एक दिन बसंत की नवरात्रि में चित्रकूट के आवास-काल में कालिंजर की भैरवी के आग्रह पर बाबा घोरा देवी के यहां अनुष्ठान में जा रहे थे. मुझे जब इसका पता लगा, तो मैंने भी साथ चलने की अनुमति मांगी. उन्होंने मना किया, पर अंत में मान गए. हम लोग घोरा देवी के मंदिर की ओर चले. अवधूतिन ग़ौर-वदना एवं जटिल केश वाली थीं. उनके हाथ में नारियल का एक कमंडल था.
मंदिर तक पहुंचने में क़रीब तीन-चार घंटे का समय लगा. घोरा देवी के मंदिर से सटे पश्चिम की विस्तृत चट्टानों पर साधना एवं पूजन की व्यवस्था होने लगी. शुक्ल पक्ष की अष्टमी थी और आकाश में चांदनी छिटक रही थी. सरभंगा के साधु के यहां से आवश्यक पात्र मंगवाए गए. उस साधु ने बताया कि यहां पर बाघ आ सकते हैं. इस पर चरण पादुका के पुजारी ने डपट कर कहा, बाबा को बाघ का डर नहीं है. प्रसाद बनने लगा और अवधूतिन स्नान आदि से निवृत्त हो भगवती का शृंगार करने लगीं. भैरवी ने घोरा देवी का अद्भुत शृंंगार किया, जो देखते ही बनता था. इधर औघड़ बाबा बैठे हुए हुक्का गुड़ग़ुडा रहे थे और उनके बगल में बैठे भरत मिलाप के महंत सुपारी आदि काटकर बाबा को दे रहे थे. इतने में घोड़े पर सवार एक वयोवृद्ध तेजस्वी महात्मा वहां उपस्थित हुए. बाबा, भरत मिलाप के महंत एवं भैरवी सभी ने उस वृद्ध महात्मा अघोराचार्य सोमेश्वर राम जी का सादर अभिवादन किया. भगवान राम ने कहा, आपने बड़ी देर कर दी, महाराज. अघोराचार्य एक अद्भुत मुस्कान के साथ बोले, मैंने स्वयं कुछ विलंब से अपने आश्रम से प्रस्थान किया. चिकनी के पुजारी ने अघोराचार्य के घोड़े को एक स्थान पर बांध दिया और पानी पिलाया. मैंने इसी बीच टार्च जलाकर घड़ी देखी, 11 बजे थे.
वे कब और कैसे आईं, इसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं. उनकी वेशभूषा बड़ी विचित्र थी. वस्त्र नीला था, गले में स्फटिक की चमकती माला थी और हाथ में नारियल का कमंडल था. मैंने उन्हें काफी नज़दीक से देखा था. रात्रि में भरत मिलाप के महंत कह रहे थे कि ये भैरवियां आकाशगामिनी हैं.
कुछ देर बाद मैंने देखा कि अघोराचार्य एवं अवधूत भगवान राम सहित सभी साधक हवन की व्यवस्था कर रहे थे. एक मिट्टी की हांडी में कुछ छोटी-छोटी मछलियां थीं और एक कलश में दुधुवा भरा था. मछलियों को दुधुवा में भिगोकर साधक मंडल हवन कर रहा था. पूरा वातावरण रहस्यमय एवं रोमांचकारी हो चला था. इतने में एक बड़ी विचित्र और रोमांचकारी घटना घटी. हो सकता है कि मेरे नेत्र धोखा खा गए हों या फिर अत्यधिक थकान के कारण ऐसा अनुभव हुआ हो. मैंने देखा कि घोरा देवी से एक अद्भुत तेजपुंज निकला और सभी साधकों के हृदय को स्पर्श करता हुआ अग्निकुंड में प्रविष्ट हो गया. इसी समय साधक मंडल ने एक अजीब ठहाका लगाया, जो निर्जन जंगल में दूर-दूर तक व्याप्त हो गया. मुझे यह सब बड़ा विचित्र लगा और मैं अपना झोला लेकर सरभंगा आश्रम की ओर चल दिया. इसी बीच साधक मंडल ने फट्-फट् मंत्र का उच्चारण प्रारंभ कर दिया. दूसरे ही क्षण सारा वातावरण शिवोऽहं, भैरवोऽहं, गुरुपदरतांऽहं की गंभीर वाणी से गूंज उठा.
दूसरे दिन सुबह जब मेरी मुलाकात पुजारी से हुई, तो मैंने रात्रि की साधना के बारे में कुछ और जानकारी प्राप्त करनी चाही. पुजारी ने बताया कि रात्रि में मेरे (लेखक के) जाने के बाद हवन कुंड से एक अद्भुत और तेजमय लपट उठी, जो क़रीब 40-50 फुट तक आकाश की ओर गई. कुछ देर बाद यह अद्भुत ज्योति पुन: हवन कुंड की ओर वापस आकर भूमिगत हो गई. इस ज्योति के नीचे आते ही उसमें से दिव्य रूप वाली भैरवियां उपस्थित हुईं. हो सकता है कि वे जंगल में कहीं पहले से ही रही हों और हवन कुंड के प्रकाश के कारण इधर आकृष्ट हो गई हों. वे कब और कैसे आईं, इसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं. उनकी वेशभूषा बड़ी विचित्र थी. वस्त्र नीला था, गले में स्फटिक की चमकती माला थी और हाथ में नारियल का कमंडल था. मैंने उन्हें काफी नज़दीक से देखा था. रात्रि में भरत मिलाप के महंत कह रहे थे कि ये भैरवियां आकाशगामिनी हैं. ये भैरवियां भी चकार्चन के साथ-साथ पान-पात्र ग्रहण कर रही थीं. साधना के उपरांत लोगों ने घोरा देवी को प्रणाम किया और थोड़ा विश्राम करते ही कालिंजर की भैरवी के साथ भैरवियां कब और किस मार्ग से चली गईं, मुझे मालूम नहीं, क्योंकि उस समय मैं अत्यधिक थका था, आंखें भारी हो रही थीं और मुझे नींद आ रही थी.