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घड़ों के दो घराने प्रसिद्ध हैं-हिमाली और गिरवाली. भगवान शंकर का निवास स्थान होने से हिमालय को अघोर मत का उद्गम माना गया है. औघड़ों में यह सामान्य धारणा है कि उनके मत के प्रवर्तक गोरखनाथ थे. यह हिमाली घराना है. हिमाली नामकरण का एक कारण यह भी हो सकता है कि तंत्र-प्रधान तिब्बत में इस संप्रदाय का जन्म हुआ हो और बौद्ध धर्म की अवनति होने पर इस मत के प्रचारक वहीं से मैदानों की ओर अग्रसर हुए हों, जिससे इन साधकों को हिमाली कहा गया हो. गोरक्ष देश नेपाल में गोरखनाथ का प्रभाव अत्यधिक था. कालांतर में इस मत वाले ही अघोर उपासना करते हुए मैदानों में आए. ये हिमालय प्रदेश से आ रहे थे, इसलिए हिमाली कहलाए.

अवधूत मत के दूसरे मान्य आचार्य दत्तात्रेय अत्रि मुनि एवं अनुसूया के पुत्र बताए जाते हैं. इनको विष्णु का अवतार माना गया है. विंध्यगिरि के दक्षिण भाग में इनका क्षेत्र है. त्रिपुरा रहस्य तथा अन्य तांत्रिक ग्रंथों के अनुसार, परशुराम आप ही से शिक्षा लेकर आत्मकाली की उपासना कर सिद्धि को प्राप्त हुए थे. कील के आरंभ में प्रभासपत्तन के निकट यादवों ने परस्पर लड़ते हुए अपने कुल का संहार कर डाला था. सौराष्ट्र (गुजरात) के जूनागढ़ में गिरनार पर्वत के निकट ही यह क्षेत्र है. इस क्षेत्र में भयंकर संहार होने के कारण यह एक महाश्मशान है, जहां सोमनाथ निवास करते हैं. अवधूत संत गिरनार शिखर पर श्रीदत्त की पादुका तथा कमंडलु तीर्थ है. अनेक साधक आज भी यहां आकर श्रीदत्त का संपर्क पाते हैं. मान्यता है कि यहीं बाबा किनाराम को अघोरी वेश में श्रीदत्त ने दीक्षा दी थी. भगवान राम का दावा है कि उन्हें भी यहीं श्रीदत्त का साक्षात्कार हुआ था. गिरनार के श्रीदत्त स्थान की परंपरा के औघड़ गिरनारी कहलाते हैं.

सूकर, मछली, मनुष्य, गिद्ध और कौए के मांस को महामांस कहा जाता है. इनका सेवन विरल अवसरों पर कार्यानुरूप ही करना उचित है. इसके अतिरिक्त जिह्वा से योनि को चाटना, भैरवी के होंठ चूमना, कपाल-पात्र में योगिनियों के साथ आसव पीना आदि का विधान है. साधक के लिए भैरवी की गोद पृथ्वी की तरह है, क्योंकि वह साधक की साधना के रहस्यों का उत्पत्ति-स्थल है और वही उसका भविष्य भी बनाती है. इतना माहात्म्य होने पर भी साधक को भैरवी का मानसिक चिंतन नहीं करना चाहिए, क्योंकि मानसिक साधना करने से बहुत बड़ा अपराध होता है. उससे चित्त की एकाग्रता भंग होती है.

अघोर साधक प्रात:काल सोकर उठते ही पृथ्वी को अपने हाथ से स्पर्श करता है, क्योंकि पृथ्वी जननी है. इस क्रिया से क्रांति की आभा का उसके शरीर में प्रवेश होता है. उठकर बैठने पर वह कुछ मंत्रों को बड़बड़ाता है. अघोरियों को वाणी पर बड़ा निग्रह रखना होता है. कुछ काल तक मनन न हो, वही अघोर पूजा है.

लोक-संग्रह के लिए माला फेरने या ध्यान करने का निषेध नहीं है. अमरी का सेवन यह प्राय: हर समय करता है. वज्री का सेवन सदा न हो, तो चौबीस घंटों में कम से कम एक बार उसका सेवन अवश्य करता है. स्नान का बंधन बिल्कुल नहीं है. रज-वीर्य का सेवन विहित है. अपने होंठ या मुख का प्रक्षालन करके जिस प्रकार लोग उस पर हाथ घुमाया करते हैं, उसी प्रकार गुदा और लिंग का प्रक्षालन करके औघड़ उस पर बराबर हाथ घुमाता है, क्योंकि इन्हीं इंद्रियों से कुंडलिनी का प्रथम मार्ग प्रशस्त होता है.

अघोर साधक यदि गृहस्थ है, तो अपनी प्रिया के होंठों को चूमना उसके लिए अनिवार्य होता है. अपनी भैरवी शक्ति की योनि का भी जिह्वा से सेवन करने से साधक को सिद्धियां मिलती हैं. यह साधना गृहस्थ साधकों के लिए सुलभ है. विरक्त साधु के लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्यों के समाज से अपना डेरा सदैव दूर रखे, क्योंकि रात्रि समय उसके इष्ट मिलन का है. रात्रि को गृहस्थ को गृह छोड़कर चल देना चाहिए. श्मशान-साधना एकांत का पर्याय है और इसका लक्ष्य चित्त की एकाग्रता है. इसी दृष्टि से पंच श्मशान का ग्रहण है: (1) गांव के बाहर का पीपल का वृक्ष, (2) मूंज की खाट, (3) वेश्या का बिस्तर, (4) अपनी पत्नी के सहवास का बिस्तर और (5) श्मशान. जो सफलता श्मशान में है, वही अन्य वर्णित स्थानों में भी. निश्ंिचत चिंतन से अघोर साधक अपनी क्रियाओं का संतुलन बनाता है. ये सभी स्थल निश्ंिचत चिंतन के लिए उपयुक्त हैं. वीर्यपात ही जीव की बलि या चिंगारी उत्पन्न करता है.

अघोर साधक प्रात:काल सोकर उठते ही पृथ्वी को अपने हाथ से स्पर्श करता है, क्योंकि पृथ्वी जननी है. इस क्रिया से क्रांति की आभा का उसके शरीर में प्रवेश होता है. उठकर बैठने पर वह कुछ मंत्रों को बड़बड़ाता है. अघोरियों को वाणी पर बड़ा निग्रह रखना होता है. कुछ काल तक मनन न हो, वही अघोर पूजा है. लोक-संग्रह के लिए माला फेरने या ध्यान करने का निषेध नहीं है.

सूकर, मछली, मनुष्य, गिद्ध और कौए के मांस को महामांस कहा जाता है. इनका सेवन विरल अवसरों पर कार्यानुरूप ही करना उचित है. इसके अतिरिक्त जिह्वा से योनि को चाटना, भैरवी के होंठ चूमना, कपाल-पात्र में योगिनियों के साथ आसव पीना आदि का विधान है. साधक के लिए भैरवी की गोद पृथ्वी की तरह है, क्योंकि वह साधक की साधना के रहस्यों का उत्पत्ति-स्थल है और वही उसका भविष्य भी बनाती है. इतना माहात्म्य होने पर भी साधक को भैरवी का मानसिक चिंतन नहीं करना चाहिए, क्योंकि मानसिक साधना करने से बहुत बड़ा अपराध होता है. उससे चित्त की एकाग्रता भंग होती है. साधक लंगोटी पहनते हैं, क्योंकि लाल रंग रज का प्रतीक है और उस लंगोटी को धारण करने वाला अहर्निश लिंग और उस तत्व के प्रतीक का संपर्क बनाए रखता है. साधना काल में नीले और काले वस्त्र का उपयोग इसलिए साधक को करना चाहिए कि वह उसकी विद्या और अघोर क्रिया की सुरक्षा का साधन है.

भग बिच लिंग, लिंग बिच पारा, जो राखे, सो गुरु हमारा. यह औघड़ आचार्यों का प्रधान मत है.अघोराचार्य ऐसे साधना-संपन्न व्यक्तियों को अपना स्नेह देने में जरा भी नहीं हिचकिचाते. उक्त पद में परम उत्तेजना की स्थिति पाकर भी सहज बने रहने की ओर संकेत है. वस्तु के अभाव में उसके त्यागी सभी हो सकते हैं, किंतु भोग में योग की साधना केवल उच्च भावापन्न व्यक्तियों का ही काम है. औघड़ उसे कहते हैं, जो समवर्ती साधना की कोटि में पहुंचा हुआ आदमी होता है. समदर्शी तो सबमें समान दरसता है, लेकिन समवर्ती सबमें समान बरतता है. जो सबमें समान बरतने वाला होता है, उसके यहां किसी जाति या धर्म का कोई बंधन नहीं होता. औघड़ों में औघर की परिभाषा है-और घर. ये सब लोग नहीं, ये सब घर नहीं, और ही घर. भगवान शिव को औघड़ कहा जाता है. ये बहुत जल्द द्रवित होते हैं, क्योंकि इनका हृदय बहुत ही स्वच्छ रहता है, किसी के साथ कोई दुराव नहीं होता. औघड़ का पंथ नहीं है, यह पद है. इसलिए इस पद पर जो भी पहुंच जाता है, वह किसी भी पंथ का या धर्म का अनुयायी हो, औघड़ हो जाता है. हिंदुओं में इन्हें औघड़ कहते हैं, तो मुसलमानों में औलिया या मलंग.

(औघड़ भगवान राम से बातचीत के आधार पर, सात दिसंबर, 1980)

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