यह संपादकीय लिखते हुए थोड़ा संकोच हो रहा है क्योंकि जब यह अंक आपके पास पहुंचेगा तब तक हो सकता है आपके सामने स्थिति स्वतः स्पष्ट हो चुकी हो. उत्तराखंड में हाईकोर्ट ने कुछ ऐसी टिप्पणियां की हैं जिनके ऊपर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अंतिम रूप से संवैधानिक स्थिति की व्याख्या होनी चाहिए.
उत्तराखंड में जिस तरह राष्ट्रपति शासन लगा उसे हाईकोर्ट में हरीश रावत ने चुनौती दी और हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया कि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन गलत लगाया गया है और उसने राष्ट्रपति शासन को समाप्त कर दिया.
इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि राष्ट्रपति राजा नहीं है, भगवान नहीं है, जिसके ऊपर बातचीत न की जा सके. इस टिप्पणी के पीछे केंद्र सरकार का यह बयान था कि कहीं पर भी राष्ट्रपति द्वारा दी गई सलाह के ऊपर सवाल नहीं उठाया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट इसके ऊपर कब फैसला देगा पता नहीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इस सवाल के ऊपर फैसला देना चाहिए कि राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की स्थिति, जो धारा 356 के तहत साफ की गई है, को और साफ करने की आवश्यकता है या नहीं. सुप्रीम कोर्ट को यह भी साफ करना होगा कि हाईकोर्ट की यह टिप्पणी कि 9 विधायकों ने संवैधानिक पाप किया है. अगर हाईकोर्ट की यह टिप्पणी सही है तो सुप्रीम कोर्ट को इसे पुष्ट करना चाहिए ताकि देश की किसी विधानसभा में दलबदल की आशंकाओं को समाप्त किया जा सके.
दरअसल, एक तो हमारी राज्य सरकारें काम नहीं करतीं जहां काम करती हैं, वहां उन्हें अंदर और बाहर दोनों तरफ से विरोध का सामना करना पड़ता है और तीसरा, विधायक अपनी पार्टी में राजनीतिक विरोध कर उन्हीं पर्टियों से हाथ मिला लेते हैं जिन पार्टियों को हराकर वो विधानसभा में पहुंचे हैं. दलबदल कानून लागूू है लेकिन दलबदल कानून का उद्देश्य पूरी तरह विफल रहा है.
इसलिए राज्यपाल के हस्तक्षेप करने का समय और तरीका, केंद्र सरकार द्वारा विश्लेषण करने का समय व तरीका तथा राष्ट्रपति का इस्तेमाल केंद्र सरकार अपने राजनीतिक हितों के लिए कितना करे, ये सारी स्थितियां स्पष्ट होनी आवश्यक हैं. भारत के इतिहास में संभवतः पहली बार किसी राज्य के हाईकोर्ट ने इतना बड़ा फैसला लिया है और हाईकोर्ट यह अवश्य जानता होगा कि इस फैसले के खिलाफ जो पक्ष है वह सुप्रीम कोर्ट में अवश्य जाएगा. सुप्रीम कोर्ट इस फैसले की विवेचना करने के बाद जो निर्णय देगा वह निर्णय हिंदुस्तान के राजनीतिक इतिहास में और विधानसभाओं के कार्य करने के तरीके पर बहुत बड़ा असर डालने वाला है.
हरीश रावत बड़ी मुश्किलों से मुख्यमंत्री बने. उन्होंने अपने पूर्ववर्ती साथी और उनसे पहले के मुख्यमंत्री रहे विजय बहुगुणा की नाराजगी मोल ली क्योंकि विजय बहुगुणा को यह लगा कि उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटवाने के पीछे हरीश रावत का हाथ है. हो सकता है यह सही हो या गलत हो, लेकिन विजय बहुगुणा उत्तराखंड में कुछ बड़े औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रहे थे और जिस दलबदल को लेकर यह सारा संकट शुरू हुआ वह उसके निर्माताओं में से एक रहे हैं. विजय बहुगुणा को अभी तक कांग्रेस पार्टी ने दल से निष्कासित नहीं किया है सिर्फ उनके बेटे को कांग्रेस पार्टी ने निष्कासित किया है. यदि कांग्रेस पार्टी को फैसला लेना ही था तो विजय बहुगुणा के खिलाफ भी फैसला लेना चाहिए था.
हरक सिंह रावत उत्तराखंड में अब तक कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे हैं. मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी रहे हैं और मुझे आशा है कि भाजपा ने अवश्य यह वादा किया होगा कि यदि वह कांग्रेस में विद्रोह करा सकते हैं तो भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी के ऊपर बैठाएगी. लेकिन अब स्थिति दूसरी हो गई है यदि हाईकोर्ट के इस फैसले को मानें तो सभी बागी 9 सदस्यों की सदस्यता रद्द हो जाएगी. और यह सदस्यता रद्द होने के बाद क्या नौ विधायक तत्काल अगला उपचुनाव लड़ पाएंगे या उनके चुनाव लड़ने के ऊपर भी कोई रोक हाईकोर्ट लगाएगा, यह देखना अभी बाकी है.
भाजपा एक शुद्ध राजनीति का झंडा लेकर शासन करने पहुंची, लेकिन भाजपा ने वो सारे हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए जिन हथकंडों के लिए आज तक कांग्रेस बदनाम रही है. हो सकता है भाजपा को यह अहसास हुआ हो कि उन्हें चुनाव के द्वारा विधानसभाओं में बहुमत मिलना थोड़ा मुश्किल है इसलिए जितनी सरकारों के नीचे से ज़मीन खींची जा सके उस ज़मीन को खींचना चाहिए और देश को कांग्रेस मुक्त बनाने की दिशा में तेज़ी से दौड़ना चाहिए.
कांग्रेस मुक्तभारत वोटरों को समझाने का नरेंद्र मोदी का एक बहाना था यह नारा वोटरों के लिए था. लेकिन सरकारों को गिराकर, विधायकों को तोड़कर देश को कांग्रेस मुक्त बनाना ये सवाल कहीं न कहीं संविधान के ख़िलाफ खड़ा हो जाता है. हम जो कहें वही संविधान कह रहा है, इस बात को कहने वाले राजनेता यह भूल जाते हैं कि संविधान का एक अलग रुख होता है और वह रुख सही है या गलत है इसका फैसला या तो अदालत या फिर जनता करती है.
भाजपा किसी भी तरह सत्ता चाहिए की नीति पर नहीं चलती तो उसे देश में अद्भुत समर्थन मिलता. नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने थे उस समय मिलने वाला समर्थन आने वाले अच्छे भविष्य की स्थापना के लिए लोगों द्वारा किया गया एक अभियान था. उस अभियान के रथ पर सवार होकर नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने, लेकिन दो साल के बाद जो भी वक्त जा रहा है, वह वक्त नरेंद्र मोदी के प्रति या भाजपा के प्रति इस देश में एक चिंता खड़ी कर रहा है.
टेलीविजन, अखबार और रेडियो की इस दुनिया में, जो आज घर-घर पहुंच चुका है, जो लोग अखबार पढ़ रहे हैं या टेलीविजन देख रहे हैं वह यह सवाल जरूर करते हैं कि आपने तो यह कहा था, अब आप यह कह रहे हैं. आप तो ये करने वाले थे आप अब ये कर रहे हैं और ये सवाल लोगों को पूछने ही चाहिए. क्योंकि हम जब किसी वादे को ध्यान में रखकर वोट देते हैं और बाद में कह दिया जाए कि यह तो एक चुनावी जुमला था तो ऐसा लगता है कि जीती हुई राजनीतिक पार्टी स्वयं एक जुमले के इर्द-गिर्द घिरी हुई है.
और यहीं पर अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी की भारतीय जनता पार्टी से अलग आज अमित शाह की भारतीय जनता पार्टी है. अमित शाह की भाजपा वोटरों के ऊपर इंपैक्ट जमाने में लगभग नाकामयाब है इसलिए अगर सुप्रीमकोर्ट को हाईकोर्ट द्वारा उत्तराखंड सरकार के संदर्भ में संपूर्ण फैसले और संपूर्ण टिप्पणियां सामने रख इसके बारे में अपना अंतिम रुख बहुत जल्दी सार्वजनिक करना चाहिए क्योंकि देश के लोग अब सरकारों की तरफ कम और अदालत की तरफ ज्यादा देखते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि सरकारें तो करप्शन भी करेंगी, सरकार काम भी नहीं करेंगी अगर कुछ अच्छा हो सकता है तो सिर्फ और सिर्फ अदालतों के द्वारा हो सकता है
इसलिए वो अदालत की तरफ देखती भी है. अदालत के फैसले का सम्मान भी करती है और अदालत से अपेक्षा भी करती है कि वह ऐसे किसी भी अंतरविरोध की स्थिति में आईने की तरफ साफ फैसला लोगों के सामने दे. उत्तराखंड के मसले में हमारा भी यही अनुरोध है कि सुप्रीम कोर्ट को अंतिम स्थिति बहुत जल्दी स्पष्ट करनी चाहिए.