दिल्ली की राजनीति को अन्य राज्यों के मुक़ाबले अधिक सरल और स्थानीय मुद्दों पर आधारित माना जाता रहा है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी बहुमत से दूर, लेकिन सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. हालांकि भाजपा द्वारा सरकार न बनाने की घोषणा के बाद पहली बार चुनाव मैदान में उतरी और दूसरे नंबर पर रही आम आदमी पार्टी ने अपनी धुर विरोधी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई. जन लोकपाल क़ानून विधानसभा में पारित न होने के बाद पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने 14 फरवरी, 2014 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. उसके बाद दिल्ली में कभी जोड़-तोड़ करके सरकार बनाने की चर्चाएं होने लगीं, तो कभी नए सिरे से विधानसभा चुनाव की बात कही जाने लगी. अमूमन स्थिर सरकार देने वाली दिल्ली में पिछले छह महीनों से राजनीतिक अस्थिरता देखी जा रही है. बहरहाल, पिछले दिनों अरविंद केजरीवाल की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा कि दिल्ली में राष्ट्रपति शासन क्यों जारी है और सरकार बनाने के लिए क्या क़दम उठाए गए हैं? इस मामले में केंद्र सरकार और उप-राज्यपाल की अपनी-अपनी दलील हो सकती है, लेकिन जनता के तमाम सवालों का जवाब कौन देगा, जो दिल्ली में राष्ट्रपति शासन की बजाय एक स्थायी सरकार देखना चाहती है.
पिछले कई महीनों से दिल्ली वासियों के मोबाइल फोन पर आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल की आवाज़ में एक अनचाही कॉल/अपील सुनाई पड़ती थी. केजरीवाल कभी दिल्ली में अपनी 49 दिनों की सरकार की उपलब्धियां गिना रहे थे, तो कभी मोहल्ला सभा आयोजित कर अपने विधायकों को मिलने वाली विकास निधि का इस्तेमाल करने की बात कहते थे. दिल्ली में पोस्टरों के ज़रिये भी वह इस तरह की अपील करते थे. बीते 3 अगस्त को जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी की ओर से एक सार्वजनिक रैली का आयोजन किया गया. इस रैली से पहले राजधानी दिल्ली के हर गली-मोहल्लों में आम आदमी पार्टी का एक पोस्टर देखने को मिला, जिसमें लिखा था-चुनाव से क्यों भाग रही है भाजपा? इस पोस्टर में नीचे बाईं तरफ़ अरविंद केजरीवाल का एक फोटो भी लगा था.
राजनीति में अपनी बात कहने और विपक्षी पार्टियों पर हमला बोलने के लिए आम आदमी पार्टी का यह तरीक़ा बेशक नया है, लेकिन दिल्ली की जनता को अब उसमें नई बात नहीं दिखती है. नई दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर आयोजित रैली में अरविंद केजरीवाल भले ही भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के ख़िलाफ़ निशाना साध रहे थे, लेकिन अगर देखा जाए तो स्पष्ट नीति, कार्यक्रमों और मसौदे के अभाव में उनकी पार्टी भी अन्य पार्टियों की कतार में खड़ी हो गई है. रैली को संबोधित करते हुए अरविंद केजरीवाल दिल्ली में विधानसभा भंग कर नए सिरे से चुनाव की मांग कर रहे थे. उनके मुताबिक़, भारतीय जनता पार्टी जोड़-तोड़ के सहारे सरकार बनाने की कोशिशों में जुटी है. यही वजह है कि वह चुनाव से भाग रही है. अरविंद केजरीवाल का दावा चाहे जो हो, लेकिन जंतर-मंतर पर पहली बार उनकी पार्टी की ओर से लोगों को लाने के लिए बसों का इंतज़ाम किया गया था. हालांकि, अब तक रैलियों में लोगों को लाने के लिए बसों का विशेष इंतज़ाम दूसरी पार्टियां करती रही हैं, जिस पर अरविंद केजरीवाल समेत पार्टी के कई नेता तंज कसते रहे हैं. ख़बरों के अनुसार, प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र से लोगों को जंतर-मंतर लाने के लिए चार-पांच बसों की व्यवस्था की गई थी.
आम आदमी पार्टी की इस रैली में ऑटो, ई-रिक्शा और रिक्शा चालक उतनी संख्या में नहीं आए, जितनी उम्मीद अरविंद केजरीवाल कर रहे थे, लेकिन रेहड़ी-पटरी दुकानदार और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले सैकड़ों लोग जंतर-मंतर पर देखे गए. जंतर-मंतर पर अजय वीर नामक एक शख्स से मुलाक़ात हुई. हालांकि, उसने आम आदमी पार्टी की टोपी अपने सिर पर नहीं लगा रखी थी. बातचीत में उसने बताया कि रविवार को छुट्टी होने की वजह से वह अरविंद केजरीवाल को सुनने आए हैं. जंतर-मंतर पर अस्थायी पुलिस शिविर से सटी एक दुकान पर चाय की चुस्की लेते हुए उसने एक सवाल पूछा-अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि उनके पास अन्य पार्टियों की तरह इफ़रात पैसे नहीं हैं कि चुनावों में ख़र्च कर सकें, लेकिन मोबाइल फोन पर अनजान नंबरों से फोन आता है, जिसे रिसीव करते ही केजरीवाल की अपील सुनाई देती है. इसके अलावा एफएफ रेडियो पर गाना सुनते वक्त भी केजरीवाल दिल्ली के लोगों को अपनी बात बताते हैं. अजय वीर पूछते हैं- मोबाइल फोन और एफएम पर इस तरह अपील प्रसारित करने में आम आदमी पार्टी के कितने करोड़ रुपये ख़र्च हुए होंगे? अजय वीर का यह सवाल वाकई एक जिज्ञासा पैदा करता है. बहरहाल, लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद अरविंद केजरीवाल की ओर से राजधानी दिल्ली में यह एक पहली सार्वजनिक रैली थी. भाजपा और कांग्रेस पर निशाना साधने के बहाने ही सही, इस रैली ने आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश भरने का काम किया, क्योंकि लोकसभा चुनाव में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद कार्यकर्ताओं का मनोबल गिर गया था.
मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के बाद अरविंद केजरीवाल ने शुरू में उप-राज्यपाल नजीब जंग से मुलाक़ात कर विधानसभा भंग न किए जाने की मांग की थी. उस समय उन्हें ऐसा लग रहा था कि एक बार फिर समर्थन से सरकार बन सकती है, लेकिन इससे जुड़ी ख़बरें मीडिया में आने के बाद केजरीवाल ने सरकार बनाने का अपना इरादा छोड़ दिया. उसके बाद केजरीवाल विधानसभा भंग करने की मांग को लेकर दो बार उप-राज्यपाल नजीब जंग से मिले. इतना ही नहीं, उन्होंने राष्ट्रपति और केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिलकर भी विधानसभा भंग कर चुनाव कराए जाने की सिफ़ारिश की. भारतीय जनता पार्टी की ओर से सरकार बनाने की सुगबुगाहट के बीच केजरीवाल की परेशानी थोड़ी ज़रूर बढ़ गई, लेकिन विधायकों की ख़रीद-फरोख्त का मुद्दा उछाल कर उन्होंने भाजपा के इरादों पर विराम लगा दिया. जंतर-मंतर पर भीड़ देखकर अरविंद केजरीवाल उत्साहित नज़र आए, लेकिन रैली में भीड़ जुटाने के लिए आम आदमी पार्टी ने उन सभी तरकीबों का इस्तेमाल किया, जो अमूमन दूसरी पार्टियां करती हैं. बीते 14 अगस्त को दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लागू हुए छह महीने पूरे हो गए. संवैधानिक नियमों के मुताबिक़, किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन 6 महीने के लिए ही लगाया जाता है. उसके बाद उस राज्य में नए सिरे से चुनाव कराए जाते हैं, लेकिन पूर्ण राज्य का दर्जा न होने के कारण दिल्ली में यह अवधि एक साल की हो सकती है. दिल्ली में विधानसभा भंग कर नए चुनाव कराने संबंधी अरविंद केजरीवाल की याचिका पर बीते 5 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार से पूछा कि दिल्ली में राष्ट्रपति शासन क्यों जारी है? क्या चुने हुए विधायकों का घर पर बैठना सही है?
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पूछा कि इस मामले में जनता क्यों परेशानी भुगते. कोर्ट ने इस बाबत केंद्र सरकार को पांच हफ्ते का समय दिया है, ताकि वह अपना जवाब दाख़िल कर सके. केंद्र सरकार के रुख़ से यह लगभग साफ़ हो गया है कि दिल्ली में सरकार बनने की तमाम संभावनाएं ख़त्म हो चुकी हैं और इस साल दिसंबर में यहां विधानसभा का चुनाव होना लगभग तय है. दिल्ली में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में किस पार्टी को जनादेश मिलेगा, फ़िलहाल यह कह पाना मुश्किल है. निश्चित रूप से अरविंद केजरीवाल अपने पुराने मुद्दे यानी बिजली, पानी और महंगाई के सवाल पर चुनाव मैदान में दोबारा उतरेंगे, लेकिन कांग्रेस की मदद से सरकार बनाने और 49 दिनों में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के औचित्य पर वह न स़िर्फ विपक्षी पार्टियों के निशाने पर हैं, बल्कि दिल्ली की करोड़ों जनता भी केजरीवाल के इस निर्णय से स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रही है. ऐसा सोचने वालों में आम आदमी पार्टी के आम कार्यकर्ता भी हैं. बात अगर भारतीय जनता पार्टी की करें, तो आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत न होने की वजह से सरकार न बनाने को वह राजनीतिक शुचिता के रूप में प्रचारित करेगी. वैसे, भारतीय राजनीति में जोड़-तोड़ करके सरकार बनाना कोई नई बात नहीं है. यह काम भाजपा और कांग्रेस समेत कई क्षेत्रीय दल अपनी सुविधानुसार कर चुके हैं. दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस की स्थिति में कोई ख़ास सुधार होने की उम्मीद नहीं है. वैसे, कांग्रेस नरेंद्र मोदी सरकार के दावों और जनता को राहत न मिलने के सवाल पर भाजपा को घेरने की कोशिश करेगी. इसके अलावा, कांग्रेस दिल्ली की जनता को यह समझाने की भरपूर कोशिश करेगी कि दोबारा चुनाव न हो, इसलिए उसने आम आदमी पार्टी को बिना शर्त समर्थन दिया था, लेकिन केजरीवाल ने जनता से किए गए वादे पूरे करने में स्वयं को असमर्थ पाकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. बहरहाल, दिल्ली में मौजूद इस राजनीतिक अस्थिरता का ज़िम्मेदार कौन है, इसका जवाब आगामी विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही मिलेगा.
दिसंबर में तय होगा दिल्ली का राजनीतिक भविष्य
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