चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय ने हुर्रियत के वरिष्ठ नेता सैयद अली शाह गिलानी से कश्मीर मसले से लेकर उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी के बारे में विस्तृत बातचीत की.

ex-intसवाल – जैसे ही यहां से जम्मू की तरफ बढ़ते हैं या हवाई जहाज़ उड़ता है, फिर समझ लीजिए कन्फ्यूज़न ही कन्फ्यूज़न है. तो अभी हम लोग बात कर रहे थे. आप ने यहां हर बात साफ़-साफ़ कही है. अभी आप ही बता रहे थे. पर सवालों के ऊपर अगर आप एक बार इजाज़त दें, तो एक बार बातचीत करें, प्लेबेसाइट, पाकिस्तान, फ़ौज वगैरह पर.

जवाब – कश्मीर का मसला 1947 से चल रहा है. 1947 से लेकर आज तक यहां लोगों ने बेशुमार कुर्बानियां दी हैं, हिन्दुस्तान के फ़ौजी क़ब्ज़े के ख़िलाफ़. इसमें कोई ऐसी बात नहीं है, जो छुपी हुई है, जो प्रेस में नहीं आई है, जो किताबों में नहीं लिखी गई है, जो मुलाक़ातों के वक्त कही नहीं गई हैं. कोई ऐसी बात नहीं है. आप जो चाहते हैं, जो नए सिरे से दफ्तर को खोला जाए, उससेे कोई फ़ायदा नहीं है…

सवाल – इन चीज़ों के बारे में नहीं जैसे मिसाल के तौर पर….

जवाब – हिंदुस्तान ताक़त के नशे में मस्त है. जिस तरह कोई हाथी होता है न, हाथी को जब शराब पिलाई जाती है, तो वह मस्त हो जाता है. हिंदुस्तान ताक़त के नशे में मस्त है. वो रियलिटीज़ को तस्लीम नहीं करता है. वो अपने किए हुए वादों को अमलाने में, उसे पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता. 2010 में चिदम्बरम ने ऐलानन कहा कि कश्मीर प्रॉब्लम इज ब्रोकन प्रॉमिसेज़ (कश्मीर समस्या वादों का टूटना है). इससे बढ़कर और क्या हक़ीक़त हो सकती है कि उस वक्त के वज़ीर-ए-दाख़ला (गृहमंत्री) ने ऐलानन कहा कि कश्मीर का मसला जो है, वह यह है कि हमने उनके साथ वादे किए थे, वो वादे हमने पूरे नहीं किए हैं. यही है मसला. हिंदुस्तान ने वादे किए हैं. हिंदुस्तान की जो फौज़ यहां आई है. आंजहानी (स्वर्गीय) पंडित नेहरू ने यहां लाल चौक में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की मौजूदगी में कहा कि हम फौज़ वापस बुलाएंगे और आपको अपने मुस्तक़बिल का फैसला करने का मौक़ा फ़राहम करेंगे. लेकिन ये क़ज़िया (झगड़ा) हमारे उनके दरम्यान रह गया. उनका क्लेम यह था कि कश्मीर हमारा है और इसमें जो आए हैं कबायली वगैरह उनको यहां से निकाला जाए और हमें कश्मीर क़ब्ज़ा ताय्युन किया जाए. जब वहां उनका क्लेम तस्लीम नहीं किया गया, पाकिस्तान ने भी अपना स्टैंड बताया फिर अक़वाम मुत्तहेदा (संयुक्त राष्ट्रसंघ) ने फैसला किया कि जम्मू और कश्मीर एक डिस्प्यूटेड टेरिटरी है, जम्मू और कश्मीर के लोगों को सेल्फ-डिटरमिनेशन (आत्मनिर्णय) का हक मिलना चाहिए, ताकि वे अपने मुस्तक़बिल का फैसला कर सकें  कि वे भारत के साथ रहना चाहते हैं या पाकिस्तान के साथ. ये क़रारदादें हैं, उनपर हिंदुस्तान ने दस्तख़त किए हैं, तस्लीम किया है इन क़रारदादों को. पाकिस्तान ने भी दस्तख़त किए हैं और अक़वाम-ए-मुत्तहिदा में ये क़रारदादें मौजूद हैं. अमेरिका ने भी और अक़वाम-ए-मुत्तहिदा में जितने भी मुमालिक हैं, जितने भी सिक्युरिटी काउंसिल में मेम्बर हैं, सब इस पर गवाह हैं.

अब जम्मू और कश्मीर के लोग यही कहते हैं कि भई, आपने दस्तख़त किए हैं, इन क़रारदादों पर, उनको अमलाने में आपको क्या उज्र होना चाहिए. मैंने बार-बार ये कहा है, अपनी तक़रीरों में भी, किताबों में भी मैंने लिखा है कि भाई रेफरेंडम के नतीजे में अगर लोग ़फैसला करेंगे कि हम हिंदुस्तान के साथ रहेंगे, तो हमें कोई उज्र नहीं होगा, हम तस्लीम करेंगे. हमें किसी भी मुल्क के साथ कोई एख्तालाफ़ नहीं है, कोई ज़िद्द नहीं है, कोई अदावत नहीं है. हिंदुस्तान में जो एक अरब इक्कीस करोड़ लोग बसते हैं, वे हमारे इंसानी निस्बत से हमारे रिश्ते में हैं, भाई हैं. वहां के जो बीस करोड़ मुसलमान हैं, उनके साथ दो रिश्ते हैं. एक इंसानी रिश्ता है, एक दीनी रिश्ता है, मज़हब का रिश्ता है. तो हम इनलोगों के साथ अदावत कैसे रखें, दुश्मनी कैसे रखें? लेकिन हिंदुस्तान जो ज़ुल्म यहां कर रहा है, उस ज़ुल्म की मिसाल इस ख़ित्ते में नहीं मिलेगी. आप ख़ुद देख रहे हैं. तो हम हिंदुस्तान के, हिंदुस्तान का जो क़ब्ज़ा है, हम उसके खिलाफ़ जिद-ओ-जोहद कर रहे हैं और निहत्थे हाल में कर रहे हैं. हमारे पास कोई बंदूक़ नहीं है, हमारे पास कोई पैलेट गन नहीं है, हमारे पास कोई गनर नहीं है. हां, जब हमारे जवानों को आगे बढ़ने से पुलिस रोकती है, फौज़ रोकती है, बीएसएफ रोकती है, सीआरपीएफ रोकती है, तो वो अपनी-अपनी द़िङ्गा के लिए पत्थर उठाते हैं. इसके बग़ैर उनके पास कुछ भी नहीं. लेकिन पत्थर के मुक़ाबले में गोलियां चलती हैं, पैलेट गन चलते हैं, टीयर गैस शेलिंग होती है, लाठीचार्ज होता है, जब्र होता है. लोगों का ख़ून बहाया जा रहा है, लोगों की बिनाई (दृष्टि) ख़त्म की जा रही है. अभी कल ही एक वो कश्मीर में ईंशा बेटी की तस्वीर आई थी. उसके साथ उसकी मां थी और बाप भी बाएं तरफ़ था, दिन था.

वो बेटी कह रही थी, मुझे बताओ, ये दिन है या रात, 14 साल की बेटी. अब ऐसा ज़ुल्म, छोटे जवानों को उनकी बिनाई छीनना, पैलेट गन का इस्तेमाल करना, कहां का इंसाफ है? क्या हिंदुस्तान के जो गुरु गुजरे हैं, कृष्णजी गुजरे हैं, दूसरे बहुत से महात्मा लोग गुज़रे हैं, क्या उन्होंने यही तालीम दी है हिंदुस्तान के लोगों को कि वो आम लोगों पर ज़ुल्म करें, जिनके पास कोई हथियार नहीं, जिनके पास कोई फ़ौज नहीं है, जिनके पास कोई पुलिस नहीं है, जिनके बारे में अदालत भी कोई काम इंसाफ फ़राहम नहीं करती है? मैं 2010 से हाउस अरेस्ट हूं. अदालत में भी गए, अदालत भी कोई फैसला नहीं करती, कोई इंसाफ़ नहीं देती, कोई तहरीर नहीं है, कोई ऑर्डर नहीं है. कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि भाई इसको इस केस में हमने बंद रखा है. क्या वजह है? इसी तरह दूसरे लोग भी हैं. अब जो हज़ारों की तादाद में हमारे लोगों को गिरफ्तार किया गया, हज़ारों की तादाद में और फिर उनको जम्मू ले जाया जा रहा है. किसलिए जम्मू ले जाया जा रहा है? वहां जेलों की जो इंतेज़ामिया है, वो कॉम्युनल है, वो उनको वहां इज़ाएं (चोट) पहुंचाएंगे और फिर जो वहां क्रिमिनल केसेज़ में लोग, जो वहां जेल में हैं, वो भी उनके साथ लड़ाई लड़ेंगे, वो भी उनको सताते हैं, वो भी उनको तंग करते हैं. दो साल पहले एक शख्स को वहां क़त्ल किया गया, जब रजनी सहगल वहां सुपरिटेंडेंट थीं, कोट बलवाल में, उसको वहां शहीद किया गया. तो इसीलिए उनको जम्मू भेजा जा रहा है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट का ये ऑर्डर है कि भई किसी को गिरफ्तार किया जाए तो उसको अपने नज़दीकी किसी जेल में रखना, ताकि उसके रिश्तेदार जो हैं, वो उनके साथ मुलाक़ात कर सकें, उनको सहूलियत हो. लेकिन उसका भी कोई ख्याल नहीं किया जाता. अब ऐसे हालात में आप मज़ीद क्या जानना चाहते हैं.

सवाल- नहीं, मैं माफी के साथ बस यह जानना चाह रहा हूं कि जो कन्फ्यूज़न है वहां कि जब आप कश्मीर कहते हैं, तो वहां ये माना जाता है कि इसका मतलब ये है कि यहां की जो लीडरशिप है, ख़ासकर आप, इसको पाकिस्तान में मिलाने की बिसात बिछाते हैं. तो उसमें अभी यहां पता चला कि इसमें आप ये नहीं कहते हैं. आप ये कहते हैं कि कश्मीर का मतलब, जो 1947 में कश्मीर था, 47 में जो था, सारा हिस्सा, आप वो कहते हैं. तो सर ये वहां नहीं, मैं ये पूछना चाहता हूं कि इसमें आपका नज़रिया क्या है?

जवाब- हमारा नज़रिया ये है कि जम्मू-कश्मीर जो 1947 में था. आंजहानी (स्वर्गीय) हरि सिंह के दौरे इक्तेदार में जो था, जिसमें आज़ाद कश्मीर भी शामिल है, जिसमें गिलगित भी शामिल है, जिसमें बलतिस्तान भी शामिल है, जिसमें जम्मू भी शामिल है, लद्दाख भी शामिल है, कारगिल भी शामिल है, सारा जो जुग़राफ़िया उस वक्त जम्मू-कश्मीर का था, हम उसी के बारे में बात कर रहे हैं. हम सिर्फ कश्मीर वैली के बारे में बात नहीं कर रहे हैं. हमें जम्मू के लोगों के साथ कोई दुश्मनी नहीं है. मैंने आपसे कहा कि मज़हब की बुनियाद पर, धर्म की बुनियाद पर, नस्ल की बुनियाद पर, ज़ुबान की बुनियाद पर, पेशे की बुनियाद पर, वतन की बुनियाद पर हम किसी भी इंसान के साथ तअस्सुब (भेद-भाव) नहीं रखते, कोई ज़िद्द नहीं रखते. हमें ये फ़रमाया गया है अल्लाह की तरफ़ से, जिसपर हम ईमान रखते हैं. जिसका तजुर्मा है – ऐ मेेरे बंदों, मैंने तुमको पैदा किया है, लेकिन तुममें जो ये ज़ातें और क़बीलें हैं, ये ज़िद के लिए नहीं या किसी इख्तेलाफ़ के लिए नहीं हैं. तुम सारे एक ही मां बाप के बेटे और बेटियां हो. इस लिहाज़ से तुम्हें एक-दूसरे के साथ इंसानी रिश्ता है, ये हमको बताया गया है. हमको ये भी बताया गया है कि एक इंसान का क़त्ल करना, जो निहत्था हो, सारी इंसानियत के क़त्ल के बराबर है और एक इंसान को जान का तहफ्फूज़ देना, सारी इंसानियत को तहफ्फूज़ देने के बराबर है. हम उसी पर अमल करने की कोशिश करते हैं. लेकिन जब मैंने आपसे कहा कि सारा, आज़ाद कश्मीर का भी उसमें आएगा, जब रेफरेंडम होगा, गिलगित भी आएगा, बलतिस्तान भी आएगा, जम्मू भी आएगा, लद्दाख भी आएगा. अगर इसमें हिंदुस्तान के साथ ही रहने का फैसला हो जाए, हमको कोई उजूर नहीं है, हम रह सकते हैं.

सवाल- लेकिन, इस प्रस्ताव, इस प्रपोज़ल के ऊपर पाकिस्तान की तरफ़ से तो आज तक कोई पॉज़ीटिव सिग्नल नहीं आया कि वह अपने यहां भी इस रिफरेंडम को सपोर्ट करेगा.

जवाब- नहीं, आपको मालूम नहीं है. देखिए, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं. मेरे सामने मुशर्रफ़ ने ऐलान किया कि जब हिंदुस्तान मानेगा, हम यहां रेफरेंडम करेंगे, हम आज़ाद कश्मीर से अपनी फ़ौज हटाएंगे. ऐलान किया है उन्होंने और उनके दस्तूर (संविधान) में भी लिखा हुआ है कि हम आज़ाद कश्मीर से फ़ौज हटाएंगे और जो वहां के लोगों का ़फैसला होगा, वो हमें क़बूल होगा. ये कन्फ्यूजन जो है, ये इसलिए पैदा किया जाता है कि हिंदुस्तान को जम्मू-कश्मीर का मसला हल करने की नीयत नहीं है, इसीलिए वहां का मीडिया जो है, सब झूठ बोल रहा है, जम्मू-कश्मीर के बारे में. इतना झूठ बोल रहा है जितना हिमालया का कद हो. तो ऐसे हालात में वहां कन्फ्यूज़न ना पैदा हो जाए और क्या हो जाए?

सवाल- ये जो श्रीनगर में पिछले सौ दिनों से हो रहा है, एक कमाल की चीज़ देखने को मिली कि आपलोग एक कैलेंडर जारी करते हैं और पब्लिक उसके ऊपर हंड्रेड पर्सेंट उसका अमल करती है. जबकि पब्लिक के पास, आपने बिल्कुल सही कहा कि ना उनके पास पुलिस है, ना कहीं दंगा करते हैं, ना हुल्लड़ करते हैं लेकिन लोग उस कैलेंडर को बिल्कुल फॉलो करते हैं. ये कैसे हुआ सर? ये मतलब हिस्ट्री का एक नायाब दौर है.

जवाब- देखिए, मैं 29 नवंबर को पूरे 87 साल का हो जाऊंगा. अब मैं 88 में दाख़िल हो जाऊंगा. मेरी सारी ज़िंदगी में जो हमने लोगों के साथ काम किया है. पहले मैं 12 साल टीचर था. फिर 1962 में मुझे पहली बार गिरफ्तार किया गया. श्रीनगर जेल में ले जाया गया. तो जब से लेकर आज तक मैं पॉलीटिक्स में हूं. मैं असेंबली में भी 15 साल रहा हूं. वहां भी लोगों ने मेरी बात सुनी है, और मंगतराम शर्मा कह रहे हैं कि जब तक गिलानी ज़िंदा है, तब तक कश्मीर भी ज़िंदा रहेगा. मसला-ए-कश्मीर के बारे में मैंने अपनी सारी उम्र जो है, मुअक़िफ़ रखी है और लोगों को मालूम है कि ये शख्स है जो काज़ के लिए मुख्लिस है, इसकी कोई ज़ाती (व्यक्तिगत) गर्ज़ नहीं है. इसलिए हम जो बात कहते हैं और हम जो कैलेंडर देते हैं, ये हमारी कोई ज़ाती ख्वाहिश नहीं है, ये जो हमारी अपनी ख्वाहिश और लोगों के जो जज्बात हैं, उनको पेशेनज़र रखकर, हम कहते हैं उनको कि भारत का जो जबरी क़ब्ज़ा है उसके खिलाफ़, हम ये जो जिद-ओ-जोहद कर रहे हैं, उस जिद-ओ-जोहद का साथ देना है. उससे पीछे नहीं हटना चाहिए. इसलिए लोग, लोगों का भी ये जज्बा है. आप देख रहे हैं बुरहान शहीद हुआ, अल्लाह ताला उनकी मगफेरत करे. वह पहला शहीद नहीं था.

600 मज़ार यहां शोहदा के आबाद हो चुके हैं, 600 मज़ार और जम्मू से लेकर कश्मीर तक, 1947 से लेकर आज तक 6 लाख जानों की कुर्बानियां दी जा चुकी हैं, हिंदुस्तान के जबरी क़ब्ज़े के ख़िलाफ़, 6 लाख. वो ये है कि जम्मू में पांच लाख मुसलमानों को बेरहमी के साथ क़त्ल किया गया, अक्टूबर-नवंबर 1947 में. वहां पटियाला फ़ौज थी, हरि सिंह की फ़ौज थी, भारत की फ़ौज थी और कम्युनल एलिमेंट्स थे, जो हमेशा मुसलमानों के दुश्मन रहे. दुश्मन का ख़ून उनको बहुत प्यारा लगता है, मुसलमानों का ख़ून. तो 5 लाख मुसलमानों को शहीद किया गया और गुज़िश्ता 25 सालों में यहां एक लाख लोगों को शहीद किया गया है. तो इस तरह कुल मिलाकर 6 लाख जानें हैं, जिन्होंने कुर्बानियां दी हैं, हिंदुस्तान के जबरी क़ब्ज़े के ख़िलाफ़. 10 हज़ार लोगों को गिरफ्तार किया गया है, गुज़िश्ता अरसे में. लेकिन पता नहीं है कि वो कहां हैं? कोई 7600 क़ब्रें हैं, जिनके बारे में मालूम ही नहीं है कि इनमें कौन दफ़नाए गए हैं और 6000 से ज्यादा हमारी माएं-बहनें और बेटियां हैं, जिनकी इज्जतें लूटी गईं. तो इतनी कुर्बानियां दी हैं इस क़ौम ने. मैं पूरे यक़ीन के साथ कहूंगा कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़, जो हिंदुस्तान के लोगों ने जद-ओ-जोहद की है, उसमें इतनी कुर्बानियां नहीं दी जा सकीं. एक जलियांवाला बाग़ का वो मैसेकर (नरसंहार) हुआ है, यहां हज़ारों की तादाद में मैसेकर हुए हैं, हज़ारों की तादाद में. लेकिन उसके  बाद भी हिंदुस्तान अपनी ज़िद से, हठधर्मी से पीछे नहीं हट रहा. ये नशा-ए-़कुव्वत है. इक़बाल मरहूम ने, शायद इक़बाल को आप पढ़ते होंगे, कुछ शेर भी याद होंगे उनके. उन्होंने कहा है,

असकंदर-ओ-चंगेज़ के हाथों से जहां में 

सौ बार हुईं हज़रते इंसान की क़बा चाक!

तारीख़-ए-उमम का ये पयाम-ए-अदली है,

साहिब-ए-नज़रां नशा-ए-़कूव्वत है ख़तरनाक.

दानीशमंद लोग जो हैं, उनसे कहा जा रहा है कि नशा-ए-़कूव्वत जो है, वह बड़ा ख़तरनाक है. यही नशा-ए-़कूव्वत सवार हो गया है भारत की हुकूमत पर भी और भारत के सियासतकारों पर भी. हम सारे, एक-सवा अरब लोग जो हैं, सबके बारे में हम नहीं कहते हैं कि सब एकसां (एक जैसे) हैं. बहुत लोग समझते भी होंगे. बहुत लोगों को हमारे साथ हमदर्दी भी होगी. बहुत लोग जो हम पर मज़ालिम ढाए जा रहे हैं, उनका असर भी रखते होंगे, उनपर अफ़सोस भी करते होंगे. लेकिन एक मोफ़क्कीर (दार्शनिक) ने कहा है कि इंसानी समाज में जो बिगाड़ पैदा हो जाता है, वह बुरे लोगों के हाथों से ही नहीं होता है, वह उन लोगों से भी होता है, जो ख़ामोश रहते हैं. जो लोग ख़ामोश रहते हैं, ज़ुल्म देखकर, उन्हीं की वजह से यह बिगाड़ पैदा हो जाता है. अगर वो ज़ुबान खोलते और बुरे हाथों को पकड़ कर उनको बुराई से बाज़ रखते, तो बिगाड़ पैदा नहीं होता, लेकिन वे ख़ामोश रहते हैं.

यही हाल हिंदुस्तान का है. हिंदुस्तान में इंसानियत का जज्बा रखने वाले करोड़ों की तादाद में हैं लोग, हम उससे इंकार नहीं करते, लेकिन ज़ुबान नहीं खोलते, ज़ुल्म के ख़िलाफ़. अल्लाह जो है उसपर, अगर आपको यक़ीन है तो एक अल्लाह है, सारी कायनात का मालिक है, उसको सबसे ज्यादा ज़ुल्म से नफ़रत है. ज़ुल्म नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन इंसान ज़ुल्म करता है. भारत को जम्मू-कश्मीर में इंसानों के साथ कोई हमदर्दी नहीं है. उन्हें यहां की ज़मीन चाहिए. हालांकि भारत के पास काफी ज़मीन है. कितना बड़ा मुल्क है. जम्मू-कश्मीर जो है, सारा जम्मू-कश्मीर, वो यूपी के एक ज़िले के बराबर है, उससे ज्यादा नहीं है. यूपी में, जो आबादी है, यूपी जो बहुत बड़ा सूबा है, उसमें जितनी ज़मीन है, एक ज़िले में जितनी ज़मीन होगी या आबादी होगी, उससे ज्यादा यहां नहीं है. लेकिन भारत को चस्का है, चस्का है ज़मीन का. आज आप देखेंगे कि यहां की जो ज़मीनें हैं, सबसे ज्यादा फ़ौज के क़ब्जे में हैं. एक ज़मीन का लालच, दूसरा जो यहां हुस्न है इस ख़ित्ते का, उसकी भी चाशनी है उसे.

यहां के जंगलात हैं, जंगलात को साफ़ कर रहे हैं. उनके जितने भी कैंपस हैं, जंगलात के क़रीब-क़रीब, वहां उन्होंने, वो चराई की मशीनें रखी हैं और वहां के मुकामी (स्थानीय) लोगों से दरख्त कटवाते हैं. और फिर अपने कैंपों  में उनकी चराई करते हैं, फिर फर्नीचर बनवाते हैं और फिर घरों को भेजते हैं. एक मिसाल मैं आपको दूंगा. अगर आप ख़ुद भी जाएंगे, देख सकते हैं. सोपियां में 5200 कनाल, फॉरेस्ट लैंड आर्मी ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया है, कंटोनमेंट बनाने के लिए और जंगलात के जो माहिर लोग हैं, उनका कहना है कि यहां 3 लाख से 4 लाख तक दरख्त कटे हैं. जंगलों का सफाया हो रहा है, बाहरी के हाथों. यहां जो आबीवसाइल हैं, यहां आबीवसाइल पर हाइड्रो पावर्स जो बनते हैं, सारे भारत के क़ब्ज़े में हैं. हमारी ज़मीन, हमारा पानी और उनको पावर सप्लाई करने के जो होते हैं, हम सर्दियों के मौसम में ख़ासतौर पर परेशान रहते हैं, बिजली के लिए, लेकिन हिंदुस्तान उनको दे रहा है और दिल्ली में उनको फ़रोख्त किया जा रहा है पावर को, हरियाणा में, राजस्थान में भी और यहां के लोग जो हैं, वे परेशान रहते हैं. इसी तरह पानी पर उनका क़ब्ज़ा है, ज़मीन पर उनका क़ब्ज़ा है और यहां जो-जो यहां बाक़ी चीज़ें हैं, ज़राए हैं, उनपर भी वो क़ब्ज़ा किए हुए हैं. मैं आपको ये बात भी बताऊंगा, आप यक़ीन करें, भारत के यहां से जितनी भी दवाएं आती हैं, ख़ासतौर जो कश्मीर के लिए बनाई जाती हैं, जम्मू के साथ दूसरा सलूक किया जा रहा है.

कश्मीर के साथ और जम्मू के मुसलमानों के साथ उन दवाओं में भी मिलावट की जाती है. मैं दिल्ली में होता हूं सर्दियों में, वहां की दवा का एक असर है और यहां जब हम दवा ले लेते हैं, उसका दूसरा असर है. अभी कल ही मैंने सुना, बाग़ जो हैं, उनमें जो दवाइयां छिड़की जाती हैं, उन दवाइयों में भी मिलावट की जाती है, ताकि यहां के बाग़ जो हैं, बर्बाद हो जाएं. कितना सुनेंगे आप कि कितने मसाएब हम पर डाले जा रहे हैं, कितना ज़ुल्म हम पर ढाया जा रहा है. ग़ुलामी का नतीजा है कि हम ग़ुलाम हैं, हम अंडर-सप्रेशन हैं और उन लोगों के हाथों में हैं, जिन्हें इंसानियत का कोई एहसास नहीं है. अंग्ऱेजों ने हिंदुस्तान को आज़ाद किया. वो समझते थे, इंसानियत के साथ उनको मोहब्बत थी, उन्होंने कहा कि जो लोग हमारे साथ नहीं रहना चाहते हैं, हम उनको छोड़ देंगे, क्या फ़़र्क पड़ेगा? लेकिन हिंदुस्तान ऐसा नहीं है. हिंदुस्तान की हुकूमतें, चाहे कांग्रेस हो या पीडीपी या चाहे बीजेपी हो, आरएसएस हो, सबका एक मक़सद है कि कश्मीर को हिन्दू राष्ट्र बनाया जाए. ये उनकी पॉलिसी है. वो यहां मुसलमानों की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं करते. पार्लियामेंट में एक ख़ातून हैं, पार्लियामेंट मेम्बर हैं, उन्होंने एक जलसे में कहा है, देखो रामज़ादे बनो, हरामज़ादे मत बनो. रामज़ादे मतलब राम की नस्ल के और हरामज़ादे उन्होंने मुसलमानों के लिए कहा.

सवाल-वो मंत्री हैं सरकार में.

जवाब – हां मंत्री हैं.

सवाल -आप ने 87 से जम्मू-कश्मीर को देखा, शुरू के दस साल मान लें बचपन में निकल गए, फिर तो आप सारा देख ही रहे हैं. तो आपने शेख़ साहब से लेकर महबूबा मुफ्ती तक जो सियासी लीडर्स हैं, सबको देखा है यहां पे. चूंकि आपसे सीनियर तो कोई है ही नहीं यहां पे, तो इनमें आपको किसी में इंसानियत, बेहतरी, कश्मीर के प्रति मोहब्बत नज़र आई, जितने लीडर्स हुए या नहीं नज़र आई? 

जवाब –हमारी ग़ुलामी का जो आग़ाज़ हुआ है, वो 1938 में हुआ है. 13 जुलाई 1931 में हरि सिंह के ख़िलाफ़ एक रिवोल्ट हुआ और उसमें 22 मुसलमान शहीद किए गए. उन 22 मुसलमानों की शहादत के बाद, उस वक्त जो लीडर थे, उनमें शेख़ अब्दुल्ला भी थे, उसमें मौलवी युसूफ़ साहब भी थे, उन्होंने एक पार्टी बनाई मुस्लिम कॉन्फ्रेंस. उन्होंने ये अहद किया कि ये 22 जो शहीद हुए हैं, इनका जो मिशन है डोगरा राज से आज़ादी हासिल करना, उस मिशन को हम आगे बढ़ाते रहेंगे. ठीक है बनी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस, मगर शेख़ अब्दुल्ला ने 1938 में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के मुक़ाबले में दूसरी पार्टी बनाई नेशनल कॉन्फ्रेंस. नेशनल कॉन्फ्रेंस का उसी वक्त से, जबसे वो वजूद में आ गई, रिश्ता बना इंडियन नेशनल कांग्रेस के साथ और शेख़ अब्दुल्ला के दोस्ताना तालुक़ात आंजहानी नेहरू जी के साथ मुस्तहक़म हो गए. उसके बाद से उनका नेशनल कांग्रेस के साथ ही रिश्ता रहा और जब हिंदुस्तान तक़सीम हुआ, तो आपको ये भी याद रखना चाहिए कि हिंदुस्तान की तक़सीम दो क़ौमी नज़रिए की बुनियाद पर हुई है.

भले आज कोई माने या न माने, लेकिन दो क़ौमी नज़रिए की बुनियाद पर हुई. जहां हिन्दू अक्सरियत है, वह भारत बनेगा, जहां मुस्लिम अक्सरियत है पाकिस्तान में शामिल हो जाएगा. 25 जुलाई 1947 को, अगस्त में ऐलान हुआ आज़ादी का, लेकिन उसे पहले 25 जुलाई को जो वहां लॉर्ड माउंटबेटेन थे, जो अंग्ऱेजों की तरफ से गवर्नर जनरल थे, उन्होंने 25 जुलाई को ऐलान किया कि जो पौने छह सौ के क़रीब रजवाड़े थे, स्टेट्स थे, जो डायरेक्टली ब्रिटिश कंट्रोल में नहीं थे, उनसे कहा गया कि तुम्हें इख्तियार है, चाहे हिन्द का हिस्सा बनो, चाहे पाकिस्तान का हिस्सा बनो, चाहे इंडिपेंडेंट रहो, लेकिन तुम्हें तीन चीज़ों का ख्याल रखना होगा.

ये किसने कहा लार्ड माउंटबेटन ने. गाइडलाइन्स दीं 25 जुलाई 1947 को. गाइडलाइन्स की बातें उन्होंने कहीं, फैसला करने से पहले तुमको ये देखना होगा कि तुम्हारी सरहदें किस मुल्क़ के साथ मिलती हैं. दूसरी बात ये देखनी है कि तुम्हारे जो लोग हैं, उनमें किनकी अक्सरियत है, मुसलमानों की अक्सरियत है या हिन्दुओं की. तीसरा प्वाइंट ये था कि तुम्हारे जो लोग हैं, उनका मज़हबी और दीनी और तहज़ीबी रिश्ता किन लोगों के साथ है. ये तीन बातें थीं. अब जम्मू कश्मीर जो था, जम्मू कश्मीर की साढ़े सात सौ मील सरहदें पाकिस्तान के साथ मिलती हैं. समझे आप? 1947 में जम्मू कश्मीर में मुसलमानों की आबादी 85 फीसदी थी और मज़हबी और दीनी रिश्ता जो है, वो स़िर्फ उसी हिस्से के साथ था जो पाकिस्तान बना. हमारे यहां उस वक्त यहां हरि सिंह के दौर में मुसलमानों के लिए तालीम बहुत कम थी. तालीम के बारे में उनको आगे बढ़ने में उनको मवा़के नसीब नहीं थे.

अक्सर लोग अमृतसर या लाहौर जाते थे पढ़ने के लिए. मैं ख़ुद गया हूं लाहौर. चार साल मैं लाहौर में रहा. ये रिश्ता था, उस रिश्ते के साथ जो पाकिस्तान बना. अब इन तीन बुनियादों की रू (लिहाज़) से आप ख़ुद फैसला करिए जम्मू कश्मीर पाकिस्तान के साथ मिलने वाला था या हिंदुस्तान के साथ? ये तो पाकिस्तान का नेचुरल पार्ट था, लेकिन शेख़ अब्दुल्ला ने चूंकि उनका आंजहानी नेहरू के साथ रिश्ता था, दोस्ती थी, तो उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान बड़ा मुल्क है और यहां हमें बड़ा ताआऊन नसीब होगा.

पाकिस्तान ग़रीब मुल्क है, अभी-अभी नया-नया बना है, तो वो क्या देंगे हमें. तो एक माद्दापरस्ती उस पर सवार हो गई और उसने हिंदुस्तान के साथ हाथ मिलाने का मोआहेदा किया. आंजहानी हरि सिंह ने, जो फ़र्ज़ी दस्तावेज़ इल्हाक़ का कहा जा रहा है, उसकी उसने ताईद की और फौज़ भेजने की जब आंजहानी हरि सिंह ने फौज़के लिए हिंदुस्तान से मदद मांगी तो उस वक्त शेख़ अब्दुल्ला दिल्ली ही में थे. उसने हौसला दिया है नेहरू को, पटेल को और आंजहानी गांधी को कि तुम मेरे मश्‍वरे पर वहां ङ्गौज भेज दो. गोया शेख़ अब्दुल्ला हमारी ग़ुलामी का सबब बना है. फिर आप ये भी याद रखिए कि जब उनको गिरफ्तार किया गया, गिरफ्तार हो जाने के बाद 11 साल के बाद उनको रिहा किया गया. उस जल्से में मैं ख़ुद भी शरीक था, ग्यारह साल के बाद रिहा होने के बाद उन्होंने जल्सा किया मुज़ाहिद मंजिल में और उसके बाद उनको रियासतबदर किया गया (यहां नहीं रहने दिया गया दिल्ली में रहे वो). दिल्ली में रह कर 1971 में मैं उनसे ख़ुद मिला हूं. उन्होंने हज़रत बल में एक तक़रीर में कहा था कि लोग मुझे गलतकार कह सकते हैं, ग़लतियां हुई हैं मुझसे, लेकिन ग़द्दार नहीं कहेंगे, मैंने ग़द्दारी नहीं की.

मैंने उनको याद दिलाया अप्रैल 1971 में दिल्ली में कि आपने जो ये कहा है कि लोग मुझे ग़लतकार कहेंगे, लेकिन ग़द्दार नहीं, ये आपका इशारा ग़लतकारी का किस तरफ है? ऐनक लगाई थी उन्होंने, ऐनक उठाई और कहा यही कि हमने लोगों के साथ इल्हाक़ किया, जिन पर हमने ऐतमाद किया, वो ऐतमाद के लायक़ नहीं थे. ये मैंने किताब में भी लिखा है और उसके बाद वो 22 साल तक रायशुमारी, रायशुमारी करते रहे, 22 साल तक. 22 साल के बाद उन्होंने आंजहानी इंदिरा गांधी के साथ इक़रार किया और कहा कि हमें इल्हाक़ के साथ कोई इख्तेलाफ़ नहीं है. हमें कुछ मुराआत (छूट) वग़ैरह दिए जाएं, लेकिन वो भी उनको कुछ नहीं मिला. इसके बाद वो सात साल तक ज़िन्दा रहे और ये उनकी ग़द्दारी थी क़ौम के साथ. तारीख़ में जो हक़ीक़तपसन्द ममालिक होंगे, वो उनको जम्मू-कश्मीर के लोगों का सबसे बड़ा ग़द्दार क़रार देंगे. उन्होंने लोगों के साथ धोखा किया. हालांकि, वे कुरान पढ़ते थे, लेकिन लोगों के साथ उन्होंने खुला धोखा किया. उसके बाद जितने भी, आप कहते हैं कि कितने लीडरों को देखा, कितने हुक्मरानों को देखा, सारे हुक्मरान यहां इक्तेदारपरस्त निकले और किसी को भी क़ौम के जज्बात के साथ दिलचस्पी थी और न क़ौमी मफ़ाद के साथ कोई दिलचस्पी रही. स़िर्फ अपने इक्तेदार को, कुर्सियों की वो हिफ़ाज़त करते रहे.

सवाल-पब्लिक क्यों चुनती है ऐसे लोगों को?

गिलानी – आमलोग जो होते हैं, ख़ाम होते हैं. आमलोग सारे बाशउर नहीं होते, वो ख़ाम होते हैं. ख़ासतौर पर जहां तालीम ज्यादा न हो, ख़ासतौर पर जहां शउर न हो, जहां लोगों में देखने की सकत न हो कि सही क्या है, ग़लत क्या है? होता है हर क़ौम में.

सवाल- आपने अपनी ज़िंदगी में ऐसे कौन से काम किए, जिसका आपको गर्व कि मैंने ये किया, और कौन से वो काम किए जिसका आपको अफ़सोस हो कि मैंने ये क्यों किया?

गिलानी- सुकून की बात यही है कि हमने कभी धोखा देने की कोशिश नहीं की. हमने जो भी बात कही है, सच्ची बात कही है. मैंने शेख़ अब्दुल्ला को, जब 1975 के बाद वो एसेम्बली में आए, तो मैं भी उस वक्त मौजूद था एसेम्बली में, 15 साल रहा मैं एसेम्बली में, मैंने उनकी मौजूदगी में कहा कि जम्मू-कश्मीर में, हिन्दुस्तान में, पाकिस्तान में, जो फ़साद है, जो ख़ून बह रहा है, उसकी सारी ज़िम्मेदारी शेख़ अब्दुल्ला की है. ये जो बातें मैंने की हैं, ये मेरे लिए बहुत बड़ी सुकून की बात है. मैंने जब भी बात कही है, सही बात की है. मैंने हक़ बात की है और मैंने कभी दिल से हिंदुस्तान के ज़बरी क़ब्ज़े को क़बूल नहीं किया है और न ही उसको लेजिटिमेसी अता करता हूं, किसी भी हैसियत से.

सवाल- वैसे किन कामों का अफ़सोस है?

गिलानी- अफ़सोस यही है कि हम ग़ुलाम हैं. इस पर बहुत अफ़सोस है. इक़बाल फ़रमाते हैं, मौत है एक सख्ततर जिसका ग़ुलामी है नाम / मकर-वो-फ़न ख्वाजगि का काश समझता ग़ुलाम. ऐ के ग़ुलामी से है रूह मुज्महिल / सीना-ए-बेसोज़ में ढूंढ़ ख़ुदी का मुक़ाम. मैं आपको बताऊंगा कि हमारी मिसाल मोर के साथ मिलती है. मोर जब नशे में आता है, जब जोश में आता है, तो वो नाचता है और फिर उसे बहुत फ़ख्र होता है कि मैं बहुत ख़ूबसूरत हूं, लेकिन जब अपनी टांगों पर नज़र पड़ती है, तो वो शर्मा जाता है, वही हाल हमारा है. हम जब अपने गिर्द हुस्न देखते हैं, डल देखते हैं, फिर जंगलात वग़ैरह तो हमें ख़ुशी होती है कि अल्लाह ताआला ने कितना हुस्न दिया है हमारे इस सूबे को. लेकिन जब हम सोचते हैं कि हम ग़ुलाम हैं, तो बस मोर की तरह हमारी गर्दन गिर जाती है. ग़ुलामी बहुत बड़ा अज़ाब है, बहुत बड़ा अज़ाब.

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