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आदिवासियों को सता रहा विस्थापन का डर

मध्यप्रदेश में बैतूल क्षेत्र में कुछ महीनों से हेलिकॉप्टर आदिवासी क्षेत्रों और जंगलों के ऊपर मंडरा रहे हैं. उनमें कुछ मशीनें रखी हैं, जो इस क्षेत्र में यूरेनियम की खोज करने के लिए रेडियो एक्टिव तरंगों को पकड़ने की कोशिश कर रही हैं. वहीं आदिवासियों की जमीनों पर भारी-भरकम ड्रिलिंग मशीनें खुदाई के काम में जुटी हैं. भारी-भरकम मशीनों के जरिए एक हजार हेक्टेयर में यूरेनियम संभावित क्षेत्रों में खुदाई की जा रही है. आदिवासियों के खेतों में खड़ी फसलें मशीनों द्वारा जगह-जगह की गई खुदाई से बरबाद हो गई हैं. आदिवासी महिलाओं को जंगलों में जाने से रोक दिया गया है. वनोत्पाद को औने-पौने दामों में बाजार में बेचकर वे अपने परिवार का पेट भरती हैं. जंगलों की लकड़ियों से ही उनके घरों में चूल्हा जलता है.

खेती और वनोपज ही आदिवासियों की जीविका का एकमात्र साधन है. गांव के पास से बहने वाली एक नदी की धारा को भी मोड़ दिया गया है, जिससे ग्रामीणों को पेयजल और फसलों की सिंचाई में परेशानी हो रही है. वहीं इन बातों से अनजान अधिकारी सिर्फ इससे खुश हैं कि यदि यहां यूरेनियम मिल गया, तो बैतूल दुनिया भर में चर्चा के केंद्र में आ जाएगा. आदिवासियों की पीड़ा को न केंद्र और राज्य सरकार समझ रही है और न ही स्थानीय प्रशासन. अभी तो आदिवासियों को केवल जंगल और उनके खेतों में जाने से रोका गया है,

यूरेनियम मिलने पर 13 गांवों के 4000 से अधिक लोगों को पलायन का दंश झेलना होगा. ये गांव  खापा, झापड़ी और कच्चर इन तीन पंचायतों के अंतर्गत आते हैं. यहां की अधिकतर आबादी कोर्कू और गौंड जनजातियों की है. विवाद तब शुरू हुआ, जब सरकारी अधिकारियों ने आदिवासी महिलाओं को जंगल से लकड़ियां लाने और उनके खेतों में जाने से रोक दिया.

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