उपेक्षा और विषम नीतियों के चलते बड़े किसानों को फायदा हुआ. जैसे-जैसे उनकी उपज बढ़ी, वे राजनीतिक तौर पर भी मुखर होते गए. उन्हें रासायनिक खाद, बिजली एवं पानी पर सब्सिडी मिलती रही और वे मिट्टी की उर्वरता और ज़मीन का जल स्तर तबाह करते रहे. उसके बाद साल दर साल बढ़ने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य का भी लाभ उन्हें मिलता रहा. यह यूपीए-2 के समय में क़ीमतों में वृद्धि का एक बड़ा कारण था. बड़े किसान अधिक उपज लेने लगे. अब ऐसे किसानों की सब्सिडी धीरे-धीरे ख़त्म कर देनी चाहिए और छोटे किसानों को बेहतर सहूलियतें दी जानी चाहिए. 

farmersभारत का संसदीय लोकतंत्र पिछले दिनों अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया. गजेंद्र सिंह नामक किसान ने एक पेड़ से लटक कर जान दे दी. उसकी लाश पेड़ से उतार कर आगे की कार्रवाई होती, उससे पहले ही उसे राजनीतिक फुटबॉल बनाकर राजनीतिक खींचा-तानी शुरू हो गई. राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि सरकार कॉरपोरेट्स के प्रभाव में फैसले ले रही है, रैली करना आम आदमी पार्टी का सबसे पसंदीदा शगल है, इसलिए गजेंद्र की आत्महत्या के बावजूद आप की रैली जारी रही. सरकार ने खेद प्रकट किया. दूसरे दिन दूसरा संकट, हंगामे के चलते संसद का एक और स्थगन, लेकिन ज़िंदगी अपनी रफ्तार से चलती रही. भूमि अधिग्रहण विधेयक पर बहस, बेमौसम की बरसात और सूखे की भविष्यवाणी ने कई लोगों को भ्रमित कर दिया. सूखा और राहत कार्य एक तात्कालिक समस्या है, लेकिन भूमि अधिग्रहण दीर्घकालिक विकास की योजना पर आधारित एक रणनीति है. किसानों का संकट कोई नया संकट नहीं है.
किसानों की आत्महत्या आज से दस साल पहले एक बड़ी समस्या थी. यह समस्या जानी-बूझी है. खेती पर आश्रित किसान आम दिनों में भी आर्थिक तंगी की कगार पर खड़े रहते हैं. ऐसे किसानों को यदि एक वैकल्पिक रोज़गार मिलता है, तो वे इससे लाभांवित होंगे. यदि चीज़ें सही दिशा में बढ़ती हैं, तो छोटे किसानों को अतिरिक्त आमदनी का एक ज़रिया मिल जाएगा. छोटे किसान ऋण लेकर खेती करते हैं और फसल बेचकर ऋण अदा करते हैं. यदि फसल बर्बाद हो गई, तो उन्हें बहुत ऩुकसान उठाना पड़ता है. गजेंद्र का मामला जिस बात को ज़ाहिर करता है, वह यह है कि अधिकारी केवल क़ानून का पालन करते हैं. फसल का 33 प्रतिशत से कम ऩुकसान का मतलब है कि कोई मुआवज़ा नहीं. ऐसे क़ानून पर किसी को पुनर्विचार का ख्याल क्यों नहीं आया? मुझे मालूम है, अकबर ने ऐसे मामलों में अधिक उदारता दिखाई थी.
जब यूपीए-1 के दौरान आ़िखरी बार आत्महत्या एक बड़ा मुद्दा थी, सारा ध्यान अत्यधिक ब्याज पर था. 45 साल पहले बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था, ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण की कमी दूर की जा सके, लेकिन उसके बावजूद आज भी वही समस्या बरक़रार है. अभी सियासी दांव-पेंच के बजाय किसानों के लिए सरकारी मापदंडों से कम खराब हुई फसल के लिए एक यूनिवर्सल फसल बीमा की आवश्यकता है. भारतीय कृषि के एक बड़े भाग में अत्यधिक कम उपज होती है. किसानों को बहुत ही कम आमदनी पर जीवनयापन करना पड़ता है, क्योंकि औद्योगिक विकास की धीमी गति उनकी आमदनी के लिए कोई विकल्प मुहैया कराने में असमर्थ रही. देश के 60 प्रतिशत लोग राष्ट्रीय आय में केवल 20 प्रतिशत के भागीदार हैं. जो ज़ाहिर करता है कि कृषि के कायाकल्प की ज़रूरत है.
हालांकि, राजनीतिक वाद-विवाद सांसदों का पसंदीदा काम है, लेकिन देश को इस मानवीय त्रासदी का हल चाहिए. ऐसा करने के लिए हर किसान से उसकी ज़मीन छीनने की आवश्यकता नहीं है, न देश के किसानों की होने वाली दु:खद आत्महत्या रेखंकित करने और बाद में उन्हें भूल जाने की. दस साल पहले कुछ जांच रिपोर्टें आई थीं, जिनमें योजना आयोग के सदस्य नरेंद्र जाधव की एक बहुत ही अच्छी रिपोर्ट शामिल थी. खेती का मौसम जाते ही उस रिपोर्ट को धूल खाने के लिए किसी आलमारी में रख दिया गया. एक बार फिर राजनेता किसानों की आत्महत्या को राजनीतिक फुटबॉल बना रहे हैं. कृषि में एक लंबे समय से सुधार की आवश्यकता है. आज़ादी के 45 वर्षों बाद तक सारी की सारी योजनाएं भारी उद्योगों के विकास पर केंद्रित थीं, अन्य सभी क्षेत्रों को नज़रअंदाज कर दिया गया था. 1992 में जब डब्ल्यूटीओ के गठन पर बहस चल रही थी, ठीक उसी समय अशोक गुलाटी ने कहा था कि खाद्य आत्मनिर्भरता के बहाने भारतीय किसानों पर निगेटिव टैरिफ लगाया जाता रहा और इस दौरान उद्योगों को प्रशुल्क संरक्षण दिया जाता रहा, जिसकी वजह से आज उद्योग बदहाल हैं.
उपेक्षा और विषम नीतियों के चलते बड़े किसानों को ़फायदा हुआ. जैसे-जैसे उनकी उपज बढ़ी, वे राजनीतिक तौर पर भी मुखर होते गए. उन्हें रासायनिक खाद, बिजली एवं पानी पर सब्सिडी मिलती रही और वे मिट्टी की उर्वरता और ज़मीन का जल स्तर तबाह करते रहे. उसके बाद साल दर साल बढ़ने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य का भी लाभ उन्हें मिलता रहा. यह यूपीए-2 के समय में क़ीमतों में वृद्धि का एक बड़ा कारण था. बड़े किसान अधिक उपज लेने लगे. अब ऐसे किसानों की सब्सिडी धीरे-धीरे ख़त्म कर देनी चाहिए और छोटे किसानों को बेहतर सहूलियतें दी जानी चाहिए. यही वजह है कि भूमि अधिग्रहण ज़रूरी है.भारत को छोटे किसानों, लेकिन एक मज़बूत कृषि की ज़रूरत है. खेतिहर मज़दूरों एवं छोटे किसानों को उद्योगों में रोज़गार देने की ज़रूरत है. इसका कॉरपोरेट हित से कोई संबंध नहीं है. ग़रीबों को ग़रीब रखने की कोई वजह नहीं है, जैसा कांग्रेस रखना चाहती है. ग़रीबों को उद्योगों एवं इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में नौकरी की ज़रूरत है. और, इसका समाधान भूमि अधिग्रहण विधेयक में हो सकता है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here