कई देशों की यात्रा की।सभी जगह कमोबेश हिंदी भाषा के जानकारों से भेंट हुई ।कुछ लोगों के उच्चारण में उनकी अपनी भाषा का अधिक प्रभाव दीखा ।ऐसे लोग हिंदी बोल तो लेते थे लेकिन उनके विदेशी होने का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता था ।इन तमाम विदेशी यात्राओं में दो ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो विदेशी होकर भी हिंदुस्तानी होने का भ्रम पैदा करते थे ।उनके रहनसहन,खानपीन बातचीत,चेहरेमोहरे और पहनावे से कतई यह अंदाज़ लगा पाना मुश्किल था कि ये विदेशी है । एक थे ताशकंद, उज्बेकिस्तान के मीर कासिमोव और दूसरे वॉरसॉ,पोलैंड के डॉ. मारिया क्षिष्टोक बैरस्की ।मीर कासिमोव का ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं । 1977 में अपनी एक सप्ताह की पोलैंड यात्रा में पहले मैंने क्राकोव और ज़ाकोपाने की यात्रा की ।क्राकोव पोलैंड की पुरानी राजधानी थी जबकि ज़ाकोपाने उसकी शीतकालीन राजधानी ।क्राकोव ऐतिहासिक नगर है जो विभिन्न और विविध विषयों की अकदेमियों के लिए ख्यात है ।कुछ लोग क्राकोव को यूरोप की सांस्कृतिक राजधानी भी कहते हैं ।क्राकोव विश्विद्यालय में
संस्कृत पढ़ाने की भी व्यवस्था है जहां 1938 से यह पढ़ाई जाती है ।विश्वयुद्ध का अधिक प्रभाव क्राकोव पर नहीं पड़ा था लेकिन संस्कृत के अध्ययन में व्यवधान उत्पन्न हो गया था । विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद संस्कृत की कक्षाएं पुन: शुरू हो गयी थीं । ज़ाकोपाने में आधा बरस तो बर्फ जमी रहती है लेकिन लोग यहां स्कीइंग के लिए आते हैं ।इससे कुछ ही दूरी पर स्थित है औश्वीत्ज़ जिसे हिटलर ने अपना क्त्लगाह बना दिया था और पोलैंड की एक चौथाई आबादी यानी साठ लाख लोगों की यह कब्रगाह बन गया था । तब पोलैंड की आबादी ढाई करोड़ से कुछ ज़्यादा थी, इस समय चार करोड़ के आसपास कूती जाती है ।
वॉरसॉ स्थित पोल-भारत मैत्री संघ कार्यालय में मेरी भेंट डॉ. मारिया क्षिष्टओफ बैरस्की से हुई जो वॉरसॉ विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे और संस्कृत तथा कई भारतीय भाषाओं के विद्वान । उन्होंने पांच बरस तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन किया और दो बरस तक दिल्ली विश्वविद्यालय में पोल भाषा पढ़ाई भी । डॉ बैरस्की ने बताया था कि पोलैंड में हिंदी और संस्कृत के अध्ययन की बहुत पुरानी परंपरा है जो विश्वयुद्ध के बहुत पहले से थी।बेशक़ विश्वयुद्ध के कारण अवरोध उत्पन्न हो गया था लेकिन उसकी समाप्ति के तुरंत बाद प्राच्य विद्या संस्थान के रूप में इसकी शुरुआत हुई । यह कार्य श्री सुशकैविच ने शुरू किया था जिन्हें भाषा विज्ञान का विशेषज्ञ माना जाता था ।उनकी विशेष रुचि वाल्मीकि रामायण में थी ।डॉ बैरस्की विश्वयुद्ध के बाद भारतीय विद्या में एम.ए. करने वाले पहले पोल थे ।डॉ बैरस्की ने तब मुझे बताया था कि किसी भी भारतीय भाषा को सीखने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है ।इसके अतिरिक्त इतिहास, भौगोलिक और सामाजिक ज्ञान, प्रदेश और समूचे देश के विकास के बाबत अध्ययन आवश्यक होता है जैसे पूर्व में बंगला, दक्षिण में तमिल, कन्नड़, मलयालम तथा पश्चिमी प्रदेशों में हिंदी की जानकारी का होना ।
डॉ बैरस्की ने पोलैंड में हिंदी पढ़ाने के तौर-तरीकों और व्यवस्था के बारे में बताया कि यहां एक हफ्ते में दस घंटे हिंदी पढ़ाई जाती है ।सभी लोगों के लिए संस्कृत का अध्ययन करना अनिवार्य है । इस समय (1977) पढ़ाने वाले नौ लोग हैं और पढ़ने वाले बीस छात्र । उन्होंने जानकारी देते हुए कहा कि रोज़गार की दृष्टि से हिंदी की उपयोगिता नहीं के बराबर है । हिंदी या अन्य भारतीय भाषाएं ज्ञान अर्जित करने के लिए तथा भारत के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने के लिए पढ़ी जाती हैं । लड़कियों की हिंदी पढ़ने के प्रति अधिक रुचि है । बीस छात्रों में से अट्ठारह लड़कियां हैं और दो लड़के । हम लोग पढ़ाई देवनागरी लिपि में कराते हैं जिस का ज्ञान ये छात्र करीब दो हफ्ते में प्राप्त कर लेते हैं ।जो लोग यह कहते और मानते हैं कि देवनागरी लिपि सीखना कठिन है मैं ऐसे लोगों की धारणाओं को गलत मानता हूं और उनसे इतिफाक़ नहीं रखता ।जो लोग रोमन लिपि में हिंदी पढ़ाये जाने के समर्थक हैं मैं उनसे सहमत नहीं हूं ।यह बहुत सहज लिपि है ।रोमन लिपि में हिंदी ही क्या कोई भी विदेशी भाषा के पढ़ाये जाने का मैं इसलिए पक्षधर नही क्योंकि इस तरह के अध्ययन-अध्यापन से जो ध्वनि या अर्थ अथवा तात्पर्य निकलता है वह अक्सर भ्रम पैदा कर देता
है ।किसी भी विदेशी भाषा को उसकी लिपि में सीखने और पढ़ने से आप उस भाषा की आत्मा तक पहुंच जाते हैं ।आज मैं जितनी साफ हिंदी बोल लेता हूं उसका यही कारण है कि मैंने हिंदी लिपि में अध्ययन किया है ।दूसरी भारतीय भाषाएं भी मैंने उन्हीं भाषाओं की लिपि में अध्ययन करके ही सीखी हैं ।
डॉ बैरस्की ने बताया था कि वॉरसॉ के भारतीय विद्या संस्थान में शुरू में चार घंटे तक लिखने का अभ्यास कराया जाता है और दो घंटे तक व्याकरण पढ़ाई जाती है ।द्वितीय वर्ष में व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती है ।बातचीत में धाराप्रवाह बोलने की कला तो कुछ हद तक हिंदी समाचारपत्रों के पढ़ने और आपसी बातचीत में ही संभव है ।फिर मेरी ओर मुखातिब होकर कहते हैं कि अगर खुशकिस्मती से आप जैसा कोई हिंदी बोलने वाला हमारे संस्थान में आ जाये तो इस बेशकीमती मौके को हम लोग हाथ से नहीं जाने देते । आप जैसे लोगों से हिंदी में बात करके न केवल हमारा अभ्यास हो जाता है बल्कि कुछ नये शब्दों की जानकारी भी प्राप्त होती है ।इसी प्रकार एक बार विजय देव नारायण साही जब हमारे संस्थान में आये तो उनसे सामान्य विषयों के अलावा साहित्य और नई कविता आंदोलन पर भी गंभीर चर्चा हुई थी ।बीएचयू से मेरे संबंधों को जानकर वह बहुत खुश हुए थे । अटल बिहारी वाजपेयी से भी मज़ेदार बातचीत हुई थी ।तब वह सांसद थे ।आप जैसे लोगों से मिलकर हमारी हिंदी भाषा में और निखार आता है ।दुर्भाग्य से हमें यहां हिंदी में पत्र-पत्रिकाएं नहीं मिलती हैं ।प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति वी वी गिरि भी हमारे संस्थान का अवलोकन करने और कार्यविधि को जानने के लिए आ चुके हैं । श्रीमती गांधी से तो हम लोगों ने हिंदी में ही बातचीत की थी । डॉ बैरस्की का मानना था कि मेरी यही कोशिश रहती है कि हिंदी जानने वाले से हिंदी में ही बात की जाये, हालांकि अंग्रेज़ी बोलने में मुझे कोई दिक्कत पेश नहीं आती ।
अपनी इस सोच को हम भरसक कार्यान्वित करना चाहते हैं लेकिन हमारे ही कुछ भारतीय मूल के भाई हिंदी बोलने में न जाने क्यों अपनी हेठी समझते हैं । ऐसे लोग शायद यह समझते हैं कि विदेश में यदि वह अंग्रेज़ी नहीं बोलेंगे तो उन्हें निरक्षर माना जाएगा ।हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के बारे में शायद उनकी ऐसी सोच उन्हें विरासत में मिली हो ।यहां पर भारत के राजदूत भूटानी साहब पंजाबी हैं और हिंदी भी बखूबी बोलते और समझते हैं ।मैं तो उनसे भी हिंदी में ही बातचीत करता हूं ।यहां के दूतावास में अंग्रेज़ी में तमाम पत्र-पत्रिकाएं आती हैं लेकिन हिंदी में कोई नहीं । संभव है कि उन्होंने दिल्ली में हमारी प्रार्थना पर गौर करने की बात की हो और वहां पर इस बाबत फैसला होने में देर लग रही हो । बेशक़ दूतावास की अपनी सीमायें हैं ।लेकिन हम लोग हिंदी भाषा का आनंद लेने के लिए कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं ।कभी लोग टेप किए हुए नाटक देख लेते हैं तो कभी कवि सम्मेलन और मुशायरे का मज़ा ।कुछ टेप की हुई बातचीत भी हम अपने छात्रों को सुनाते और उसे देख-सुन कर वे भी नाप तोल कर बोलने का प्रयास करते हैं ।लेकिन टेप की हुई ऐसी बातचीत को उन्हें सहज और सामान्य तरीके से बोलने पर ही सलाह देते हैं ।भाषा से खेलने,उसमें लालित्य या नाटकीयता से बचने का ही उन्हें परामर्श देते हैं ।जब वे भाषा में पारंगत हो जायेंगे तो हिंदी भाषा की खूबसूरती और इससे जुड़ी तमाम बोलियां भी स्वतः उनकी समझ में आ जाएंगी । डॉ. बैरस्की ने मुझे बताया था ।
पोलैंड में मैट्रिक पास करने के बाद हिंदी भाषा सीखने के इच्छुक व्यक्तियों को पांच बरस लगते हैं । डॉ.बैरस्की ने अन्य भाषाओं के सीखने की चर्चा चलने पर जानकारी देते हुए कहा कि एशियाई देशों की भाषाओं को सीखने वाले लोगों की संख्या कमोबेश समान है ।चाहे वह जापानी हो, चीनी अथवा अरबी या फारसी ।जहां तक हिंदी का संबंध है 1953 से लेकर अब तक 50-60 लोगों ने एम.ए.की उपाधियां प्राप्त कर ली हैं और सचमुच वे सभी साफ, स्पष्ट और मुहावरेयुक्त हिंदी बोलने में सक्षम हैं । कुछ लोगों से मैंने बात भी की थी लेकिन डॉ.बैरस्की का जवाब नहीं ।वह लाजवाब और बेमिसाल हैं ।मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर किसी को उनके विदेशी होने की जानकारी न हो तो उन्हें पंजाब या कश्मीर का भारतीय ही समझेगा । वह हिंदी में प्रयुक्त न केवल सभी तरह की बारीकियों के ज्ञाता हैं अपितु उन्हें कई क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों का भी इल्म है ।
उज्बेकिस्तान के मीर कासिमोव की तरह डॉ.मारिया बैरस्की भारत में पोलैंड के राजदूत रह चुके हैं ।दिल्ली में भी मेरी उनसे मुलाकात होती रहती थी ।बातचीत में बताया करते थे कि यह देश मेरे लिए नया नहीं है और न ही यहां के लोग ।मेरा ओहदा बदला है ।पहले मैं विद्यार्थी की तरह यहां आता था और मस्त रहता था लेकिन अब अपने देश का मैं प्रतिनिधित्व कर रहा हूं इसलिए कई तरह के प्रोटोकोल का ख्याल रखना पड़ता है । प्रोटोकोल के भीतर रहते हुए भी मैं देशदर्शन करता रहता हूं, बीएचयू के चक्कर लगा आता हूं ।फ़नकारों से मिलता रहता हूं पोलैंड कला, साहित्य और आयुर्वेद के क्षेत्र में बहुत संपन्न है,
सरकार के अलावा मैं भारत के विद्वानों, कलाकारों, साहित्यकारों,शिल्पकारों और पत्रकारों से मिलता रहता हूं । पोल-भारत मैत्री संघ से मेरा पुराना संबंध रहा है लिहाजा वारसा में हुई मुलाकातों को मैं जीवंत करना चाहता हूं और कर भी रहा हूं ।मैं दिल्ली और वाराणसी की गलियों और गालियों से भलीभांति परिचित हूं इसलिए मुझे न तो किसी से रास्ता पूछने की ज़रूरत पड़ती है और न ही गालियों का मतलब समझने की । डॉ.बैरस्की सहास्य कहते हैं ।
हम लोग वॉरसॉ में भी हिन्दी में बातचीत किया करते थे और अब पोलैंड के दूतावास में भी ।इस दूतावास में मेरा पहले से ।आना जाना था जिस के कारण मुझे एक हफ्ते तक पोलैंड में रहने और डॉ. बैरस्की से मिलने का अवसर मिला था ।पोलैंड दूसरे यूरोपीय देशों से कई मायनों में अलग है ।द्वितीय विश्वयुद्घ में सबसे ज़्यादा बरबादी वहां हुई है, साठ लाख से अधिक पोल नात्ज़ी फौजों द्वारा मारे गये, 85 फीसद वॉरसॉ की इमारतें ध्वस्त हो गयीं,एक बार तो ऐसा वक़्त भी आया कि पोलैंड का नाम भी विश्व मानचित्र से गायब हो गया । पोलैंड के औश्वीत्ज़ में जब जब भी गैस चैंबर की चर्चा होती है तो हर पोल के दिल का दर्द उसके चेहरे पर साफ दिखायी देने लगता है ।वह इसलिए कि हर परिवार ने इस युध्द में किसी न किसी अपने को खोया है । डॉ.बैरस्की कहते हैं कि अब हमने इस दर्द को सहना और सहलाना सीख लिया है ।अब हम लोग नये पोलैंड के निर्माण में जुट गये हैं ।हमारे यहां आधुनिक और भव्य तथा बहुमंजिला भवनों का निर्माण हो रहा है ।अपनी बची हुई विरासत को भी हम सहेजे हुए हैं और साथ ही विकास और प्रगति की राह पर चल पड़े हैं ।
डॉ.मारिया बैरस्की जैसे बहुभाषी विद्वान दुनिया में कम ही मिलते हैं ।वह न केवल हिंदी समेत कई भारतीय भाषायें ही जानते हैं बल्कि अंग्रेज़ी और पोल सहित बहुत सी अन्य विदेशी भाषायें भी वह जानते हैं ।उनके जानने का मतलब बोलने या बातचीत से नहीं होता बल्कि उनके साहित्य,उद्भव और चिंतन -मनन क्रिया से भी होता है । वॉरसॉ में पोल-भारत मैत्री संघ के कार्यालय में रखी अतिथि पुस्तक में जिन विशिष्ट व्यक्तियों की टिप्पणीयां और दस्तखत थे, वे थे: तत्कालीन राष्ट्रपति वराहगिरि वेकंटगिरि, इंदिरा गांधी,अटल बिहारी वाजपेयी, हिंदी कवि और साहित्यकार विजय देव नारायण साही तथा अन्य अनेक ।जब भी कोई भारतीय पोलैंड जाता है राजधानी वॉरसॉ स्थित इस संस्थान में आना शायद ही भूलता । डॉ.बैरस्की का विश्व भर में कला, संस्कृति और साहित्यक जगत में बहुत सम्मान है ।उन्होंने महात्मा गांधी को उद्धृत करते हुए कहा था कि ‘गांधी जी कहते थे कि यदि मेरा अगला जन्म भारत में नहीं होता तो मैं चाहूंगा कि मेरा जन्म पोलैंड में हो ।’