narendra-modiमौजूदा केंद्र सरकार के दो साल बीत चुके हैं. व्यक्तिगत तौर पर मैं मानता हूं कि केंद्र सरकार को जो करना चाहिए, उसके मुताबिक केंद्र सरकार ने अच्छा काम किया है. लेकिन, समस्या ये है कि कुछ मंत्री जिस तरह के दावे कर रहे हैं, वेे गलत हैं और कुछ हद तक हास्यास्पद भी. पीयूष गोयल कहते आ रहे हैं कि उन सात हजार गांवों का विद्युतीकरण किया गया है, जहां आजादी के 67 साल के बाद भी बिजली नहीं पहुंची थी. वे कहना ये चाहते हैं कि छह लाख गांवों में से कुल 18 हजार गांव अभी तक बिना बिजली के थे. इसका मतलब ये हुआ कि अभी तक कुल गांवों में से सिर्फ3.3 प्रतिशत गांवों में बिजली नहीं थी. इसमें से करीब 7 हजार गांवों में बिजली पहुंचाई गई. यानी, पिछले दो साल में ये सरकार सिर्फ1.3 प्रतिशत गांवों तक ही बिजली पहुंचा सकी है. लेकिन ये कहना गलत है कि आज से पहले काम ही नहीं हुआ था और आज हम पिछले दो साल से सब काम कर रहे हैं. सच ये है कि इस सरकार के सत्ता में आने से पहले ही करीब 97 फीसदी गांवों का विद्युतीकरण हो चुका है. चलिए, इससे भी कोई नुकसान नहीं है. इससे बड़ी समस्या ये है कि हमें कोई यह नहीं बता रहा है कि जितने गांवों का विद्युतीकरण हुआ है, उनमें से कितने गांवों में बिजली मिल रही है. किन घरों को बिजली मिल रही है? शायद कुछ सरकारी भवनों में, कुछ अधिकारियों के घरों में. क्या गरीबों के घरों में भी बिजली पहुंच रही है? इन तथ्यों को लेकर अभी तक कोई सर्वे नहीं हुआ है.

इसी तरह, जनधन योजना की बात करें तो करोड़ों की संख्या में बैंक खाते खुले. इनमें से कितने खातों में पैसा है? सरकार अपनी सुविधा से विश्व बैंक की इस रिपोर्ट को छुपा लेती है, जिसके मुताबिक करीब 43 फीसदी बैंक खाते निष्क्रिय हैं, उनमें पैसा ही नहीं है. यहां कोई गांव में जाता है, हस्ताक्षर करा लेता है और बैंक खाते खुल जाते हैं. जिसका बैंक खाता खुलता है, वह उसका कभी इस्तेमाल तक नहीं कर पा रहा है. आखिर ऐसा करने का उद्देश्य क्या है, ये तो सरकार को ही निर्णय लेना है. लेकिन मैं मानता हूं कि जो भी कार्यक्रम चलाया जाए वो लक्षित और केंद्रित (फोकस्ड) हो. उसका कोई नतीजा निकलना चाहिए. सरकार की एक और योजना है शौचालय बनाने को लेकर. स्वच्छ भारत का स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन देश में करीब 15 लाख स्कूल हैं, जहां कम से कम तीस लाख शौचालय होने चाहिए. जिस बिंदू पर मैं यहां बात करना चाहता हूं वह यह है कि आपकी उपलब्धियां अच्छी हैं. लेकिन उन्हें उनके वास्तविक अनुपात में रखना चाहिए. आप यह दावा नहीं कर सकते हैं कि 67 साल से कुछ काम नहीं हुआ और दो साल में आपने सब कुछ ठीक कर दिया. एक सफेद झूठ होने के अलावा इसमें कोई सच्चाई नहीं है. इससे कोई प्रभावित नहीं होगा, यहां तक की गांव में रहने वाले लोग भी नहीं. स्कॉलरशिप के लिए उन्होंने एक और पोर्टल बनाया है. देश के 25 करोड़ छात्रों में से एक लाख छह हज़ार का रजिस्ट्रेशन हुआ है और उनमें से बीस हज़ार ने आवेदन दिया है. ऐसा क्यों हुआ? लिहाज़ा ये सारे बड़े-बड़े दावे केवल दावे ही हैं. सच्चाई यह है कि भारत एक सतत प्रगति की ओर अग्रसर इकाई की तरह है. चाहे वह विदेश नीति हो या प्रधानमंत्री का दौरा. कुछ लोग प्रधानमंत्री के विदेश दौरों की आलोचना कर रहे हैं, लेकिन में ऐसे विचारों से सहमत नहीं हूं. वे अपनी तरफ से कोशिश कर रहे हैं. लेकिन संघ के लोग कह रहे हैं कि जवाहरलाल नेहरू ने कुछ नहीं किया. दरअसल हम उन्हीं नीतियों को अपना रहे हैं जिन्हें जवाहरलाल नेहरू ने निर्धारित किया था. और ऐसा करना ठीक भी है. बेशक 1991 के बाद उदारीकरण का दौर शुरू हुआ, जिसमें सोवियत ब्लॉक उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया था और हर किसी का झुकाव अमेरिका की तरफ हो गया. लेकिन जिस तरह यह सरकार काम कर रही है, उससे बहुत सावधान रहना चाहिए. आप अमेरीकन ब्लॉक में आंख मूंद कर नहीं जा सकते हैं, वरना भारत को दूसरा पाकिस्तान बनने में अधिक समय नहीं लगेगा.

सुब्रमण्यम स्वामी ने यह निशानदेही कर देश की बड़ी सेवा की है कि दो लोग बहुत अच्छे हो सकते हैं, बुद्धिमान हो सकते हैं, लेकिन वे इतने बुद्धिमान नहीं हैं. बुद्धिमान होने के लिए आपको देश की वास्तविकताओं से अवगत होना पड़ेगा. आरबीआई के गवर्नर हमेशा ऐसे लोग रहे हैं जो गरिमापूर्ण, ज्ञानी और अच्छे व्यक्तित्व वाले थे. रघुराम राजन ऐसे पहले व्यक्ति नहीं हैं. मैं वैसे लोगों में से हूं जो समझते हैं कि किसी संस्था में कोई व्यक्ति आता है और चला जाता है लेकिन संस्थाएं स्थायी रहती हैं. यह भारत पर पूरी तरह से लागू होता है. हम वैसे बनाना रिपब्लिक नहीं हैं, जहां एक बदलाव से सारी चीज़ें बदल जाती हैं. रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया आज़ादी से पहले की संस्था है. अगर मैं गलत नहीं हूं तो रमन आरबीआई के 23 वें गवर्नर हैं. उनके बाद दूसरा गवर्नर बहाल होगा, यह किसी सार्वजनिक बहस का मुद्दा नहीं है. यह एक प्रशासनिक फैसला है जिसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को लेना है. मुझे विश्वास है कि वे इस पद के लिए किसी योग्य व्यक्ति को ढूंढ लेंगे, जो ज़रूरत के मुताबिक फैसला लेने में सक्षम हो. मिसाल के तौर पर व्यापार जगत रघुराम राजन से नाराज था क्योंकि उन्होंने ब्याज दर में कटौती नहीं की. लेकिन यह कोई मापदंड नहीं होना चाहिए क्योंकि केवल ब्याज दर में कटौती मात्र से समस्या का समाधान नहीं हो सकता. दरअसल सरकार की आर्थिक नीति इस सिलसिले में कारगर साबित हो सकती है. सरकार की समग्र नीति क्या है, हमें मालूम नहीं है.

1991 के बाद जो धारणा बनी, वह यह थी कि आप आर्थिक क़ानूनों को गैर-आपराधिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं. फेरा को फेमा से बदल दिया गया, लाइसेंस परमिट राज का खात्मा कर दिया गया, आयकर दर घटा दिया गया. धारणा यह थी कि व्यापार में आसानी के लिए माहौल तैयार किया जा रहा है. पिछले दो साल से हम क्या देख रहे हैं? हर एक क़ानून में गिरफ्तारी का प्रावधान रखा जा रहा है, हर क़ानून में अपराध की धारा जोड़ी जा रही है. मैं इसके खिलाफ नहीं हूं क्योंकि यह समाजवादी विचार से मेल खाता है. लेकिन आप दोनों हाथ में लड्‌डू नहीं रख सकते. आप अपना मन बना लीजिए कि आप विदेशी निवेश चाहते हैं. विदेशी निवेशक सबसे पहले यह देखते हैं कि आपका बुनियादी ढांचा कैसा है? बुनियादी ढांचे से यहां आशय क़ानूनी ढांचे से है. क्या उनके साथ मुनासिब व्यवहार होगा. अगर आपके सांसद को अपनी गर्दन बचाने के लिए भागकर लंदन जाना पड़ रहा है तो विदेशी यहां व्यापार करने क्यों आएंगेे? उनके पास भारत के नजदीक फिलीपींस जैसे बहुत सारे विकल्प हैं. लिहाज़ा मैं समझता हूं कि इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है. मुझे नहीं मालूम कि इसमें रघुराम राजन की क्या भूमिका हो सकती थी. प्रधानमंत्री केपास ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो विचारशील और बुद्धिमान हैं और जो यह पता लगा सकते हैं कि व्यापार के वातावरण को कैसे सुधारा जा सकता है. सुब्रमण्यम स्वामी उनमें से एक हैं. उनके विचार बहुत अलग होते हैं, जिनसे मैं सहमत नहीं हो सकता, जैसे वे चाहते हैं कि आयकर समाप्त कर दिया जाए. फिलहाल उन्होंने अरविंद सुब्रमण्यन पर हमला बोला है. मैं इनको नहीं जानता हूं. मैं समझता हूं कि प्रधानमंत्री को चाहिए कि उचित तरीके से इस पूरे हालात का जायजा लें. आप बिजनेस करना चाहते हैं या नहीं चाहते हैं, आप विदेशी निवेश चाहते हैं या नहीं चाहते हैं. आप अपना मन बनाइए.

हास्यास्पद बात यह है कि भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए जिन मुद्दों का विरोध किया, उसे अब सत्ता में आने के बाद लागू करना चाहती है और अब कांग्रेस ही उसका विरोध कर रही है. दोनों एक दूसरे को या खुद को कोई श्रेय नहीं देना चाहते. जब कांग्रेस रिटेल में एफडीआई लाना चाहती थी तो भाजपा उसका विरोध कर रही थी और अब भाजपा एफडीआई की बात कर रही है तो कांग्रेस विरोध में है. मनरेगा को लेकर भी यही सब हुआ. भाजपा मनरेगा को कांग्रेस की असफलता का स्मारक बताती थी, इसे भ्रष्टाचार बढ़ाने वाली योजना बताती थी, लेकिन अब भाजपा के पास मनरेगा को प्रोत्साहन देने के अलावा कोई चारा नहीं है, क्योंकि यही एकमात्र योजना है जो गरीबों को सीधे राहत पहुंचाने का काम कर रही है, गरीबों से जुड़ी हुई है. मैं समझता हूं कि इस पर गहन सोच-विचार की जरूरत है. सरकार रोज-रोज कुछ न कुछ ऐसे निर्णय ले रही है जिससे लोगों के बीच भ्रम की स्थिति बनी हुई है. इससे किसी को फायदा नहीं होने वाला है.

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