चुनावी बॉन्ड जारी करने के केंद्र की मोदी सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. इसे लेकर एक याचिका मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट में लगाई थी. इस याचिका पर अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा है. प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनंजय वाई. चंद्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने माकपा और इसके महासचिव सीताराम येचुरी की याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया. इस याचिका में बताया गया है कि चुनावी बॉन्ड जैसे कदम से लोकतंत्र कमजोर होगा और इससे राजनीतिक भ्रष्टाचार और अधिक बढ़ जाएगा. माकपा महासचिव सीताराम येचुरी का कहना है कि उन्होंने संसद में भी इस मुद्दे को उठाया था और इस बारे में सरकार द्वारा प्रस्ताव पेश किए जाने पर इसमें संशोधन का अनुरोध किया था. लेकिन सरकार ने लोकसभा में अपने बहुमत के सहारे राज्य सभा की सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया. ऐसे में माकपा के पास सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. गौरतलब है कि भाजपा ने पिछले साल के बजट में चुनावी बॉन्ड की घोषणा की थी और निर्वाचन आयोग ने शुरू में इसे लेकर अपनी आपत्ति जताई थी.
इस चुनावी बॉन्ड का कई स्तर पर विरोध हो रहा है. कुछ समय पहले ही पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने कहा था कि चुनावी बॉन्ड संबंधी केंद्र की मोदी सरकार की नई योजना से चुनावी चंदे में पारदर्शिता को बढ़ावा नहीं मिलेगा और इससे कॉरपोरेट एवं राजनीतिक दलों के बीच की सांठगांठ को तोड़ने में सफलता भी नहीं मिलेगी. उनके मुताबिक चुनावी चंदे को साफ-सुथरा बनाने की दिशा में यह सही क़दम नहीं है. यह चुनावी बॉन्ड धनबल की समस्या का समाधान नहीं है, इससे चंदे में पारदर्शिता की दिक्कत भी दूर नहीं होगी. इतना ही नहीं, चुनावी बॉन्ड से पारदर्शिता बढ़ने के वित्त मंत्री अरुण जेटली के दावे का विरोध करते हुए कांग्रेस ने भी कहा था कि इससे पारदर्शिता बढ़ने के बजाय कम होगी. साथ ही पार्टी ने दावा किया कि लोग डर से सारा चंदा केवल सत्तारूढ़ दल को ही देंगे. कांग्रेस का ये डर बहुत हद तक सही भी है. एडीआर की ताजा रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल जितना भी राजनीतिक चन्दा दिया गया, उसका 80 फीसदी से अधिक अकेले भाजपा को मिला है. इधर, आम आदमी पार्टी ने चुनावी बॉन्ड को भ्रष्टाचार बढ़ाने वाला क़दम बताते हुए कहा है कि यह अब तक की सबसे घातक पहल साबित होगी.
चुनावी चन्दे का इस देश में क्या हाल है, इसक पता जनवरी 2017 में एडीआर की एक रिपोर्ट से भी चलता है. एडीआर रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 11 वर्षों के दौरान देश के दो बड़े राजनीतिक दलों, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की 83 और 63 प्रतिशत फंडिंग अज्ञात स्रोतों से हुई. वर्ष 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आम चुनाव से ठीक पहले दिए गए अपने ऐतिहासिक फैसले में कांग्रेस और भाजपा को एफसीआरए का उल्लंघन कर विदेश से फंड हासिल करने का दोषी करार दिया था. यहां इन दो पार्टियों का ज़िक्र इसलिए नहीं किया गया है कि केवल यही दो पार्टियां हैं, जो अज्ञात स्रोतों से फंड हासिल करती हैं, बल्कि अज्ञात स्रोतों से फंडिंग हासिल करने वाली पार्टियों में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर की लगभग सभी पार्टियां शामिल हैं. अब सवाल यह उठता है कि जब देश की दो प्रमुख पार्टियों की ये स्थिति है, तो क्या चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाने की जो कवायद वर्तमान में चल रही है, उसमें किसी क्रांतिकारी सुधार की आशा की जा सकती है?
चुनावी बॉन्ड से पहले इलेक्टोरल ट्रस्ट के नाम से जमकर फर्जीवाड़ा होता रहा है. राजनीतिक पार्टियों और कॉर्पोरेट कंपनियों के बीच चंदे के लेन-देन में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने 2013 में इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने की अनुमति दी थी. इसके लिए एक गाइडलाइन भी जारी की गई थी. हालांकि 2013 से पहले भी कुछ इलेक्टोरल ट्रस्ट थे, जो राजनीतिक पार्टियों को चंदा दिया करते थे. इन ट्रस्ट्स को 2013 के गाइडलाइन से दूर रखा गया, जिससे इन्हें पैसों का खुला खेल खेलने का छूट मिल गया. ये ट्रस्ट चंदों के वितरण में सीबीडीटी के मानकों का भी पालन नहीं करते हैं. ऐसे छह इलेक्टोरल ट्रस्ट के ऊपर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने भी सवाल उठाए थे. एडीआर ने कहा था कि इनकी कार्यप्रणाली को देखकर लगता है कि ये या तो कर-मा़फी के लिए बनाए गए हैं या काला धन को सफेद करने के लिए. हालांकि ये सभी ट्रस्ट राजनीतिक दलों को बड़ी मात्रा में चंदा देते रहे हैं, लेकिन उसका हिसाब नहीं देते. एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, इन छह इलेक्टोरल ट्रस्ट ने 2004-05 से 2011-12 के बीच राजनीतिक दलों को 105 करोड़ का चंदा दिया. लेकिन किसी भी ट्रस्ट ने यह नहीं बताया कि उसके पास इतनी रकम कहां से आई.