ddदिल्ली आजादी के जश्‍न में डूबी थी, वहीं अहमदाबाद से लेकर उना, दंतेवाड़ा से लेकर बस्तर तक दलित व आदिवासी आंदोलित थे. ‘आजादी कूच यात्रा’ के दौरान ‘जय भीम, दलित-मुस्लिम, भाई-भाई’ के नारे एक साथ लगाए जा रहे थे. नीले झंडे के तले दलित-मुस्लिम समाज एकजुट दिख रहा था. इस सियासी मेल से गुजरात के सियासतदां भी खौफजदा हैं. असल में गाय के नाम पर हुई राजनीति ने यह सामाजिक गठजोड़ बनाया है. 5 अगस्त से अहमदाबाद से शुरू हुई दलित अस्मिता यात्रा 15 अगस्त को उना में समाप्त हुर्ई. वहीं, माओवादियों केगढ़ में तिरंगा फहराने का प्रण लेकर 180 किलोमीटर की पदयात्रा पर निकलीं सोनी सोरी ने भी जोशो-खरोश के साथ आजादी के दिन गोमपाड़ा में तिरंगा फहराया. यहां माओवादी कई वर्षों से सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में काला झंडा फहरा रहे थे. दरअसल यह तिरंगा पदयात्रा एक प्रतीकात्मक संदेश था, जिसके जरिए आदिवासियों के लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली, पुलिसिया दमन रोकने, संसाधनों की लूट, बस्तर में अमन-चैन की बहाली का प्रयास किया गया था. साथ ही यह माओवादियों के लिए एक छिपा संदेश भी था कि अब लाल झंडे को तिरंगे की संप्रभुता स्वीकार करनी होगी. सूरी कहती हैं कि ऐसा नहीं होगा कि वे लोग मेरा समर्थन करें और तिरंगे का नहीं. उन्हें तिरंगे का भी सम्मान करना होगा.

उना प्रकरण की बात करें तो यह दलित युवकों पर नहीं, बल्कि दलित अस्मिता पर हमला था. इसलिए यह गौरक्षकों द्वारा दलितों की पिटाई तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि देखते-देखते इसका विस्तार दलित चेतना, दलित स्वाभिमान व दलित अस्मिता ने ले लिया. गुजरात में गौरक्षकों द्वारा दलितों पर हो रहे उत्पीड़न के खिलाफ यह वर्ग पहले से ही आंदोलित था, उना प्रकरण ने इस दलित चेतना को चिंगारी दिखा दी. दलितों के नायक के रूप में एक नाम उभरा, जिग्नेश मेवानी, जिसकी एक हुंकार पर हजारों दलित अहमदाबाद से लेकर उना की गलियों में उमड़ पड़े. दलित-मुस्लिम चेतना से घबराई केंद्र सरकार ने पहले ही गुजरात के मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल को बाहर का रास्ता दिखा दिया था. इसके बावजूद दलित अस्मिता यात्रा पूरी धमक के साथ गुजरात के राजपथ से निकली और इसकी गूंज गुजरात विधानसभा के गलियारों में भी सुनाई दी.

वहीं, कुछ राजनीतिक पार्टियां दलित अस्मिता के तमाम नारों के बीच ‘हिंदू-मुस्लिम, भाई-भाई व गुजरात मॉडल पर हल्ला बोल’ के सियासी मायने भी खोजने में जुटी हैं. आजादी कूच यात्रा में शरीक बिहार के तरारी विधानसभा के सीपीआई (एमएल) विधायक सुदामा प्रसाद बताते हैं कि गुजरात मॉडल में दलितों को कुछ नहीं मिला है. यहां गौरक्षक पुलिस संरक्षण में दलितों की पिटाई कर रहे हैं. हालत ये है कि दलितों के खिलाफ तमाम पार्टियां एकजुट हो गई हैं. दलितों की मुक्ति के बाद ही सच्ची आजादी मिलेगी. यह आंदोलन दलितों, पिछड़ों व अकलियतों को एक संदेश है कि वे एकजुट होकर ही सत्ता को चुनौती दे सकते हैं. उना दलित अत्याचार लड़त समिति के कन्वेनर जिग्नेश कहते हैं कि आरएसएस की हिंदुत्व वाली विचारधारा में दलित कहीं फिट नहीं होते हैं. हिंदुत्व की विचारधारा ही पूरी तरह से दलितों के खिलाफ है. राजनीतिक दल सिर्फ दलितों का इस्तेमाल सत्ता पाने के लिए करते हैं. भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने दलितों को ठगा है. कुछ हफ्ते पहले कांग्रेस शासित कर्नाटक में दलितों को पीटा गया. भाजपा शासित गुजरात और महाराष्ट्र में भी दलितों के साथ यही हो रहा है. जिस गुजरात मॉडल की बात मोदी अक्सर करते हैं, उसकी बुनियाद ही एंटी पीपुल व एंटी पूअर है. इस मॉडल में दलितों के लिए शोषण व अत्याचार के अलावा कुछ नहीं है. एक समय था जब दलित हिंदुवादी ताकतों के हाथों में खेल रहे थे, लेकिन इनकी सच्चाई सामने आने के बाद अब वह दौर बीते समय की बात हो गई है. कोई बताए सबका साथ, सबका विकास के नारे में दलित कहां हैं?

जश्‍न-ए-आजादी से इतर हजारों दलितों ने उना में प्रण लिया कि अब वे समाज के लिए गंदा काम यानी मैला ढोना, गटर साफ करना या मृत पशुओं की खाल नहीं उतारेंगे. अहमदाबाद से शुरू हुई आजादी कूच यात्रा जहां-जहां से गुजरी, वहां-वहां दलितों ने हाथ उठाकर यह संकल्प दोहराया. जिग्नेश बताते हैं कि यह लड़ाई केवल सोशल या राजनीतिक नहीं है, बल्कि लोगों के मन में बरसों से जमी गंदगी, मैल को बाहर निकालना है. इसलिए उनको गटर में उतरने या मैला ढोने से मना किया जा रहा है. इसके अलावा हर दलित परिवार को वैकल्पिक रोजगार के रूप में पांच एकड़ जमीन देने की भी मांग सरकार से की गई है. साथ ही यह अल्टीमेटम भी दिया गया है कि अगर एक माह में उनकी मांग नहीं मानी गई, तो देशभर में रेल रोको आंदोलन चलाया जाएगा. जिग्नेश कहते हैं कि अगर सरकार अंबानी को जमीन दे सकती है, तो फिर दलितों को क्यों नहीं? जिनके पास जमीन है, उनके पास ही ताकत है. यह बात खूब प्रचारित की गई कि गुजरात के सभी जिलों में दलितों को हजारों एकड़ जमीन का आवंटन किया गया. जिग्नेश कहते हैं कि यह हुआ, लेकिन सिर्फ कागजों पर. दलितों को सिर्फ कागज का एक टुकड़ा थमा दिया गया और कहा गया कि उक्त गांव की छह बीघा जमीन आपकी है. न तो उन्हें जमीन पर कब्जा दिलाया गया और न ही दबंगों ने दलितों को उस गांव में घुसने दिया.

दलित उत्पीड़न की बात करें तो गुजरात में मोदी सरकार के दौरान (2003-2014) दलितों पर अत्याचार के 14,500 मामले दर्ज किए गए. 2004 में 34 दलित महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएं सामने आईं. 2005 से 2015 के बीच दलितों को 55 गांवों से जबरदस्ती बाहर भगा दिया गया, जहां वे वर्षों से रह रहे थे. प्रधानमंत्री मोदी व आनंदी बेन दोनों मेहसाणा जिले से हैं. इसी जिले में तीन महीनों के दौरान चार गांवों के लोगों ने दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर उन्हें उनके पुश्तैनी घर से भगा दिया.

प्रधानमंत्री मोदी के ‘मुझे मारो, दलितों को नहीं’ बयान के बाद भी दलितों पर गौरक्षकों के हमले थमे नहीं हैं. आजादी कूच रैली से घर लौट रहे दलितों पर सुनियोजित तरीके से जगह-जगह पत्थरों व रॉड से हमले किए गए. उना, सामतेर व आस-पास के इलाकों में सवर्ण समुदाय के दबंग लोगों ने दलितों को निशाना बनाया. इन इलाकों में दलितों पर हो रहे हमले के कारण वे कई दिनों तक अपने घर भी नहीं लौट सके. जिग्नेश कहते हैं कि अगर प्रधानमंत्री अमेरिका के हाउस ऑफ कॉमन्स में बाबा साहब की बात कर सकते हैं तो फिर देश में दलितों की रक्षा के लिए कुछ क्यों नहीं करते? गूंगी-बहरी सत्ता तक आवाज पहुंचाने के लिए दलित युवाओं को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. क्या एक समाज के लिए इससे बुरा कुछ और हो सकता है कि मात्र अपनी लोकतांत्रिक मांग सत्ता तक पहुंचाने के लिए कोई सुसाइड करने को मजबूर हो?

पेरियार ने आजादी के बाद कहा था, आजाद तो सिर्फ 3 प्रतिशत ब्राह्मण हुए हैं, 97 प्रतिशत गैर ब्राह्मण तो आज भी गुलाम हैं, जो सामाजिक अपमान झेल रहे हैं. देश के राजनेताओं को भी दलितों की सियासी ताकत का अहसास है. यही कारण है कि जब दलितों में राजनीतिक चेतना जागी, तो फिर उत्तरप्रदेश व बिहार में सियासी समीकरण बदलते देर नहीं लगे. अब वाइब्रेंट गुजरात में भी दलित चेतना ने सिर उठाया है. नेताओं को अहसास है कि अगर दलितों की मांगों को लंबे समय तक अनसुना किया गया, तो इसकेगंभीर राजनीतिक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं.

वहीं, आदिवासी नेता सोनी सोरी की ‘अगस्त क्रांति-तिरंगा यात्रा’ का समापन गोमपाड़ा में तिरंगा फहराकर हुआ. गोमपाड़ा वही जगह है, जिसके बारे में पुलिस ने यह बात फैला रखी है कि यहां केवल माओवादी रहते हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि इस तर्क के बाद पुलिस आसानी से आदिवासियों को टारगेट करती रही है. इसी गांव की आदिवासी महिला मड़कम हिड़मे को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था. इस पदयात्रा को 24 संगठनों का समर्थन मिला था. दंतेवाड़ा से गोमपाड़ा तक 180 किलोमीटर की यात्रा के दौरान दर्जन भर से अधिक गांवों में काफिला रुका. इस दौरान हर गांव में ग्रामीणों को तिरंगा, संविधान और खुली हवा में सांस लेने का मतलब समझाया गया.

सोनी के साथ पदयात्रा में आदिवासी महिला हुर्रे का बेटा भी शामिल था. हुर्रे के पति को पुलिस ने नक्सली बताकर जेल में बंद कर दिया था. अपने पति को बचाने के लिए हुर्रे पुलिस अधिकारियों से गुहार लगाने के लिए जेल के गेट तक गई. पुलिस ने उसे बट से मारा था, जिसके बाद उसकी मौत हो गई थी. यह अनाथ बच्चा अब सभी आदिवासियों व बस्तर का दुलारा बन गया है और पदयात्रा का केंद्रबिंदु भी.

जगदलपुर लीगल एड ग्रुप के अनुसार दंतेवाड़ा में निर्दोष आदिवासियों को किसी भी मामले में फंसाकर जेल में डाल दिया जाता है. 2013 में 96 प्रतिशत ऐसे मामलों में कोर्ट ने सभी निर्दोष आदिवासियों को रिहा कर दिया था. सोनी ने जोर देकर कहा कि नक्सल उन्मूलन के नाम पर आदिवासियों पर हिंसा बर्दाश्त नहीं की जाएगी. गोमपाड़ा की उस आदिवासी हिड़मे का क्या दोष था जिसकी शादी के सात दिन बाद ही उसके साथ अनाचार कर सुरक्षा कर्मियों ने हत्या कर दी? पूरा बस्तर जल रहा है और इसके लिए सरकार दोषी है. वे आगे कहती हैं कि सरकार आदिवासियों को नक्सली कहकर मार रही है. महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है. इसका विरोध करने व आदिवासियों को अधिकार दिलाने के लिए यह पदयात्रा की जा रही है. यात्रा के दौरान सोनी को हर दिन दंतेवाड़ा की अदालत में पेश होना पड़ता था. वे तकरीबन हर दिन दंतेवाड़ा अदालत जाती थीं और फिर लौटकर पदयात्रा में शामिल होती थीं.

पदयात्रा के दौरान पुलिस ने एक ऑडियो टेप जारी किया था, जिसमें एक नक्सली कहता है कि भारत के तिरंगे को हम लाल सलाम कहते हैं. इस टेप के आधार पर ही पुलिस अधिकारी यह दावा कर रहे हैं कि इस तिरंगा यात्रा को माओवादियों का समर्थन हासिल था, नहीं तो माओवादियों के घर में जाकर तिरंगा फहराना इतना आसान नहीं था. हालांकि इस ऑडियो टेप को पदयात्रा में शामिल लोग संदिग्ध बता रहे हैं. यात्रा के संयोजक संकेत ठाकुर कहते हैं कि अब तक नक्सली खुद अपने माध्यम से मीडिया को संदेश दिया करते थे, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि पुलिस खुद नक्सलियों का संदेशवाहक बन गई है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here