व्यापार करना आसान नहीं है. कोई भी विदेशी निवेशक सरकार के रवैये को लेकर उत्साहित नहीं है. वे लोग प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व से उत्साहित हैं, उनकी बातों और सपनों को उम्मीद के साथ देखते हैं, लेकिन जब बात व्यापार करने से जुड़ती है, तो वे कहते हैं कि सरकार या तो बहुत धीरे-धीरे काम कर रही है या बिल्कुल नहीं कर रही है. व्यापार सरकार की मंशा पर निर्भर नहीं करता. हर किसी का इरादा अच्छा है, लेकिन स़िर्फ इससे काम नहीं बनता. स्थानीय व्यवसायी भारतीय प्रथाओं के अभ्यस्त हैं, लेकिन विदेशी उन्हें पसंद नहीं करते.
संसद का सत्र शुरू हो चुका है, लेकिन राजनीतिक मोर्चे पर कोई वास्तविक हलचल नहीं दिख रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दिनों फ्रांस, जर्मनी एवं कनाडा के दौरे पर थे. कई लोग हैं, जो यह कहकर मज़ाक उड़ा रहे हैं कि वह प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि विदेश मंत्री के तौर पर काम कर रहे हैं. यह सही नहीं है. पिछले प्रधानमंत्रियों ने भी महत्वपूर्ण देशों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए विदेश यात्राएं की हैं. मोदी अभी नए हैं और अपना काम कर रहे हैं. वह इन देशों के साथ व्यक्तिगत संबंध विकसित करने के लिए बहुत उत्सुक हैं और मेरे हिसाब से वह सही कर रहे हैं. यह पूरी तरह से उचित है. हालांकि, चिंता की बात अलग है. हम फ्रांस से वायुसेना के लिए विमानों की खरीद के लिए तैयार हैं, राफेल विमान. खैर, यह सब खरीदना सरकार का अधिकार है. लेकिन इस बीच रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने एक साक्षात्कार दिया है, जो चिंताजनक है. उन्होंने कहा कि यह सब प्रक्रिया समय की बर्बादी है और हमें स्टेट टू स्टेट स्तर पर उपकरणों की खरीद करनी चाहिए. इसका मतलब है कि वह जो कह रहे हैं, उससे बोफोर्स मामले में राजीव गांधी के क़दम का समर्थन कर रहे हैं. राजीव गांधी ने स्वीडेन के प्रधानमंत्री से बात करके कहा था कि सभी बिचौलियों को हटाकर स्वीडिश सरकार के साथ सीधे सौदा होना चाहिए. फिर उसके बाद क्या हुआ, हर कोई जानता है. वहां पैसे का बहुत बड़ा खेल हुआ.
मैं नहीं समझता कि राफेल खरीद को लेकर यूपीए-2 पर आरोप लगाते हुए पर्रिकर ने तथ्यों का अध्ययन किया है या वह बहुत उत्साह में आकर ऐसा बोल गए और अपने प्रधानमंत्री की सराहना करने लगे. यह गंभीर बात है. ये ऐसे मामले हैं, जिनमें हज़ारों करोड़ लगे हुए हैं. एयरक्राफ्ट की गुणवत्ता पर किसी मतभेद की गुंजाइश हो ही नहीं सकती. वायुसेना के अधिकारी बेहतर समझ सकते हैं कि क्या अच्छा है, क्या अच्छा नहीं है और देश के लिए बेहतर क्या है. लेकिन, वाणिज्यिक मसला भी देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. यहां तक कि जब बोफोर्स को लेकर सवाल उठे, तब भी कांग्रेस ने कहा था कि बोफोर्स सबसे अच्छी तोप है. कोई भी शख्स तोप या एयरक्राफ्ट के तकनीकी गुणों को चुनौती नहीं दे रहा है. सवाल यह है कि असली क़ीमत क्या है और कितना हम भुगतान कर रहे हैं. इसके बीच क्या संतुलन है? और, यह दु:खद है कि मनोहर पर्रिकर इस रहस्य को एक स्थापित प्रक्रिया बनाने की कोशिश कर रहे हैं. राजीव गांधी द्वारा लगाया गया वह प्रतिबंध कि सौदे में बिचौलिए नहीं होने चाहिए, हटाया जाना चाहिए. यह किसी भी अन्य खरीद की तरह एक रक्षा उपकरण है.
क्या मनोहर पर्रिकर देश में वही परंपरा शुरू करना चाहते हैं, जो ईमानदार रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने बंद कर दी थी? नतीजा क्या हुआ था? खरीद रुक गई थी. यह सशस्त्र बलों के लिए अच्छा नहीं है. जब आपको उपकरण की ज़रूरत है, तो निर्णय करना चाहिए, लेकिन निर्णय निष्पक्ष, पारदर्शी और उचित तरीके से किया जाना चाहिए.अब मनोहर पर्रिकर क्या सुझाव दे रहे हैं? वह मानो यह सोच रहे हैं कि वे लोग पांच साल के लिए निर्वाचित हुए हैं, तो अब राजा की तरह हो गए हैं और किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं.
जिस किसी के पास भी यह उपकरण है, उन्हें पारदर्शी, स्पष्ट रूप से, खुले तौर पर प्रस्ताव प्रस्तुत करने दिया जाए और उन्हें शर्त बताई जाए. वायुसेना को ट्रायल लेने दें, उसे जो चाहिए, उसका चयन करने दें. मूल्य के लिए सरकार को सौदा करने दें, मोल-भाव करने दें और, अगर कोई बिचौलिया कमीशन लेता है, तो उसे दें. बिचौलिया उस पर टैक्स दे. अगर वह कमीशन विदेश में लेता है, तो उसे वह पैसा रिजर्व बैंक के ज़रिये देश में लाने दें. व्यापार करने का यही निष्पक्ष और पारदर्शी तरीका है. दुर्भाग्य से राजीव गांधी के समय में बोफोर्स मुद्दे पर शुरू हुई चीजों की वजह से भारत दुनिया में अपनी प्रतिष्ठा खो चुका है. शस्त्र बाज़ार बहुत संवेदनशील है. पूरी दुनिया में एक, दो या पांच फीसद कमीशन बिचौलिए को देने की स्थापित प्रथा है. ऐसे कई बनाना रिपब्लिक हैं, जहां कोई स्थापित प्रक्रिया नहीं है, वहां मोल-भाव होता है और 10 से 15 फीसद तक उस देश के प्रधानमंत्री की जेब में चला जाता है. बोफोर्स मामले में भारत की छवि ऐसी ही बनी थी. किसे पैसा मिला, हम नहीं जानते, लेकिन शस्त्र बाज़ार यह जान गया कि भारत एक ऐसा देश है, जिसे मूर्ख बनाया जा सकता है. पांच रुपये का सामान भी अधिक में बेचा जा सकता है और बाकी रकम हजम की जा सकती है.
क्या मनोहर पर्रिकर देश में वही परंपरा शुरू करना चाहते हैं, जो ईमानदार रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने बंद कर दी थी? नतीजा क्या हुआ था? खरीद रुक गई थी. यह सशस्त्र बलों के लिए अच्छा नहीं है. जब आपको उपकरण की ज़रूरत है, तो निर्णय करना चाहिए, लेकिन निर्णय निष्पक्ष, पारदर्शी और उचित तरीके से किया जाना चाहिए.
अब मनोहर पर्रिकर क्या सुझाव दे रहे हैं? वह मानो यह सोच रहे हैं कि वे लोग पांच साल के लिए निर्वाचित हुए हैं, तो अब राजा की तरह हो गए हैं और किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. दुर्भाग्य से वह वही ग़लती कर रहे हैं, जो राजीव गांधी सरकार ने की थी और वह भी अपने 400 सांसदों के होते हुए. आपके पास तो केवल 282 सांसद हैं. यह इस पूरे प्रकरण का गंभीर हिस्सा है. उन्होंने एक अ़खबार को बहुत बड़ा साक्षात्कार दिया है. मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री को इसके बारे में जानकारी है या नहीं. यह साक्षात्कार तब दिया गया, जब प्रधानमंत्री विदेश में थे.
दूसरी बात यह है कि अभी भी विकास का पैटर्न सामने नहीं आ रहा है. हां, चीन की विकास दर नीचे जा रही है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक द्वारा कहा जा रहा है कि भारत की विकास दर चीन की तुलना में अधिक हो जाएगी और हम खुश हो रहे हैं. नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. हमने अपने विकास के आंकड़े बदल दिए हैं, बेस इयर (आधार वर्ष) बदल दिया है. इसलिए हम अधिक उच्च वृद्धि देख पा रहे हैं. चीन इसलिए नीचे जा रहा है कि वह बहुत ज़्यादा ऊपर चले गए थे. लेकिन, यह हमारे लिए सांत्वना की बात नहीं है कि हम सब कुछ बहुत अच्छा कर रहे हैं. अगर हम मेक इन इंडिया को सफल बनाना चाहते हैं, तो हमें निवेश को आकर्षित करने के लिए तरीके खोजने चाहिए. यदि हम व्यापार को आसान बनाना चाहते हैं, तो क़ानूनों को सरल बनाना चाहिए. इस दिशा में कुछ भी नहीं किया गया है. अपने अच्छे इरादों के बावजूद वित्त मंत्री नौकरशाही की लालफीताशाही में कटौती करने में असमर्थ हैं.
व्यापार करना आसान नहीं है. कोई भी विदेशी निवेशक सरकार के रवैये को लेकर उत्साहित नहीं है. वे लोग प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व से उत्साहित हैं, उनकी बातों और सपनों को उम्मीद के साथ देखते हैं, लेकिन जब बात व्यापार करने से जुड़ती है, तो वे कहते हैं कि सरकार या तो बहुत धीरे-धीरे काम कर रही है या बिल्कुल नहीं कर रही है. व्यापार सरकार की मंशा पर निर्भर नहीं करता. हर किसी का इरादा अच्छा है, लेकिन स़िर्फ इससे काम नहीं बनता. स्थानीय व्यवसायी भारतीय प्रथाओं के अभ्यस्त हैं, लेकिन विदेशी उन्हें पसंद नहीं करते. भारतीय व्यवसायी जानते हैं कि सरकार को कैसे मैनेज करना है, कैसे मामले को न्यायिक प्रक्रिया में उलझाना है. और फिर भारत में एक न्यायिक मामला सरकार के कार्यकाल से भी लंबा चलता है. लेकिन, विदेशी निवेशक ऐसी भाषा और शैली पसंद नहीं करते हैं. जितनी जल्दी सरकार बिजनेसमैन की बात और समस्या को सुने-समझे, उतना ही अच्छा खुद सरकार के लिए भी होगा, ताकि वह उन उम्मीदों को पूरा कर सके, जिसे उसने खुद पैदा किया है. उम्मीद करते हैं कि संसद सत्र इस बारे में कुछ नई रोशनी डालेगा.