रहे हैं. सीप से बने दीयों की एक खासियत है कि इनकी सतह चमकीली होने के कारण यह ज्यादा रोशनी बिखेरती हैं, साथ ही मिट्टी के दीयों की अपेक्षा कम तेल सोखती हैं. अब तो यहां के किसान सीप व मछली पकड़ने की जाली व अन्य उपकरण भी तैयार कर अच्छा पैसा कमा रहे हैं. गोंदिया जिले के गांधी ने भी किसानों को एकजुट कर मोती उत्पादन के लिए प्रेरित किया. गांधी वर्कशॉप आयोजित कर पर्ल कल्चर से किसानों को अपनी आमदनी बढ़ाने की सलाह दे रहे हैं. एक पिछ़डे इलाके में पर्ल कल्चर के सपने को उतारना आसान नहीं था. लेकिन इलाके के किसानों ने हिम्मत दिखाई और वे अब पारंपरिक खेती छोड़कर कृषि विज्ञान केंद्र में वैज्ञानिक तरीकों से मोती उत्पादन सीखकर एक बेहतर जीवन जी रहे हैं. अब गढ़चिरौली जैसे क्षेत्र में मोती उत्पादन के क्षेत्र में कुछ बड़े प्रोजेक्ट भी आने लगे हैं. सरकार भी मोती उत्पादक किसानों की मदद के लिए वित्तीय मदद दे रही है.
मिशन पर्ल कल्चर को बनाया लक्ष्य
2001 से ही अशोक मनवानी फ्रेश वाटर पर्ल कल्चर सलाहकार के रूप में देशभर में लोगों को मोती उत्पादन के लिए प्रेरित कर रहे हैं. अशोक बताते हैं कि कॉलेज लाइब्रेरी में मोती उत्पादन के बारे में पढ़ा था. तभी से अंकोला में मोहना नदी से सीप चुनकर घर ले आता और सीप को ऑपरेट कर समीप के तालाब में डाल देता. कई वर्षों तक ऐसा करता रहा, लेकिन सीप से मोती नहीं निकली. छोटी सीप से मोती का उत्पादन नहीं होने पर 10-12 साल तक रिसर्च करता रहा. आखिरकार छोटे तालाब व नदियों के मीठे जल में मोती उत्पादन में सफलता मिली. 2002 में उनकी शादी कुलंजन दूबे से हुई, जो हैंडीक्राफ्ट आर्टिस्ट और फैशन डिजाइनर थीं. शादी के तीन दिन बाद ही अशोक मनवानी किसानों को ट्रेनिंग देने के लिए घर से निकल पड़े. तभी से पति-पत्नी दोनों ने मिशन पर्ल कल्चर को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. उनका मकसद है कि देश मोती उत्पादन में आत्मनिर्भर बने ताकि यहां से अन्य देशों को मोतियों का निर्यात किया जा सके.
ऐसे होती है मोतियों की खेती
प्राकृतिक रूप से सीप में कोई बाहरी पदार्थ, बालू का कण या कीट के प्रवेश करने से मोती का उत्पादन होता है. धीरे-धीरे सीप इस बाह्य पदार्थ को स्वीकार कर लेते हैं और उस कण के चारों तरफ एक चमकदार परत जमा करते जाते हैं. प्राकृतिक रूप से मोती बनाने में इसी तरीके का इस्तेमाल होता है. मोती बनने में पांच से छह महीने का समय लगता है. अशोक किसानों को डिजाइनर मोती भी तैयार करने की ट्रेनिंग देते हैं, जिसकी घरेलू व विदेशी बाजार में काफी मांग है. डिजाइनर मोती तैयार करने के लिए खास किस्म के खांचे बनाकर सीप में डाले जाते हैं, जिससे बुद्ध, गणपति, साईं व होली क्रॉस डिजाइन के मोती तैयार किए जाते हैं.
समेकित खेती से कर रहे मोती उत्पादन
बिहार में बेगूसराय जिले के तेतारी गांव में जयशंकर प्रसाद बूढ़ी गंडक नदी से सीप इकट्ठा कर मोतियों की खेती कर रहे हैं. उन्होंने पर्ल वैज्ञानिक अशोक मनवानी के निर्देशन में मोती उत्पादन की ट्रेनिंग ली. जयशंकर प्रसाद को समेकित खेती के लिए 2011 में नेशनल अवॉर्ड भी मिल चुका है. जयशंकर प्रसाद कहते हैं कि मीठे जल वाले मोतियों के उत्पादन के लिए किसानों को सरकार प्रोत्साहन दे, तभी मांग के अनुरूप उत्पादन संभव है. मोती का बाजार विकसित होगा, तभी किसान बेहतर उत्पादन के लिए प्रेरित होंगे. जयशंकर अपने डेढ़ एकड़ के तालाब में कतला, रेहु जैसी मछलियों की ब्रीडिंग कराते हैं. कतला और रेहू मछलियां ठहरे पानी में ब्रीडिंग नहीं करती हैं, यह वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है. इसी तालाब में बूढ़ी गंडक नदी से सीप इकट्ठे कर वे मोतियों की खेती करते हैं. तालाब के मेड़ पर उन्होेंने सागवान, अमरूद, अखरोट और केले के सैकड़ों पेड़ लगाए हैं, जिससे तालाब में गिरे पत्तों से मछलियों का भोजन (पेंटान) तैयार होता है. तालाब के किनारे की जमीन पर वर्मी कम्पोस्ट के उत्पादन के अलावा बत्तख, बर्बरिक नस्ल की बकरी व मुर्गी पालन भी किया जाता है. वे पॉली हाउस में औषधीय पौधों व सब्जियों की खेती कर अपने क्षेत्र में किसानों को ऑर्गेनिक खेती के लिए भी प्रोत्साहित कर रहे हैं. वे कहते हैं कि मोती उत्पादन के लिए उच्च शिक्षा और ज्यादा पैसे की जरूरत नहीं होती, लगन हो तो कम पैसे में ही मोती उत्पादन किया जा सकता है.