आने वाले मई महीने में मोदी सरकार अपने कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर लेगी. एक निष्पक्ष विश्लेषण करें, तो देश की आर्थिक गति पहले जैसी है. अरुण शौरी ने ठीक कहा कि यह यूपीए-3 सरकार है, इस पर एनडीए की कोई छाप नहीं है. इस बार का बजट इसलिए थोड़ा अलग है, क्योंकि उसमें कृषि क्षेत्र पर कुछ ज़ोर दिया गया है, जिस पर काफी समय से ध्यान नहीं दिया जा रहा था. यह एक अच्छा संकेत है और बजट में जो प्रावधान हुए हैं, उनका ईमानदारी से क्रियान्वयन होना चाहिए.
प्रधानमंत्री ने कहा है कि वह किसानों की आय अगले छह वर्षों में दोगुनी करना चाहते हैं. यह काम स़िर्फ दो तरीके से हो सकता है, उत्पादकता बढ़े या फिर मूल्य. उत्पादकता दोगुनी नहीं हो सकती. अगर मेहनत की जाए, तो यह दस फ़ीसद या इससे थोड़ा अधिक बढ़ सकती है, लेकिन मूल्य बढ़ाए जा सकते हैं. आप न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा सकते हैं और किसानों को उनकी फसल के लिए ज़्यादा भुगतान कर सकते हैं. इसके लिए विभिन्न आयोगों की अनुशंसाएं लागू करनी होंगी.
इस सबके दो अर्थ हैं. पहला तो यह कि कृषि क्षेत्र की उन्नति होगी और ग्रामीण क्षेत्र में सुधार होगा. लेकिन, महंगाई कम नहीं होगी. खाद्य महंगाई अपनी जगह बनी हुई है. अगर किसानों को बेहतर मूल्य मिलता है, तो ज़ाहिर है कि उपभोक्ताओं को इसके लिए ज़्यादा भुगतान करना होगा. इसलिए सरकार को काफी सावधानी से काम करना होगा. दूसरी बात यह कि सरकार ने वित्तीय घाटे को पहले की घोषणा के मुताबिक तय किया है. वित्तीय घाटा ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिसे हम तीन फ़ीसद, पांच फ़ीसदी या छह फ़ीसद बताकर काम चला लें.
सवाल है कि आख़िर इस पैसे का इस्तेमाल कहां किया गया? आख़िरकार, वित्तीय घाटा आय और व्यय के बीच का अंतर होता है. अतिरिक्त खर्च क्या है? अगर आप राजस्व के लिए अतिरिक्त खर्च कर रहे हैं, तो बेकार है. लेकिन, अगर आप निवेश में खर्च करते हैं, सड़क-बांध निर्माण और उद्योग आदि में खर्च करते हैं, तो उससे हमें कुछ वापस मिलेगा. इस तरह के वित्तीय घाटे के साथ कुछ भी ग़लत नहीं है.
दुर्भाग्य से जिस यूएस मॉडल का हम अनुसरण कर रहे हैं, वह एक अनुबंध की तरह है, जो दूसरे देशों पर वित्तीय घाटा जैसी शर्तें लगा देता है. मैं समझता हूं कि रघुराम राजन आरबीआई में बेहतर कर रहे हैं, लेकिन वित्तीय घाटा एक सरकारी निर्णय है, न कि रिजर्व बैंक का. सरकार के पास अरविंद सुब्रमण्यम के रूप में मुख्य आर्थिक सलाहकार है. समस्या यह है कि उक्त सभी लोग एक ही माइंड सेट (एक तरह से सोचने वाले) के हैं.
शिकागो डॉक्टरीन और वाशिंगटन कन्सेस आदि सब अमेरिका की बातें हैं. हमारे यहां अपना एक थिंक टैंक होना चाहिए. प्रधानमंत्री अच्छा कर रहे हैं. विवेकानंद फाउंडेशन, जो आरएसएस एवं भाजपा से जुड़ी संस्था है, की तर्ज पर आर्थिक विकास के लिए खुद अपने यहां विकसित एक संस्था होनी चाहिए, एक मॉडल होना चाहिए.
दूसरा एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि कुछ दुर्भाग्यपूर्ण कार्रवाइयों, मसलन रोहित वेेमुला की आत्महत्या और कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी, से देश का विमर्श ही बदल गया. हर कोई इन्हीं मुद्दों के बारे में बात कर रहा है. कोई भी शख्स विकास, नौकरी एवं रोज़गार आदि की बात नहीं कर रहा है. यह अच्छा संकेत नहीं है. यह सही है कि वेेमुला की मौत एक बड़ी बात है, जिसे रोका जा सकता था.
किसी ने भी इस मामले में समझदारी से काम नहीं लिया, न वीसी ने और न कमेटी ने. यह दु:खद है, लेकिन मेरे विचार से ऐसा प्रतीत होता है कि संघ परिवार और उनसे जुड़े लोग मोदी के लिए कठिनाइयां ही पैदा कर रहे हैं. वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, मुझे नहीं मालूम. मुझे यह भी नहीं मालूम कि इससे क्या हासिल होगा.
चुनाव के लिए अब स़िर्फ तीन वर्ष बचे हैं. हर कोई फिर से चुना जाना पसंद करता है और पिछले छह माह में कुछ भी नहीं हुआ है. सरकार को एक ग़ैर ज़रूरी मुद्दे को, जो संघ परिवार को खुश कर सकता है कि हमने मुस्लिम या ईसाई को मजा चखाया, मुद्दा बनाकर समय बर्बाद नहीं करना चहिए. इस सबका देश और देश के विकास से कोई लेना-देना नहीं है. इसका उस नारे से भी कोई लेना-देना नहीं है, जो नरेंद्र मोदी ने दिया था कि सबका साथ-सबका विकास और जिसकी वजह से उन्हें बहुमत मिला था.
सरकार को फिर से अपने उन वादों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो उसने जनता से किए थे. निश्चित तौर पर सरकार ने मेक इन इंडिया जैसी कुछ पहल शुरू की हैं, लेकिन मैं समझता हूं कि उसके अपने ही लोग उसकी राह में बाधा डाल रहे हैं. यह दु:खद है. इसी तरह अफज़ल गुरु को फांसी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर यूपीए सरकार के कार्यकाल में दी गई थी. यही नहीं, उसके परिवार को सूचना तक नहीं दी गई, जो बिल्कुल एक सभ्य आचरण के ख़िलाफ़ है. लेकिन ये सब बातें अब ख़त्म हो चुकी हैं. अब लोग उसकी आलोचना कर रहे हैं.
अदालत के फैसले की आलोचना करने में क्या हर्ज है? इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. ग़लत तब होगा, जब आप फैसले की नीयत (मोटिव ऑफ जजमेंट) को अपनी आलोचना में शामिल करते हैं. मैं हमेशा यह बोल सकता हूं कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ग़लती की. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. यह एक लोकतंत्र है. कुछ छात्र नारे लगा रहे थे, तो भाजपा को तकलीफ हुई, लेकिन उसे कश्मीर में उस पीडीपी के साथ सरकार बनाने में कोई परेशानी नहीं है, जिसने साफ़ तौर पर कहा कि अफज़ल गुरु की फांसी ग़लत है. आप महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार बना सकते हैं, लेकिन नारे लगाने की वजह से एक युवक को जेल में डाल देते हैं.
मैं समझता हूं कि मोदी को एक छोटे से समूह की बैठक यह फैसला करने के लिए बुलानी चाहिए कि आख़िर सरकार के आदर्श और प्रतिमान क्या होंगे? क्या संविधान की आपकी व्याख्या वैसी है, जैसी कांग्रेस की थी? आपका रुख स्पष्ट होना चाहिए. अगर आप विमर्श बदलना चाहते हैं, तो बदलिए. इन मुद्दों पर एक नई बहस शुरू कीजिए. आप कहिए कि हम इस सबकी अनुमति नहीं देंगे. आप कहिए कि हम पीडीपी के साथ सरकार नहीं बनाएंगे. वहां राज्यपाल शासन, राष्ट्रपति शासन लगने दीजिए. फिर से चुनाव होने दीजिए.
लोेगों को तय करने दीजिए कि सरकार कौन बनाएगा. भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यहां का मतदाता है. 2014 में इसी मतदाता ने तय किया कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे, 2015 में तय किया कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल होंगे और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार होंगे. भारतीय जनता की ताकत इतनी मजबूत है कि कोई भी उसे तोड़ नहीं सकता. संंघ परिवार यह व्यवस्था पसंद नहीं करता, लेकिन सौभाग्य से उनके पास इतना साहस नहीं है कि वे इसका विरोध कर सकें. वे इसी व्यवस्था के तहत सत्ता में भी आना चाहते हैं और फिर इसी व्यवस्था को ऩुकसान भी पहुंचाना चाहते हैं.
यह सब इस देश को कहीं नहीं ले जाएगा, पांच वर्ष बर्बाद हो जाएंगे. निश्चित तौर पर देश हर दिन प्रगति करता है, लोग हर दिन अपना काम करते हैं. लेकिन, जो कुछ भी हो रहा है, उस वजह से हम वह हासिल नहीं कर पाएंगे, जिसे मोदी विजन कहा जाता है. मोदी बहुत बड़ी बात करते हैं. मैं उनके व्यक्तित्व के इस पहलू को बहुत पसंद करता हूं. मैं इस बात को बहुत पसंद करता हूं, जब वह कहते हैं कि देश के किसानों की आय छह वर्षों में दोगुनी करना चाहते हैं.
बहुत अच्छा विचार है. लेकिन, आप यह करेंगे कैसे? आप ऐसा वाशिंगटन कन्सेस या तीन फ़ीसद वित्तीय घाटे के साथ नहीं कर सकते. आप ऐसा न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाए बिना नहीं कर सकते. जितनी जल्दी सरकार अपने एजेंडे पर फोकस कर ले और विचार करे कि देश को किस रास्ते पर जाना चाहिए, अगले ढाई वर्षों में यही उसके लिए सबसे बेहतर काम होगा.