gendaउत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में दो फरवरी 1977 को स्थापित हुआ दुधवा नेशनल पार्क सरकारी उपेक्षा और कुप्रबंधन के कारण 39 साल में ही अपनी पहचान खोने लगा है. समय रहते इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो दुधवा के जंगल में रहने वाले दुर्लभ प्रजाति के वन्यजीव डायनासोर की तरह इतिहास बनकर किताबों के पन्नों पर सिमट कर रह जाएंगे.

दुधवा नेशनल पार्क विश्व का एकमात्र ऐसा राष्ट्रीय उद्यान है, जिसमें एक सदी पूर्व तराई इलाके से लुप्त हो चुके एक सींग वाले भारतीय गैंडे को सफलतापूर्वक पुनरवासित किया गया था. अभी यहां 31 गैंडे रह रहे हैं, जिसके ऊपर इन-ब्रीडिंग का खतरा मंडरा रहा है. विशेषज्ञों का मानना है कि बांके नाम के गैंडे से ही दुधवा का गैंडा परिवार पला-बढ़ा है, इसलिए अगर उनके जींस में कोई कमी होगी तो उसका असर सबके ऊपर पड़ेगा. इस कारण दुधवा में अब नर गैंडों की संख्या बढ़ाए जाने की बहुत आवश्यकता है. हालांकि इसके लिए निवर्तमान डिप्टी डायरेक्टर पीपी सिंह ने असम से नर गैंडों को लाए जाने की कार्य योजना तैयार करके शासन को भेजी थी, जो अभी तक विचाराधीन ही है. उन्होंने सोनारीपुर गैंडा परिक्षेत्र से जुड़े जंगल क्षेत्र को बढ़ाए जाने का भी प्रस्ताव दिया था, जिस पर धीमी गति से कार्य शुरू भी हो गया है. इसी बीच शासन ने उनका तबादला कर दिया, जिस वजह से सफलता के पायदान पर बढ़ रही विश्व की एकमात्र गैंडा पुनरवास परियोजना अधर में लटक गई. विशेषज्ञ कहते हैं कि यदि दुधवा परिवार में नर गैंडों की संख्या नहीं बढ़ाई गई तो जवान हो रहे गैंडों के बीच भी संघर्ष हो सकता है, ऐसे में गैंडा परिवार को क्षति पहुंच सकती है. गैंडा पुनरवास परियोजना को दुधवा नेशनल पार्क की ही नहीं वरन उत्तर प्रदेश की शान भी कहा जाता है, जिस पर खतरा मंडरा रहा है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का ड्रीम प्रोजेक्ट इटावा का लायन सफारी पहले ही फेल हो चुका है. बीमारी और गैर विशेषज्ञता के कारण नौ शेरों की मौत हो चुकी है. दुधवा में प्रोजेक्ट टाइगर भी चल रहा है इसकी असफलता की कहानी भी जगजाहिर है. बाघों के साथ-साथ अन्य वन्यजीव जंगल सेबाहर क्यों भाग रहे हैं, यह मनुष्यों की जानवरी-वृत्ति का प्रतिफल है, यह एक अजीबोगरीब व्यथा कथा है. लोगों के अतिक्रमण और प्रशासनिक कुप्रबंधन के कारण दुधवा के जंगल में जानवरों का प्राकृतिक वास अस्त-व्यस्त हुआ है. चारागार सिमट गए हैं, प्राकृतिक झीलों, तालाबों का स्वरूप बदल गया है. इस कारण इनपर आश्रित वन्यजीव जंगल से पलायन के लिए मजबूर हो रहे हैं. आबादी का दबाव एवं मानवजनित दुष्प्रभाव भी वन्यजीवों को अस्त-व्यस्त कर रहा है और वह जंगल छोड़ने के लिए विवश हैं. इसके लिए सरकारी तंत्र जिम्मेदार है. वन्यजीव संरक्षण में कार्यरत सृष्टि कंजरवेशन वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष अनूप गुप्ता का कहना है कि दुधवा नेशनल पार्क की छवि सरकारी उपेक्षा के कारण विश्व पटल पर धूमिल होती जा रही है. सरकार एवं शासन की उपेक्षा का आलम यह है कि जो अधिकारी या कर्मचारी वन्यजीव संरक्षण में दिलचस्पी से कार्य करते हैं या जानवरों का कुनबा बढ़ाने का प्रयास करते हैं, उनका तबादला सामाजिक वानिकी विभाग में कर दिया जाता है. उनको अगर दुधवा में कार्य करने का मौका दिया जाए तो शायद दुधवा की छवि बरकरार रह सकती है, अन्यथा इसकी दशा बद से बदतर होती जाएगी. वन्यजीव संरक्षण की दिशा में कार्य करने वाले डीडी पीपी सिंह को तत्कालीन डीएम किंजल सिंह से हुए शीत युद्ध के बाद हटा दिया गया, इस पर तमाम लोग सवाल उठा रहे हैं. लेकिन इसका जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं है. आला अफसर मूक-बधिर बन कर दुधवा की बर्बादी का जायजा ले रहे हैं.

वन्यजीवों के घरों में घुस रहे लोग कभी दुधवा के जंगल का दायरा इतना था कि जंगली जानवरों, खासकर वनराज का जंगल परिक्षेत्र में ही गुजर-बसर हो जाता था. परन्तु आज के समय में यहां के वाशिंदों ने इनके आरक्षित क्षेत्र में भीषण सेंधमारी की है. सैकड़ों एकड़ वन भूमि पर अवैध कब्जा हो चुका है. प्रशासन की लापरवाही के चलते जंगली जानवरों का आवास छिनता गया और आज आए दिन जंगली जानवर बेचैन होकर लोगों पर हमले कर रहे हैं.

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