अब देश को सीधे रास्ते पर चलना ही चाहिए. आखिर 70 सालों से यह देश गलत रास्ते पर चल रहा था. इन दिनों देश की जनता के दिमाग का पैमाना सोशल मीडिया है. इसे प्रधानमंत्री जी ने देश की मिजाज जानने का एक बैरोमीटर बना रखा है. दूसरी तरफ संघ प्रमुख मोहन भागवत जी के बयान हैं. देश में किस तरह के सुधार होने चाहिए, किस तरह के कानून बनने चाहिए, इस पर वे भी स्पष्ट और बेबाक राय रखते हैं. तीसरा सवाल तो इस समय देश में प्रदर्शनों के रूप में सामने आ ही रहा है. ब्राह्मण समाज, राजपूत समाज जैसे उच्च वर्ग के लोग बहुत मजबूती के साथ अपनी बात रख रहे हैं और कह रहे हैं कि अगर सरकार ने नहीं माना तो उसे इस चुनाव में नुकसान होगा. हमारे टेलीविजन के साथी इन सारी चीजों को बहुत शिद्दत के साथ आगे बढ़ा रहे हैं.
आज मैं इन मांगों का विश्लेषण कर रहा था. विश्लेषण करते हुए मैंने देखा कि देश के लिए उठ रहे सवालों में एक भी सवाल ऐसा नहीं है, जो इस देश के अल्पसंख्यकों से जुड़ा हो या उनके तकलीफ और दर्द को एड्रेस करता हो. इसलिए पहली नजर में देश में 18 प्रतिशत मुसलमान इस देश के सोचने-समझने वाले लोगों की सोच के दायरे से बाहर हैं या कहें कि उनका अस्तित्व इस समय देश में माना ही नहीं जा रहा है. देश की कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने एजेंडे में 18 प्रतिशत लोगों को किसी प्रकार की कोई तरजीह नहीं दे रही है. इसलिए ये 18 प्रतिशत को हम एक किनारे छोड़ देते हैं.
पिछले दिनों देश में दलित और आदिवासी समाज को लेकर बने कानून के खिलाफ बहुत बड़े-बड़े आंदोलन हुए, हिंसा हुई, भारत बंद हुआ और उत्तर भारत के राज्यों में सवर्ण समाज के लोगों ने कहा कि अगर दलितों के हित में बने कानून में संशोधन नहीं किया गया, तो उनका वोट सत्तारूढ़ पार्टी को कितना जाएगा, नहीं कह सकते. नतीजे के तौर पर जो जुलूस निकले, उनमें भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुए लोग काफी बड़ी संख्या में शामिल हुए और विधायकों ने इसका भरपूर समर्थन किया. कुछ सांसदों ने भी दलितों के पक्ष में या उनके हितों की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों को डायल्यूट करने की मांग का पूरजोर समर्थन किया.
मोटे तौर पर देश में दलितों की संख्या 22 प्रतिशत मानी जाती है. यह मांग भी बहुत दिनों से चल रही है कि दलितों के आरक्षण को अब समाप्त किया जाए, क्योंकि आरक्षण का लाभ जितना दलित समाज को मिलना था उतना मिल चुका. अब उन्हें सामान्य वर्ग की तरह देश में अपने हिस्से मांगने चाहिए. उन्हें पढ़ने की सुविधाएं, हॉस्टल की सुविधाएं जरूर दी जाएं, पर उन्हें नौकरियों में आरक्षण बिल्कुल न दिया जाए. सोशल मीडिया बताता है कि देश के अधिकांश लोग इस मांग के समर्थन में खड़े हैं. इसका मतलब 22 प्रतिशत भी इस देश के लिए कोई महत्व नहीं रखते और वो भी 18 प्रतिशत की तरह हाशिए पर खड़े दिखाई दे सकते हैं.
बिहार चुनाव में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण समाप्त करने के पक्ष में बयान दिया था. शायद यह उनका प्रयोग था कि अगर इस बयान के बाद बिहार में भारतीय जनता पार्टी जीत जाती है, तो मानेंगे कि यह सैंपल सर्वे है और देश के लोग अब आरक्षण के खिलाफ हैं. अभी आरक्षण से सीधा मतलब पिछड़े लोगों की आरक्षण से लिया जाता है, जिन्हें 27 प्रतिशत का आरक्षण मिला हुआ है. बाकी लोग भी अब पिछड़ा बन कर आरक्षण की मांग कर रहे हैं और देश की कई जगहों पर ऐसे आंदोलन चल रहे हैं. संघ नहीं चाहता कि आंदोलन बढ़े और इसीलिए भारतीय जनता पार्टी में आम राय है कि आरक्षण समाप्त होना चाहिए. हालांकि बिहार में हुए नुकसान के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह बार-बार कह रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में रहते कभी भी आरक्षण समाप्त नहीं होगा, न भारतीय जनता पार्टी किसी को आरक्षण समाप्त करने देगी.
पर संघ प्रमुख की बात को गंभीर माना जाए या अमित शाह की, इसका फैसला तो भारतीय जनता पार्टी के लोगों को और देश के लोगों को करना है. सवर्ण समाज के बच्चे सारे देश में आरक्षण के खिलाफ आंदोलन चलाए हुए हैं और उनका मानना है कि उनका हक आरक्षण की वजह से पिछड़े लोग ले जा रहे हैं. जिनके नंबर कम आते हैं, जिनमें दिमाग कम है, जिनमें कल्पनाशीलता नहीं है, जो अच्छे वैज्ञानिक, अच्छे डॉक्टर नहीं हैं, पर आरक्षण की वजह से आगे चले जाते हैं. अब अगर हम थोड़ा गणित लगाएं तो गणित कहता है कि 18 प्रतिशत मुसलमान, 22 प्रतिशत दलित और 52 प्रतिशत पिछड़े भारतीय सभ्य समाज में अगर शामिल नहीं माने जाते, तो फिर ये सभ्य समाज, ये सरकार बचे हुए आठ प्रतिशत के लिए ही है. इसमें 92 प्रतिशत लोगों की जगह नहीं है, सिर्फ आठ प्रतिशत लोगों की जगह है.
क्या सोशल मीडिया पर ऐसी मांग करने वाले महसूस कर पाते हैं कि अगर 92 प्रतिशत लोग इस सभ्य समाज का या सत्ता चलाने वाले तंत्र की सीमा से बाहर चले जाएंगे और आठ प्रतिशत के हाथ में सारी सत्ता आ जाएगी, तो देश का नक्शा क्या होगा? देश क्या बहुत शांतिपूर्वक रह पाएगा? देश में क्या अमन चैन हो जाएगा? देश में क्या विकास होगा? देश में क्या सुख-सुविधा आ जाएगी? शायद ऐसे लोग यही मानते हैं. इसीलिए वो कहते हैं कि आरक्षण खत्म करो, चाहे वो पिछड़ों का हो या दलितों का हो. मुसलमानों को तो कहीं गिना ही नहीं जाता.
ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि सामाजिक सवालों पर ज्यादातर लोग गंभीर नजर नहीं आते. हम देश की भिन्नताओं को नहीं जानते, हम देश के अंतरविरोधों को नहीं जानते, हम देश के तनावों को नहीं जानते और जिन सामाजिक अंतर्द्वंद्व की वजह से समस्याएं पैदा होती हैं, उन्हें हम नहीं जानते. इसीलिए हम आसानी से कुछ भी बोल देते है, मान लेते हैं. हम भूल जाते हैं कि हमारे बयान उन वर्गों के बुद्धिजीवियों, नौजवानों, महिलाओं को कितना दुख पहुंचाते होंगे, जिन्हें हम सामाजिक-सरकारी मशीनरी से बाहर करने की मांग कर रहे हैं. आंकड़ों में कुछ हेरफेर हो सकता है. लेकिन अंदाजन देश में 18 प्रतिशत मुसलमान, 22 प्रतिशत दलित और 52 प्रतिशत पिछड़े हैं. तब जिन लोगों को हम कोस रहे हैं, जिन्हें हम कम दिमाग का मानते हैं, उनके मन में हम कैसी आग पैदा कर रहे हैं, कैसा गुस्सा पैदाकर रहे हैं. तुर्रा यह कि हम इनमें से बहुतों को अर्बन नक्सलवादी, समाज विरोधी, आतंकवादी, देशद्रोही बता देते हैं. हम थोड़े दिनों में देखेंगे कि सोशल मीडिया इस पर भी कोई कमाल की बात लेकर सामने आएगा.
यहां सवाल स्वयं उन लोगों का है जो इस समय राजनीतिक पार्टियां चला रहे हैं या जो समाज का दिशा-निर्देश कर रहे हैं या जो सरकार चला रहे हैं या सरकार को नियंत्रित करने वाली संस्थाओं को चला रहे हैं. उन्हें जिस गंभीरता के साथ देश के बारे में सोचना चाहिए, वो क्यों नहीं सोचते? यह मेरी समझ में नहीं आता. ओड़ीशा हमारे देश का हिस्सा है क्या? क्या किसी सरकार ने ओड़ीशा को लेकर कोई योजना बनाई है? आंध्रा और तेलंगाना इधर हमारी नजर में आए हैं. इसके पहले तो इनकी भी हालत ओड़ीशा जैसी अनदेखी वाली थी. केरल एक ऐसा प्रदेश, जिसे दिल्ली ने कभी ध्यान देने योग्य माना ही नहीं. उत्तर पूर्वी राज्य इतने सालों से अशांत हैं, समस्याओं से ग्रस्त हैं, उस दर्द को हमने पहचाना ही नहीं. उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोग आसानी से चीन से टहल कर आ जाते हैं, हमारे देश की सड़कों पर घूमने में उन्हें परेशानी होती है.
जो लोग अरुणाचल की सीमा से चीन जाते हैं, वो लौटकर बताते हैं कि वहां की सड़कें, वहां का इन्फ्रास्ट्रक्चर, वहां की दुकानें, वहां के लोग किस तरह के हैं और यहां क्या हाल है. अब वहां के लोगों के मन में भारत के प्रति प्यार और सम्मान बढ़ेगा या चीन के प्रति. ये सवाल सत्ता चलाने वालों के दिमाग में नहीं आते. मैं कश्मीर की तो बात ही नहीं करता, क्योंकि कश्मीर एक ऐसा मुद्दा है, जिसे कोई सरकार हल करना ही नहीं चाहती. देश में एक माहौल बन गया है कि कश्मीर में रहने वाला हर आदमी देशद्रोही है और जो भी देशद्रोही है उसे गोली मार देनी चाहिए. कश्मीर में दो लाख, पांच लाख, दस लाख लोग भी मारे जाएं, तो भारत के रहने वाले सभ्य समाज के लोगों पर कोई असर पड़ेगा, ऐसा मुझे नहीं लगता.
अंत में सिर्फ इतना ही कहना है कि देश के बारे में सोचिए, देश से ज्यादा देश के लोगों के बारे में सोचिए. देश का मतलब देश के लोग हैं, देश के नौजवान हैं, विभिन्न सामाजिक समूह हैं, गरीब हैं, वंचित हैं, पिछड़े हैं, अल्पसंख्यक हैं, दलित हैं, सवर्ण हैं. अंग्रेजी का एक शब्द आजकल बहुत प्रचलित हुआ है- नैरेटिव. इसलिए नैरेटिव ऐसा रखिए जो देश में मनभिन्नता और मतभिन्नता ज्यादा न बढ़ाए, बल्कि देश के लोगों को सचमुच एक राष्ट्र, महानराष्ट्र की कल्पना के साथ जोड़े. नेतृत्व करने का जिम्मा राजनीतिक दलों के पास है, खासकर सत्तारूढ़ लोगों के पास. वो इसमें कितना योगदान देते हैं, उस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा. अच्छा होता इन सारे चीजों के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग सारे देश में फैलते, देश की विपदा में, देश के विकास कार्यों में, स्वच्छता अभियान जैसे कामों में संघ पूरे तौर पर जुट जाता और देश के लोगों के लिए एक नया उदाहरण प्रस्तुत करता.