इस देश के महान अभिनेता, लाजवाब कलाकार और एक बेहतरीन इंसान दिलीप कुमार की आखिरी विदाई पर मन में कौंधता यह सवाल कि अगर अमिताभ बच्चन सदी ( यहां हम बीसवीं सदी ही मानें) सदी के महानायक हैं तो फिर दिलीप कुमार क्या हैं? महानायकों के महानायक या फिर बाॅलीवुड के युगपुरूष? यह सवाल इसलिए कि महानायक अमिताभ बच्चन ने दिलीप साहब को अपनी आदरांजलि में कहा कि बाॅलीवुड का इतिहास दो हिस्सो में लिखा जाएगा। यानी दिलीप कुमार पूर्व का युग और दिलीप कुमार पश्चात का युग। युगों की इस विभाजक रेखा पर अकेले दिलीप कुमार खड़े हैं। इसे और गहराई से समझें तो हिंदी फिल्मों में अभिनय का दिलीप कुमार पूर्व का स्कूल और दिलीप कुमार स्कूल तथा उसके बाद का वर्तमान स्कूल, जो खान युग के उतार के बाद फिर अपने एक महानायक की तलाश में है। इसका सीधा तात्पर्य हिंदी फिल्मो के शैशव और किशोरावस्था की अभिनय शैली तथा युवावस्था की अभिनय शैली एवं दर्शकों के साथ उसके संवाद में आए अंतर से है। बीती सदी में चालीस के दशक में दिलीप कुमार एक्टिंग का नया ग्रामर लेकर आते हैं, जिसमें संवाद की सहज अदायगी, भावाभिनय, मौन रहकर भी बहुत कुछ कह जाना और अपने किरदार में इतनी गहराई तक उतर जाना कि दिलीप कुमार ही किरदार बन जाए।
फिल्म ‘देवदास’ शायद इसका चरम है। कुछ लोग के.एल.सहगल अभिनीत ‘देवदास’ को बेहतर मानते हैं, लेकिन कई दफा बनी ‘देवदास’ में दिलीप कुमार वाली ‘देवदास’ सार्वकालिक श्रेष्ठ इसलिए है, क्योंकि यहां दिलीप कुमार किरदार देवदास को नाटकीयता से बाहर खींचकर खुद देवदास ही बन जाते हैं। किसी महान अभिनेता की उत्कृष्टता की कसौटी है कि विभिन्न भूमिकाओ को अमर कर देना। दिलीप कुमार ऐसा एक नहीं, कई- कई बार करते हैं और करते चले जाते हैं। ‘देवदास’ से बिल्कुल हटकर वो जब क्लािसक फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ में शाहजादा सलीम की भूमिका में अपने प्यार की खातिर शंहशाह पिता से टक्कर लेते हैं तो वह रूआब और संयम के बेमिसाल मुकाबले में तब्दील हो जाता है। पृथ्वीराज कपूर की गरजती आवाज के आगे हो सकता था कि दिलीप कुमार अपनी कंट्रोल्ड डायलाग डिलीवरी के साथ सरेंडर हो जाते, लेकिन वैसा आखिर तक नहीं होता।
अंतत: बेहरम शाही उसूल के आगे जज्बाती प्यार की जिद ही जीतती है। ‘मुगल- ए-आजम’ में उसूलो में पगे बाप-बेटे की टक्कर का सीन हमे दो और फिल्मों में एक अलग कैनवास पर दोहराता दिखता है। याद करें फिल्म ‘शक्ति’ में पुलिस अाफिसर पिता दिलीप कुमार और एंग्री यंगमैन बेटे अमिताभ बच्चन की वो सांस थमा देने वाली टक्कर। यहां फिर वही सवाल कि दोनो में कौन भारी पड़ा? बाॅलीवुड का महानायक या महानायकों का महानायक? ‘मुगल-ए-आजम’ का वही सीन तीसरी दफा फिल्म ‘मोहब्बतें’ में अलग अंदाज में तिहराया जाता है। अबकि बार पिता की भूमिका में होते हैं अमिताभ बच्चन और उनकी मुकाबिल होते हैं शाहरूख खान। यहां दोनो के बीच रिश्ता गुरू-शिष्य का होता है, लेकिन टेंशन और टकराव वही मुगल-ए-आजम वाला। फिर एक यादगार सीन। कहने का आशय सिर्फ इतना कि दिलीप कुमार एक्टिंग के वो आचार्य हैं, जिनके सबक बार-बार दोहराए जाते हैं और आगे भी दोहराए जाते रहेंगे।
फिल्मों और अभिनय की मामूली समझ रखने वाले मुझ जैसे दर्शक की निगाह में अभिनय से इतर भी ऐसे कई कारण हैं, जिनकी वजह से दिलीप कुमार ‘महानायक’ की कक्षा को लांघकर ‘युग पुरूष’ के नाभि चक्र तक पहुंचते हैं। पहला तो यह कि दिलीप कुमार ने हिंदी फिल्मों में अभिनय शैली को असहज सी लगने वाले नाटकीय और लाउड अंदाज से बाहर निकालकर उसे सहज और ज्यादा विश्वसनीय रूप में प्रतिष्ठित किया ( हालांकि इसमें और भी कई कलाकारों का योगदान है)। इससे बाॅलीवुड में फिल्मी अभिनय का व्याकरण और परिपक्व तथा सुस्पष्ट हुआ। नौटंकी और रजतपट की लक्ष्मण रेखाएं साफ हुईं। पर्दे पर जीए जा रहे पात्र हमे अपने बीच के ही लगने लगे। शायद इसीलिए महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने दिलीप कुमार को ‘मेथड अभिनेता’ कहा था।
दिलीप कुमार ने अपने पांच दशकों के कॅरियर में तकरीबन हर रस और रंग के किरदार न केवल पूरी शिद्दत से निभाए बल्कि उन्हें एक पैमाने में तब्दील किया, बावजूद इस आलोचना के कि हर किरदार में दिलीप कुमार कहीं न कहीं से झांकते ही हैं। एक्टिंग सेंस के साथ साथ दिलीप कुमार एक समृद्ध भाषा और गहरी कला समझ के भी धनी रहे हैं। वो कांग्रेस के कोटे से राज्यसभा सांसद भी रहे। लेकिन अोछी राजनीति से दूर रहे। दिलीप कुमार का अभिनय संसार बहुत व्यापक है। उन्होंने 8 बार बेस्ट एक्टर का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता। भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण और दादा साहब फाल्के अवाॅर्ड से सम्मानित किया। यह किसी कलाकार की महानता ही है कि 1998 में जिन दिलीप कुमार को पाकिस्तान द्वारा अपने सबसे बड़े सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से सम्मानित करने की घोषणा की गई थी, उसका सबसे ज्यादा विरोध शिवसेना ने किया था, आज उसी पार्टी के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे दिलीप कुमार को श्रद्धांजलि देने उनके घर गए।
ध्यान रहे कि दिलीप कुमार को यह सम्मान अटलजी द्वारा हस्तक्षेप के बाद मिल सका था। अगर दिलीप कुमार को भी बीसवीं सदी का महानायक ही मानें तो वो बाजारवादी युग पूर्व के महानायक थे। दिलीप कुमार पैसे के पीछे शायद कभी नहीं भागे। बाजार उनके कॅरियर को डिक्टेट नहीं कर पाया उल्टे उन्होंने ही बाजार को डिक्टेट किया। महानायक समय के साथ चलते हैं और युग पुरूष समय पर सवारी करते हैं। एक युग पुरूष और सदी के महानायक में शायद इतना ही फर्क है। बेशक अमिताभ बच्चन हमारे समय के महान और वर्सेटाइल अभिनेता हैं। लेकिन उन्होंने बाजार की शर्तों पर खुद को प्रासंगिक बनाए रखा है। वो फिल्मो में तो काम करते ही हैं, साथ में रियलिटी शो करने से लेकर तेल से लेकर तमाम चीजों के विज्ञापन करने में गुरेज नहीं करते। वो सोशल मीडिया पर भी उतने ही एक्टिव हैं। यानी बाजार में अपनी मांग कायम रखना और मांग के अनुसार पूर्ति करते रहना उनकी महानायकी का अर्थशास्त्रीय पहलू है। कह सकते हैं कि आज प्रोफेशनली जिंदा रहने की वो जरूरत भी है।
दिलीप कुमार ऐसा नहीं करते। अपने 54 साल के एक्टिव फिल्मी कॅरियर में वो महज 63 फिल्में करते हैं। यानी औसतन हर साल एक से कुछ ज्यादा। लेकिन कोशिश करते हैं कि जो फिल्म करें, वो ‘लाइट हाउस’ साबित हो। यह जीवन के दृष्टिकोण और कला दृष्टि का अंतर भी हो सकता है। दिलीप कुमार ने जीते जी शायद ही अपनी किसी फिल्म का प्रमोशन किया हो या गुजारिश करते नजर आएं हों कि भाई साहब, जरा मेरी इस फिल्म को भी जरूर देखना। उन्होंने बाजार में बिकाऊ किसी माल का विज्ञापन किया हो, याद नहीं पड़ता। और सोशल मीडिया का जमाना आते-आते तो वो अपनी याददाश्त भी खो बैठे थे।
अभिनय के इस पब्लिक स्कूल में दिलीप कुमार ने किस से क्या सीखा, यह तो पता नहीं, लेकिन दिलीप कुमार को अपना एक्टिंग गुरू मानने वालों की तादाद बहुत बड़ी है। उन्होंने कला के जो मानदंड कायम किए , वो उनकी अपनी कला चेतना से उपजे हैं, कट-पेस्ट वाले नहीं है। क्योंकि दिलीप कुमार अपने अभिनय के साथ एक ‘ईथोस’ लेकर चलते हैं, जो समकालीनों के साथ-साथ भावी पीढि़यों को भी प्रभावित-प्रेरित करता रहता है। सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर अगर दिलीप कुमार को अपना बड़ा भाई मानती रहीं तो इसकी वजह केवल उम्र की सीनियारिटी भर नहीं है, कलाधर्मिता की आकाशीय ऊंचाई भी है। इसलिए भी लता को लता के रूप विकसित होने में दिलीप कुमार का भी योगदान रहा है।
इस बात को समझने के लिए एक छोटी एक्सरसाइज करें। समझौतों के फिल्टर से युगपुरूष दिलीप कुमार और महानायक अमिताभ बच्चन को निकाल कर नापें। समझ आज जाएगा कि दिलीप कुमार कई डिपार्टमेटों में ‘बिग बी’ पर भारी पड़ते है। बावजूद इसके कि दिलीप कुमार को किसी ने ‘बिग डी’ जैसा नाम नहीं दिया। शायद यही कारण है कि सदी के महानायक की पत्नी और स्वयं बेहतरीन अभिनेत्री जया बच्चन से जब यह सवाल किया गया कि उनका आदर्श अभिनेता कौन है तो जयाजी का बेबाक जवाब था- दिलीप कुमार।
युग पुरूष का लक्षण यही है कि वह स्वयं भले अपने समय को निर्देशित न करे, लेकिन उसकी मौजूदगी से वक्त खुद-ब-खुद निर्देशित होता रहता है, उससे प्रेरणा लेता रहता है। दिलीप कुमार भी अपने जीवन की सांझ में एक फिल्म ‘कलिंगा’ डायरेक्ट करने वाले थे। लेकिन वो प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चला गया। सुभाष घई का यह प्रोजेक्ट अगर पूरा होता तो दिलीप कुमार, अमिताभ और शाहरूख खान जैसे अपने समय के महानायकों की हायरआर्की को हम अलग अंदाज में सेल्युलाइड पर देखते। बहरहाल, इक्कीसवीं सदी का आने वाला सिनेमा कैसा होगा, उसके दर्शक कैसे होंगे, यह हम नहीं कह सकते। लेकिन बाॅलीवुड की दूसरी शताब्दी भी अभिनय के दिलीप कुमार स्कूल को खारिज नहीं कर सकेगी। क्योंकि इस स्कूल के सबक सोने की तरह खरे हैं और जो अपने समय में खरा है, वह हर युग में खरा रहेगा। आमीन।