भारतीय वन सेवा अधिकारी संजीव चतुर्वेदी जहां जाते हैं, परेशानियां उनके पीछे-पीछे चली आती हैं. हरियाणा की तत्कालीन हुड्डा सरकार के दौरान उनके द्वारा किए गए भ्रष्टाचार की शिकायत की गई थी. इसके बाद वह दिल्ली आ गए थे. यहां आने के बाद ऐसा लगा था कि अब उनके जीवन में शांति आ जाएगी, लेकिन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के प्रमुख सतर्कता अधिकारी के रूप में उनका कार्यकाल तूफानी रहा. इसके पहले एम्स में कभी स्थानांतरण विवादास्पद नहीं हुए थे और न ही सुर्खियां बने थे. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की कमान बदलने के बाद एम्स में मुख्य सतर्कता अधिकारी की पदस्थापना एक बार फिर विवादों में पड़ गई है. विश्वास मेहता के अपने गृह राज्य लौट जाने के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बड़ी खामोशी के साथ पदभार संयुक्त सचिव मनोज जलानी को सौंप दिया. दुर्भाग्यवश इसकी सूचना केंद्रीय सूचना आयुक्त को भी नहीं दी गई. आश्चर्यजनक रूप से इसी आधार पर चतुर्वेदी को पद से हटाया गया था कि यूपीए सरकार के दौरान उनकी पदस्थापना केंद्रीय सूचना आयुक्त की स्वीकृति के बगैर कर दी गई थी. साफ़ है कि पदस्थापना की प्रक्रिया मंत्रालय या मंत्री की इच्छा पर निर्भर है या एक मनमाना फैसला है. वह जिसे चाहते हैं, उसे पद पर रखते हैं. फिलहाल लगता है कि चतुर्वेदी के कई शुभचिंतक मंत्रालय में हैं.
ज़िम्मेदारी का बोझ
ओडिशा के ब्यूरोक्रेटिक ढांचे में बहुत से छेद हो गए हैं. ओडिशा कैडर के 37 वरिष्ठ आईएएस अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं और आईएएस अधिकारियों के कुल स्वीकृत 226 पदों में से 50 पद रिक्त हैं. जो अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर नहीं हैं, वे एक साथ कई महकमों की ज़िम्मेदारी निभाने को मजबूर हैं और ज़िम्मेदारियों के निर्वहन में संघर्ष कर रहे हैं. वरिष्ठ आईएएस अधिकारी आरके शर्मा के कंधों पर वन एवं श्रम विभाग की ज़िम्मेदारी है. विकास आयुक्त एपी पद्ही मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद पर भी हैं. कृषि सचिव राजेश वर्मा सहकारिता विभाग भी देख रहे हैं. ओडिशा में आईएएस अधिकारियों की कमी होना कोई नई या अनोखी बात नहीं है. देश के कई अन्य राज्य भी इस समस्या से जूझ रहे हैं. पटनायक सरकार ने पिछले पांच सालों में 50 से अधिक राज्य सेवा अधिकारियों को आईएएस के पद पर प्रोन्नत किया है. इससे साफ़ हो जाता है कि प्रशासनिक समस्याओं का सामना करने के लिए राज्य सरकार के पास आवश्यक अधिकारियों की बेहद कमी है. बेशक, किसी न किसी को राज्य सरकार से यह पूछना चाहिए कि इन रिक्त पदों को भरने के लिए वह आवश्यक क़दम तेजी से क्यों नहीं उठा रही है.
बाबुओं को आराम नहीं
नौकरशाही को नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा प्रशासनिक स्तर पर किए गए परिवर्तनों का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. समय की पाबंदी और पारदर्शिता के साथ देश भर के नौकरशाह अच्छे दिनों के सही मतलब की तलाश में जुटे हुए हैं. राजधानी दिल्ली में नौकरशाह अब लंबे समय तक और सप्ताहांत में भी काम करने के आदी हो गए हैं. राज्यों में काम करने वाले अधिकारियों की भी कार्यप्रणाली में व्यापक बदलाव आ रहा है. जाहिर तौर पर केंद्र सरकार सरकारी कार्यालयों को छह दिन खोलने के मसले पर विचार कर रही है. उनका डर वास्तविक है, क्योंकि इस तरह का मॉडल गुजरात में पहले से ही कार्य कर रहा है. मोदी सरकार गुजरात प्रशासन के काम करने के कई तरीकों को केंद्र में लागू कर चुकी है. पांच दिवसीय कार्य सप्ताह की शुरुआत राजीव गांधी ने की थी और नौकरशाह इसके आदी हो चुके थे. सूत्रों के अनुसार, प्रधानमंत्री कार्यालय और वरिष्ठ नौकरशाह में पहले से ही कॉरपोरेट घंटे (और दिन) के आधार पर काम कर रहे हैं. इस नई कार्य संस्कृति, जिसमें नौकरशाहों को सप्ताह में छह दिन काम करना है, की औपचारिक घोषणा शीघ्र की जाएगी.
दिल्ली का बाबू : दयनीय सतर्कता
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