बिहार के गोपालगंज जिले का निवासी नासिर ढेर सारे ख्वाब लेकर अरब (इस इलाके में खाड़ी के सभी देशों को अरब कहा जाता है) गया था. उसे अपने परिवार की गरीबी दूर करनी थी, घर बनवाना था, बहन की शादी करनी थी और बीमार बाप का इलाज कराना था. परिवार के पास जो थोड़ी बहुत ज़मीन थी, वह पासपोर्ट बनवाने और अरब जाने के चक्कर में बिक चुकी थी. उसने दिल्ली आकर प्लम्बरिंग का काम सीखा और एक स्थानीय एजेंट के जरिए अरब चला गया. उसे कहा गया था कि वह एक बड़ी कंपनी में जा रहा है. वहां अच्छी तनख्वाह के साथ ओवरटाइम भी मिलेगा. अपने सपनों को पूरा होते देख नासिर खुश था. उसका परिवार भी खुश था कि अब उनकी गरीबी दूर हो जाएगी. लेकिन सऊदी अरब पहुंचने के बाद उसके सारे अरमान धरे रह गए. पता चला कि उसे किसी कंपनी ने नहीं, बल्कि शेख ने नौकरी पर रखा है. अगले छह महीने उसके जीवन के सबसे मुश्किल दिन थे. उसे एक चारागाह में ऊंट की रखवाली करने के लिए तनहा छोड़ दिया गया. पूरे सप्ताह का खाना और पानी एक बार में भेज दिया जाता था. तनख्वाह के बारे में कहा जाता था कि वह जमा हो रही है और जैसे ही वह घर जायेगा उसे सभी पैसे मिल जाएंगेे. बहरहाल नासिर बहुत मुश्किल से उस शेख के चंगुल से रिहा हुआ और जैसे-तैसे अपने घर पहुंचा. घर पहुंच कर सबसे पहले वह उस एजेंट से मिला, जिसने उसे शेख के पास भेजा था. एजेंट ने कहा कि वह उसका पैसा वापस कर देगा. अब हालात ये हैं कि नासिर आज तक उस एजेंट का पीछा कर रहा है, लेकिन उसका पैसा अभी तक नहीं मिला है.
नासिर से ही मिलती-जुलती कहानी बरेली के नाजिम की भी है. वह तकरीबन एक लाख रुपए खर्च कर राज मिस्त्री का काम करने सऊदी अरब गया था. सऊदी पहुंचने के बाद कुछ महीनों तक वह अपने नियोक्ता शेख की निजी कंपनी में काम करता रहा, लेकिन कुछ दिनों बाद उसे भी ऊंट की चारागाह में भेज दिया गया. उसके घर से उसका सारा संपर्क टूट चुका था. घर वालों ने उसकी खोज-खबर लेने के लिए विदेश मंत्रालय व सऊदी एंबेसी तक खाक छान मारी, लेकिन उसका कुछ पता नहीं चला. लेकिन इधर कुछ दिनों पहले नाजिम का फोन आया और उसने अपनी हालत अपने परिवार वालों को बताया. परिवारवालों को अब भी उसकी वापसी का इंतज़ार है.
अब सवाल यह है कि भारतीय मजदूर ऐसी हालात में कैसे पहुंच जाते हैं? क्यों इतनी रकम खर्च करने के बाद भी उनके साथ धोखा हो जाता है? इसका जवाब सऊदी अरब की एक बड़ी कंपनी में काम कर चुके और दिल्ली में रह रहे अरबी जुबान के जानकार वसीम अहमद के निजी तजुर्बे से मिल सकता है. वे कहते हैं कि सऊदी अरब में एक डेरी फार्म के मैनेजरों की भर्ती के लिए इंटरव्यू चल रहा था. वह भी अपना बायोडाटा और पासपोर्ट लेकर इंटरव्यू देने पहुंच गए. इंटरव्यूअर ने उनसे अंग्रेजी में सवाल किया. उस सवाल का जवाब उन्होंने अरबी में दिया. वसीम ने सोचा कि अरबी जुबान जानने की वजह से उनको इंटरव्यू में फायदा मिलेगा और उन्हें वरीयता दी जाएगी. लेकिन जब फाइनल सलेक्शन की लिस्ट आई तो उसमें उनका नाम नहीं था. दिलचस्प बात यह थी कि जिन लोगों को उस काम के लिए चुना गया था उनमें से कोई भी अरबी जानने वाला नहीं था. बाद में जब उन्होंने पता लगाया तो मालूम हुआ कि वह भर्ती मैनेजर के लिए नहीं बल्कि सेल्स बॉयज के लिए थी, जिन्हें एक जगह से सामान लेकर दूसरी जगह पहुंचाना था. चूंकि खाड़ी देशों में नौकरी से संबंधित ज़्यादातर कागजात अरबी में होते हैं और विदेश जाने वाला व्यक्तिभाषा न जानने के कारण ऐसे धंधेबाज़ों का आसानी से शिकार बन जाता है.
खाड़ी देशों में नौकरी तलाशने का एक तरीका यह भी है कि पहले वहां टूरिस्ट वीजा पर चले जाओ, नौकरी तलाश करो और पासपोर्ट पर एग्जिट स्टाम्प लगवा कर फिर वापस उस देश में चले जाओ. लेकिन इस प्रक्रिया में भी कई ऐसे लोग हैं, जो परेशानी में फंस जाते हैं. मुजाहिद भी ऐसे ही एक मामले में सऊदी अरब में फंस गया था. उसके किसी रिश्तेदार ने टूरिस्ट वीजा पर उसे सऊदी बुलाया था. उससे कहा गया था कि वहां पहुंच कर काम मिल जाएगा. लेकिन वहां पहुंचने के बाद उसे पता चला कि जो ख्वाब उसे दिखाए गए थे, वो सिर्फ ख्वाब ही थे. क्योंकि टूर वीजा की अवधि समाप्त होने के बाद उसे न केवल काम की तलाश करनी थी, बल्कि वहां की पुलिस से भी खुद को बचाना था. पुलिस के हत्थे चढ़ने का मतलब होता कुछ दिनों की जेल और फिर घर वापसी. ऊपर से अपनी मज़दूरी का कुछ हिस्सा वहां मौजूद दलालों को भी देना होता था जो उसकी पुलिस से हिफाज़त करते थे और काम तलाशने में उसकी मदद करते थे. बहरहाल मुजाहिद वहां छिप-छिपा कर काम करने लगा. एक दिन काम पर जाने के दौरान उसका एक्सीडेंट हो गया. उसे काफी गंभीर चोटें आईं. चूंकि वह गैर-कानूनी तौर पर वहां काम कर रहा था इसलिए उसे अपने इलाज का खर्च खुद ही उठाना पड़ा. अरब जाने के लिए उसने पहले से ही क़र्ज़ ले रखे थे. इस हादसे के बाद वह और भी अधिक कर्जदार हो गया. इस तरह के मामले खाड़ी देशों में अक्सर देखने को मिलते हैं. वर्ष 2013 में सऊदी अरब ने देश में गैर कानूनी तौर पर काम कर रहे 60,000 मजदूरों को वापस भेजा था. और अब गैर कानूनी तौर पर काम कर रहे विदेशी मजदूरों को वहां से वापस भेजने की मुहिम जारी है.
इसमें कोई शक नहीं कि खाड़ी देशों की वजह से भारत में लाखों लोगों को रोज़गार मिला है. नतीजतन देश के कई पिछड़े और गरीब इलाकों के जीवन स्तर में काफी सुधार हुआ है. झोंपड़ियों की जगह अब पक्के मकान बन गए हैं. यहांं बच्चे स्कूल नहीं जाते थे या गरीबी की वजह से बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ रोज़गार की तलाश में लग जाते थे, अब उच्च शिक्षा के लिए देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में दाखिला ले रहे हैं. ऐसे इलाके में लोगों की क्रय शक्ति भी बढ़ी है. कहने का तात्पर्य यह है कि यहां के लोगों के जीवन स्तर में काफी सुधार हुआ है. वहीं विदेशों से रेमिटेंसज के रूप में आने वाले पैसों के मामले में भारत विश्व में पहले स्थान पर है. वर्ष 2015 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल 72 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा आई, जो देश के कुल जीडीपी का 4 प्रतिशत थी. आंकड़े यह भी बताते हैं कि विदेशों से भारत में आने वाले पैसों में सबसे अधिक राशि खाड़ी के देशों से आती है. इसके बावजूद खाड़ी देशों से मजदूरों के दयनीय हालात संबंधी कुछ ख़बरें कभी-कभी चिंता का कारण बन जाती हैं. मिसाल के तौर पर अभी सऊदी अरब में फंसे भारतीय मजदूरों को खाने के भी लाले पड़ गए थे और हालात बिगड़ने पर भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा. लेकिन नासिर, नाजिम, मुजाहिद और घरेलू नौकरों के साथ मारपीट और बदसलूकी के कुछ ऐसे मामले हैं जिनसे थोड़ी सी सावधानी से बचा जा सकता है. खास तौर पर विदेश जाते समय रोजगार अनुबंध (एम्प्लॉयमेंट कॉन्ट्रैक्ट) को ध्यान से समझ कर ऐसी मुसीबतों से बचा जा सकता है. सरकार ने इसके लिए जागरूकता अभियान भी चला रखे हैं लेकिन केवल जागरूकता अभियान चला कर सरकार अपना दामन नहीं बचा सकती, उसे ऐसे लालची एजेंटों और कंसल्टेंट पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए जो कुछ रुपयों के लालच में गरीब मजदूरों को मुसीबत में डाल देते हैं.