23 मई 2017 को पशुओं की बिक्री पर भारत सरकार ने जो पाबंदी लगाई थी, उसे वापस लेने के संकेत मिल रहे हैं. कहा जा रहा है कि सरकार का यह यू टर्न किसानों के लगातार प्रदर्शन और संघर्ष के कारण संभव हो रहा है. इस लिहाज से यह किसानों की बड़ी जीत है. लेकिन यह भी कटू सत्य है कि इस संकेत को देने में केंद्र सरकार को 6 महीने से ज्यादा लग गए. तब तक 30 मासूम और बेगुनाह मुसलमान भीड़ के हाथों मौत का शिकार हो गए और कई जख्मी भी हुए.
इन घटनाओं को अंजाम देने वाले आजाद घूम रहे हैं. इस कानून के बेजा इस्तेमाल से जो धार्मिक हिंसा हुई, उससे एक तरफ जहां देश के भीतर भय का वातारवण पैदा हुआ, वहीं दूसरी तरफ देश के बाहर भी असहिष्णुता वाली छवि को लेकर भारत की बदनामी हुई. मामला इस हद तक जा पहुंचा कि ऐसी भी खबर आई कि अमेरीका ने भारत की धार्मिक हिंसा के वातावरण को खत्म करने के लिए यहां के किसी एनजीओ को फंड मुहैया कराया है. हाल में भारत के दौर के दौरान पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का इस सम्बन्ध में चिंता व्यक्त करके नसीहत करना भी इसी सिलसिले की कड़ी है.
उल्लेखनीय है कि उक्त पशु कानून के तहत पूरे देश में पशुओं के बाजार में तमाम तरह के पशुओं की बिक्री पर पाबंदी लग गई थी. उसके अनुसार, किसी को भी पशु खरीदते समय लिखित रूप से अंडरटेकिंग देना होता था कि वे बुचड़खाने के लिए नहीं, बल्कि कृषि या निजी इस्तेमाल के लिए पशु खरीद रहे हैं. इस सिलसिले में 23 मई को जो नोटिफिकेशन जारी किया गया था, उसके अनुसार, पशु खरीदते समय कई तरह की शर्तों और कानून का पालन करना अनिवार्य था. इस कानून में जिन पशुओं का जिक्र था उनमें, बैल, गाय, भैंस, बछड़ा और ऊंट को भी शामिल किया गया था. 6 महीने पहले उक्त नोटिफिकेशन जारी होने के बाद भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार द्वारा वैचारिक आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर पाबंदी लगाने की इस कोशिश को सख्त आलोचना का सामना करना पड़ा. इसी दौरान गौ रक्षकों द्वारा कथित रूप से कई मुसलमानों को परेशान करने और भीड़ द्वारा उनपर हमला करने जैसी घटनाएं भी देश के कई हिस्सों से सामने आईं.
इसी के साथ-साथ किसान भी इस कानून के खिलाफ मैदान में आ गए. इसे लेकर ऑल इंडिया किसान सभा (एआईकेएस) ने सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दायर की थी. इसपर सुनवाई करते हुए इसी साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने, मद्रास हाई कोर्ट द्वारा पशु कानून के उक्त नोटिफिकेशन पर लगाए गए स्टे का दायरा बढ़ाकर इसे पूरे देश में लागू करने का आदेश दिया.
किसानों ने प्रदर्शन के दौरान नोटिफिकेशन की कॉपियां जलाई. एआईकेएस का कहना था कि कम से कम 30 फीसदी खेती पशु कानून की वजह से प्रभावित हुई है. इस कानून का प्रभाव यह हुआ कि जो पशु लगी हुई शर्तों की वजह से बेचे नहीं जा सके थे, वे भूखे मरने लगे. पशुओं को शरण देने वाले मालिकों की शिकायत यह थी कि मरते हुए इन पशुओं की देखभाल के लिए सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाने वाला फंड उन्हें नहीं मिल रहा है. इस संदर्भ में किसान सभा के जेनरल सेक्रेटरी हन्नान मुल्ला का साफ तौर पर कहना है कि इस फैसले के वक्त किसानों की परेशानियों का ख्याल नहीं रखा गया. इसके कारण पूरे देश के किसानों की परेशानियां बढ़ीं. उनका यह भी कहना है कि अब जबकि सरकार पशु कानून की वापसी का फैसला ले रही है, तो उसे चाहिए कि वो राज्य सरकारों को निर्देष दे कि वे पशुओं के बाजार और उनके खरीद-फरोख्त को पहले की तरह आसान और सुविधाजनक बनाएं.
उनका कहना है कि किसानों की मांग के अनुसार, भाजपा शासित राज्य, जिन्होंने इस कानून को लागू किया था, अब इस बात को सुनिश्चित करें कि वे पशुओं की बिक्री पर लगी पाबंदी को खत्म करके कमजोर पशुओं को किसानों से बाजार की कीमत पर खरीदेंगे. उनका कहना है कि उन्हें इस बात को भी सुनिश्चित करना होगा कि आवारा पशुओं को शेल्टरों में रखा जाय, ताकि वे फसल को नुकसान न पहुंचाएं और गौ रक्षकों के नाम पर सक्रिय क्रिमिनल गैंगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाय. साथ ही गौ रक्षा के नाम पर भीड़ हिंसा का शिकार लोगों को मुआवजे के तौर पर एक करोड़ रुपए दिए जाएं. किसान सभा की इस बात में दम है, क्योंकि ऐसी खबरें मिलती रही हैं कि पशुओं को लेकर जा रही गाड़ियों को रोककर रिश्वत मांगा जाता था और पशुओं को लेकर जा रहे लोगों को परेशान भी किया जाता था. यह भी खबर है कि ऐसा करने वाले गौ रक्षक कार्ड दिखाते हुए कहते थे कि यह राज्य सरकार की तरफ से जारी किया गया है.
किसान सभा ने पशु कानून की वापसी को किसानों की जबरदस्त जीत बताया है और उम्मीद की है कि इस कानून का बहाना बनाकर जिस तरह भीड़ हिंसा को बढ़ावा दिया गया उसका सिलसिला अब बंद होगा और उसके आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी. उनमें से कुछ फरार हैं और कुछ जमानत पर रिहा हैं. उल्लेखनीय है कि दादरी के मोहम्मद अखलाक की हत्या के कथित आरोपी न सिर्फ आजादी से घूम रहे हैं, बल्कि उन्हें नौकरी देकर प्रोत्साहित भी किया जा रहा है.
उक्त पशु कानून के बारे में यह कहा जा सकता है कि यह न सिर्फ धार्मिक और वैचारिक आधार पर बनाया गया था, बल्कि इसे बनाते वक्त विभिन्न व्यावहारिक समस्याओं का भी ध्यान नहीं रखा गया था. इसी के कारण किसानों के लिए पशुओं की क्रय ब्रिक्री की समस्या पैदा हो गई थी. आवारा और कमजोर पशुओं की सुरक्षा और उनकी देखभाल का कोई उचित व्यवस्था न होने के कारण ये शेल्टर हाउसों के लिए मुसिबत बन गए थे. तथाकथित गौरक्षक पशु कानून के बहाने कानून को अपने हाथ में लेकर हत्याएं करने लगे, जिसके कारण भीड़ हिंसा की घटनाओं को बढ़ावा मिला. बहरहाल, अब जरूरत है कि केंद्र सरकार पशु कानून की वापसी या इसमें संसोधन करते समय इन तमाम व्यावहारिक समस्याओं का लिहाज रखे.