उर्दू के मशहूर और बदनाम कहानीकार सआदत हसन मंटो की एक कहानी है टोबा टेक सिंह जो वर्ष 1947 में भारत के विभाजन के परिपेक्ष्य में लिखी गई है. कहानी का ताना-बाना लाहौर के पागलखाने के इर्द-गिर्द बुना गया है. इस के ज्यादातर किरदार पागल हैं. कहानी का मुख्य पात्र विशन सिंह इस दुविधा में गिरफ्तार हो जाता है कि उसका गांव टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में? और जब उसे हिंदू और सिख पागलों के साथ भारत भेजा जाता है तो वह भारत या पाकिस्तान के बजाय नो मैनस लैंड में दम तोड़ देना ज्यादा पसंद करता है. टोबा टेक सिंह की कहानी 1947 के बाद भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश में अनेकों बार दोहराई जा चुकी है और आगे भी जाने कितनी बार दोहराई जाएगी कुछ कहा नहीं जा सकता है. बिशन सिंह जिस मनोदशा से गुजर रहा था ठीक उसी स्थिति में आज भी बांग्लादेश में तकरीबन 1.5 लाख बिहारी शरणार्थी हैं जो एक बेहतर और सुरक्षित ज़िन्दगी की तलाश में पाकिस्तान गए थे, लेकिन उनकी हालत ऐसी है कि वह न तो पाकितानी हैं और ना ही बंगलादेशी, भारतीय होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. उनके पास संयक्ुतराष्ट्रसंघ की संस्था रेडक्रॉस द्वारा बनाए गए शरणार्थी शिविरों में जानवरों से भी बदतर ज़िंदगी गुजारने के इलावा और कोई चारा नहीं है. मंटो के विशन सिंह के पास एक विकल्प तो था कि वह भारत या पाकिस्तान में से किसी का भी चुनाव ना कर सकने की स्थिति में नो मैनस लैंड में अपनी जान दे सकता था. लेकिन इन उर्दूभाषी बांग्लादेशी बिहारियों की त्रासदी यह है कि उन्हें दो गज़ ज़मीन भी मयस्सर नहीं है जिसे वो अपना कह सकें.
image1बांग्लादेश की राजधानी ढाका के मीरपुर में स्थित कैंप तक़रीबन 30 हज़ार बिहारी शरणार्थियों की रिहाइशगाह है. इसी साल जून महीने की 14 तारीख को शब-ए-बारात के मौके पर पटाखे चलाने को लेकर मामूली कहा सुनी हुई. जिसके बाद धारदार हथियारों से लैस एक भीड़ ने इस कैंप के 10 लोगों को उनके घरों में बंद करके जिंदा जला डाला. पुलिस प्रशासन ने इस घटना को दो बिहारी गुटों की आपसी लड़ाई कहकर मामले को रफा-दफा करने कि कोशिश की, जबकि स्थानीय निवासियों ने सत्ताधारी दल आवामी लीग के सांसद को इस घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहराया. घटना की जांच के लिए गठित जांच समिति अभी तक किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है. अखबारों में छपी रिपोर्टों के मुताबिक अभी तक समिति को कोई ऐसा सुबूत नहीं मिला जिसकी बुनियाद पर किसी के खिलाफ मुक़दमा कायम किया जा सके. बहरहाल, जांच का नतीजा जो भी हो लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस कैंप में रहने वाले लोग संगीन मानवीय त्रासदी का शिकार हैं. उनके अधिकारों का हनन कोई अनोखी बात नहीं है.
जहां तक कैंप की हालत का सवाल है तो यह इंसानों के रहने लायक नहीं है. बजबजाती हुई गंदी नालियां, नालियों में आधे डूबे हुए सरकारी नलों से पीने का पानी भरती हुई लड़कियां. घरों की हालत ऐसी कि एक अस्थाई रूप से टिन की छत डाल कर एक 8 वर्ग मीटर के छोटे से कमरे में एक परिवार के औसतन 5 से 9 लोग रहने को मजबूर हैं. 30 हज़ार लोगों के लिए सिर्फ 200 सार्वजानिक टॉयलेट. यह ऐसी स्थिति है जिसमें प्राइवेसी तो दूर उसकी कल्पना भी बेकार है. स्कूल के नाम पर वालंटियर्स द्वारा चलाए जा रहे प्राथमिक स्कूल. जिसके बाद शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं, जो बहुत खुशकिस्मत हुए उन्हें कॉलेज का मुंह देखने का मौक़ा मिल गया. वहां भी बिहारी होने का ताना और उपेक्षा. पढ़ाई ख़त्म करने के बाद कोई नौकरी नहीं. जीविका का प्रमुख साधन सिलाई-क़ढ़ाई और मेकेनिक का काम. बांग्लादेश में बिहारी मुसलमानों (जिन्हें सरकारी जुबान में एसट्रेंडेड पाकिस्तानी या फंसे हुए पाकिस्तानी कहा जाता है और ये लोग खुद को पाकिस्तानी कहलवाना पसंद करते हैं) के लिए बने 70 कैम्पों की कम-ओ-बेश ऐसी ही हालत है.
एसट्रेंडेड पाकिस्तानियों के हक की लड़ाई लड़ने वाली संस्था एसट्रेंडेड पाकिस्तानी जनरल रिपैटरिएशन कमिटि (एसपीजीआरसी) के आंकड़ों के मुताबिक बांग्लादेश में कुल एक लाख साठ हजार उर्दू बोलने वाले बिहारी शरणार्थी हैं. इन सभी 70 कैम्पों में केवल सात स्कूल हैं. 19 हजार स्कूल जाने योग्य बच्चों में से केवल 275 बच्चे स्कूल जाते हैं. वर्ष 2008 में बांग्लादेश हाई कोर्ट के फैसले के बाद एक लाख साठ हजार उर्दू भाषी लोगों में से केवल 60 हज़ार लोगों के नाम वोटर लिस्ट में शामिल किये गए. इन शरणार्थियों की हक़ की लड़ाई लड़ने वाले समाज सेवक एहतशामुद्दीन अरशद के मुताबिक वोटिंग का अधिकार देना केवल दिखावा था. उनका कहना है कि इंटरनेशनल रेडक्रॉस ने उनसे एक विकल्प लिया था सबने पाकिस्तान का विकल्प चुना था. यहां के नेता बिहारियों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं. अब सवाल यह है कि यह फंसे हुए बिहारी कौन हैं? 40 साल से अधिक समय बीत जाने के बाद भी इनकी हैसियत शरणार्थियों की क्यों है? उनकी इस दशा के लिए ज़िम्मेदार कौन है?
बांग्लादेश के बिहारी मुसलमान वह लोग हैं जो 1947 में भारत विभाजन के बाद खासतौर पर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मुसलमानों के लिए बने नए-नवेले देश पाकिस्तान के पूर्वी क्षेत्र (पूर्वी पाकिस्तान) चले गए थे. ज़ाहिर है पाकिस्तान की बुनियाद अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा नाम पर रखी गई थी. लेकिन विडंबना यह है कि अल्पसंख्यकों के लिए बने देश में एक दूसरे अल्पसंख्यक यानि बंगालियों की अनदेखी होने लगी. इस अनदेखी को बंगला भाषी पाकिस्तानी सहन नहीं कर सके और इसके खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. धीरे-धीरे यह आंदोलन पृथकतावादी हिंसक आंदोलन में तब्दील हो गया. और वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद बंाग्लादेश नाम का एक नया देश वजूद में आ गया. चूंकि पाकिस्तान सरकार ने सरकारी नौकरियों में, व्यवसाय में उर्दू भाषी बिहारी लोगों को तरजीह दी थी. इसलिए पूर्वी पाकिस्तान के बहुसंख्यक बंगाली, बिहारियों को पाकिस्तानी वर्चस्व के प्रतीक के तौर पर देखने लगे थे. वर्ष 1971 की बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई में बिहारी लोगों ने पाकिस्तानी फ़ौज का साथ दिया था, जिसकी वजह से पहले से ही तनावपूर्ण बंगाली-बिहारी रिश्तों में और कड़वाहट पैदा हो गई.

बांग्लादेश के बिहारी मुसलमान वह लोग हैं जो 1947 में भारत विभाजन के बाद खासतौर पर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मुसलमानों के लिए बने नये-नवेले देश पाकिस्तान के पूर्वी क्षेत्र (पूर्वी पाकिस्तान) चले गए थे. ज़ाहिर है पाकिस्तान की बुनियाद अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा नाम पर रखी गई थी. लेकिन विडंबना यह है कि अल्पसंख्यकों के लिए बने देश में एक दूसरे अल्पसंख्यक यानि बंगालियों की अनदेखी होने लगी. इस अनदेखी को बंगला भाषी पाकिस्तानी सहन नहीं कर सके और इसके खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया.

बांग्लादेश की स्थापना और 1971 की जंग में पाकिस्तानी फौजों की हार के बाद बंगालियों का गुस्सा बिहारियों पर टूट पड़ा. रातों-रात लाखों लोग अपने घरों और नौकरी से बे-दखल कर दिए गए. इसके बाद वो सभी रेडक्रॉस द्वारा स्थापित शरणार्थियों शिविरों में रहने के लिए मजबूर हो गए. इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में कराए गए सर्वे में ज्यादातर लोगों ने पाकिस्तान जाने की इच्छा ज़ाहिर की थी. वर्ष 1974 में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के दरम्यान एक त्रि-पक्षीय समझौता हुआ. इसके अनुसार पाकिस्तान इन शरणार्थियों को पाकिस्तान में आबाद करने पर राज़ी हो गया था. इस समझौते में यह कहा गया था कि तीन वर्ष की अवधी में सभी शरणार्थी पाकिस्तान चले जाएंगे. लेकिन इस दौरान तकरीबन एक लाख लोगों की पाकिस्तान वापसी मुमकिन हो पाई थी और तकरीबन डेढ़ लाख लोगों का भविष्य अधर में लटका रह गया. क्योंकि इस राह में पाकिस्तान की ब्यूरोकेसी आड़े आ गई और कई तरह की अनावश्क शर्तें लगाकर लोगों की पाकिस्तान वापसी में अड़चनें पैदा कर दीं.
एसपीजीआरसी के वरिष्ठ नेता अब्दुल जब्बार खान कहते हैं के 1974 से आज तक 40 साल गुजर गए हैं और हम आज भी उस हवाई जहाज का इंतज़ार कर रहे हैं जिससे हमें पाकिस्तान जाना है.
इस दौरान एसपीजीआरसी ने अनगिनत धरना प्रदर्शन, भूख हड़ताल, मार्च और जुलुस निकाले. यहां तक की 1981 में भारत के रास्ते पाकिस्तान जाने के लिए लॉन्ग मार्च की भी कोशिश की, लेकिन उन्हें बांग्लादेश की सरहद पर गिरफ्तार कर लिया गया. बहरहाल, जुलूसों का सिलसिला आज भी जारी है. लेकिन बिहारी शरणार्थियों की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसके लिए कोशिशें हुईं लेकिन अभी तक उसका भी कोई असर नहीं हो सका. 1974 के बाद सबसे पहले 1981 में संयुक्त राष्ट्र संघ की शरणार्थियों की संस्था युएनएचसीआर ने एक वर्किंग ग्रुप का गठन किया. ताकि इन शरणार्थियों को पाकिस्तान में बसाया जा सके. वर्ष 1982 में कुवैत, सऊदी अरब और दूसरे खाड़ी देशों की आर्थिक सहायता के बाद 4600 बिहारियों को पाकिस्तान में बसाया गया. पाकिस्तान की सरकार ने सैद्धांतिक रूप में कभी भी बिहारी शरणार्थियों की पाकिस्तान वापसी से इंकार नहीं किया. हालांकि राबिता अल आलमी इस्लामी की पहल पर नवाज़ शरीफ के वजीर-ए-आला रहते कि पंजाब असेंबली ने इन सभी शरणार्थियों को पाकिस्तानी पंजाब में आबाद करने के लिए एक प्रस्ताव भी मंज़ूर कर लिया था. लेकिन 1988 में जनरल जिया-उल-हक की मौत के बाद सत्ता में आई बेनजीर हुकूमत ने राष्ट्रवादी सिंधियों के दबाव में आकर इस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया था. और एक बार फिर बिहारी शरणार्थियों को उम्मीद की किरण दिखाई देने के बाद उनके हाथ मायूसी लगी. वर्ष 1992 में पाकिस्तान और बांग्लादेश के एक साझा बयान में यह कहा गया की दोनों देशों के बीच फंसे हुए 3000 पाकिस्तानी परिवारों को पाकिस्तान वापस लाया जाएगा. 1993 में 325 लोगों के पाकिस्तान आने के साथ ही इस प्रक्रिया की शुरुआत हो गई, लेकिन इसी बीच कराची में सिंधी राष्ट्रवादियों ने दो बम धमाके किए जिसमें 22 लोग मारे गए थे और कई जख्मी हुए थे. इसके बाद इस प्रस्ताव पर रोक लग गई थी.
बिहारी शरणार्थियों की पाकिस्तान वापसी एक बार फिर अधर में पड़ गई जब वर्ष 1995 में पाकिस्तान सरकार ने 130 बांग्लाभाषी लोगों को यह कहकर बांग्लादेश वापस भेज दिया गया कि वे अवैध रूप से पाकिस्तान में रह रहे थे. पाकिस्तान का यह भी कहना था कि 16 लाख बंाग्लादेशी पाकिस्तान में अवैध रूप से रह रहे हैं. ज़ाहिर है पाकिस्तान का यह रवैया बिहारी शरणार्थियों को पाकिस्तान वापस न बुलाने का बहाना बन गया. बांग्लादेश ने अपेक्षित रूप से इन बंगालियों को लेने से साफ़ इंकार कर दिया. इस परिपेक्ष्य में पाकिस्तान वापसी की उम्मीद लगाए कुछ बिहारियों को यह एहसास होने लगा कि पाकिस्तान वापसी का रास्ता बहुत कठिन है. लिहाज़ा उन्होंने 2004 में वोटिंग राईट के लिए हाईकोर्ट में एक अर्जी दाखिल की जिसके बाद 2008 में कोर्ट ने उन्हें वोटिंग का अधिकार दे दिया. वोटिंग का अधिकार तो मिल गया लेकिन अभी तक इनका नेशनल आईडी कार्ड नहीं बन पाया है. इस वजह से उनकी नागरिकता अभी तक अधर में लटकी हुई है.
हालांकि अब ज्यादातर बिहारी शरणार्थी अब यह समझ गए हैं कि उनकी पाकिस्तान वापसी का रास्ता आसान नहीं है इसलिए वह अब बांग्लादेश में ही अपने नागरिक अधिकारों की बात करने लगे हैं. लेकिन बांग्लादेश में अभी भी उनके लिए हालत जस के तस बने हुए हैं. उधर पाकिस्तान अस्थिरता का शिकार है. बलूचिस्तान में वैसे ही हालत पैदा हो रहे हैं जैसे 1970 से पहले बांग्लादेश में थे. सिंधी किसी भी कीमत पर और मुहाजिरों को अपनी ज़मीन पर बसाने के लिए तैयार नहीं हैं. पंजाब और खैबर पख्तून ख्वा में भी अराजकता की स्थिति बनी हुई है. ऐसे में ये बिहारी शरणार्थी मुस्लिम देशों की संस्था आर्गेनाईजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन और संयक्ुत राष्ट्र संघ के दरवाज़े पर दस्तक दे रहे हैं लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं है और 40 साल से ज्यादा गुज़र जाने के बाद भी ये लोग आज किसी भी देश के नागरिक नहीं हैं.

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