देश की पहली चीनी मिल स्थापित करने का गौरव प्राप्त करने वाले राज्य बिहार में इस उद्योग की स्थिति जर्जर हो गई है. वस्तुतः भारत का प्रथम चीनी उद्योग 1840 में डच कंपनी द्वारा बेतिया राज्य के अंतर्गत स्थापित किया गया. सारण जिले के मढ़ौरा में बिहार में प्रथम चीनी मिल की स्थापना 1903 में की गई. स्वतंत्रता के समय भारत की कुल 56 चीनी मिलों में से 33 मिलें बिहारी में ही स्थापित थीं, जिससे इस प्रांत को सुगर बाउल की संज्ञा दी जाने लगी. 1948 में पूरे देश की 22.7 प्रतिशत चीनी मिलें बिहार में स्थापित थीं तथा चीनी उत्पादन मेें इसका स्थान दूसरा था.
चीनी उद्योग में लगी कुल पूंजी का 20 प्रतिशत बिहार में निवेशित था. 1959 ई. तक बिहार राज्य में भारत की 29 प्रतिशत चीनी उत्पन्न होती थी लेकिन वर्तमान समय में यह 10 प्रतिशत से भी कम है. आज राज्य में चीनी उद्योग की स्थिति बदतर हो गई है. बिहार मेें कुछ चीने मिलें रुग्ण अवस्था में हैं. जबकि कुछ का अस्तित्व ही खत्म हो गया है. निजी क्षेत्र के अधीन मात्र नौ चीनी मिलों में उत्पादन किया जा रहा है.
बिहार में निजी क्षेत्र के अधीन दस चीनी मिलों में से एक बंद पड़ी है, जबकि नौ में चीनी का उत्पदन किया जा रहा है. इस प्रकार बिहार में कहने को 28 चीनी मिलें हैं लेकिन इन्हीं नौ निजी मिलों के सहारे राज्य के किसान जीविकोपार्जन कर रहे हैं. 1950 में दशक तक बिहार की चीनी मिलों की उत्पादकाता राष्ट्रीय स्तर पर 321 टन के बराबर थी परंतु इसमें अनेक तकनीकी एंव नीतिगत कारण से ठहराव सा आ गया जबकि अन्य प्रांतों में स्थापित मिलों की उत्पादकता बढ़ती रही. 1970 से ही बिहार की चीनी मिलों में रुग्णता व्याप्त हो गई. 1991 तक गन्ने की पेराई भी घटती चली गई. 1970 में 32 लाख टन गन्ने की पेराई हुई जबकि 1991 में 21 लाख टन ही थी.
रुग्ण इकाइयों की व्यवस्था हेतु 1974 में बिहार राज्य चीनी निगम को एक सरकारी कंपनी के रूप में स्थापित किया गया. रुग्ण चीनी मिलों के राष्ट्रीयकरण के प्रथम चरण में बनमम्खो, गौटोल, चैचाय, वासलीगंज, समस्तीपुर तथा गुरास की सात चीनी मिलों का 1976 में राष्ट्रीयकरण किया गया.
1977 में पुनः लोहर तथा सकरी चीन मिल का अधिग्रहण हुआ. 1979 तथा 1980 में न्यू सिवान तथा मोतीपुर मिलों को भी राष्ट्रीयकृत कर दिया गया. इस प्रकार चीनी निगम की कुल ग्यारह चीनी मिलों के प्रबंध एवं पुनर्स्थापना के लिए उत्तरदायी है. राष्ट्रीयकरण एवं भारी व्यय के बावजूद इन मिलों में अभी भी रुग्णता है.
चीनी उद्योग की प्रमुख समस्या निम्नलिखित हैं. सर्वप्रथम अधिकतर रुग्ण इकाइयां 80-90 वर्ष पुरानी हैं तथा इनकी मशीनों की शक्ति लुप्त हो चुकी है, जिससे उनमें उत्पादन बाधित होता रहता है.
दूसरा प्रमुख कारण यह है कि बिहार का गन्ना उच्च कोटि का नहीं है, अतः प्रति टन गन्ने से रस की उपलब्धि कम होने के कारण उत्पादन लागत अधिक होती है. तीसरा कारण यह है कि बिहार में गन्ने की कृषि का मौसम सीमित समय का होता है, अतः अधिकांश कारखाने मात्र 4 से 6 महीने तक कार्यरत होते हैं. बाकी के महीनों में बंद रहने के कारण उत्पादन लागत अधिक होती है. चौथा कारण यह है कि यहां गन्ने के उत्पाद पर आधारित पूरक उद्योगों का विकास नहीं हुआ है. उप उत्पाद आधरित पूरक उद्योगों का विकास नहीं हुआ है. उप उत्पाद आधारित उद्योगों में काजग उद्योग तथा अल्कोहल उद्योग का विकास किया जा सकता है. इससे उत्पादन लागत कम होती है.
पांचवां प्रमुख कारक यह है कि कृषकों को समय पर गन्ने का मूल्य न मिलने होने के कारण कृषक चीनी की अपेक्षा गुड़ उत्पादन को प्रश्रय देते हैं. सेन कमीशन तथा टैरिफ कमीशन ने बिहार को चीनी उत्पादन हेतु अत्यधिक उपयुक्त बताया था परंतु बिहार में 1949 से गन्ना नियंत्रण के कारण चीनी मिल के विकास को बड़ा धक्का लगा. 1974-75 में चीनी नियंत्रण कानून में आंशिक छूट दी गई तथा 1986-87 में चीनी नियंत्रण कानून को अधिक उदार बनाया गया फिर भी इससे राज्य में चीनी मिल को विकास को प्रोत्साहन नहीं मिला. आज स्थिति यह है कि चीनी उद्योग पर राज्य के पांच लाख गन्ना किसानों और 50 हजार मजदूरों की आजीविका टिकी है लेकिन इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है.