देश की सर्वोच्च अदालत ने जाने-माने पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह की प्राथमिकी को खारिज कर न केवल दुआ बल्कि समूची पत्रकार बिरादरी को बड़ी राहत दी है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की दौरान साफ कहा कि हर पत्रकार को कानूनी सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। हालांकि जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने विनोद दुआ के उस अनुरोध को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब तक एक समिति अनुमति नहीं दे देती, तब तक पत्रकारिता का 10 साल से अधिक का अनुभव रखने वाले किसी मीडियाकर्मी के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज न की जाए। सर्वोच्च अदालत का यह फैसला दो कारणों से अहम है। एक, पिछले कुछ सालों में असहमति के हर स्वर को राजद्रोह का रंग देने की कोशिश बड़े पैमाने पर हो रही है।
दूसरे, ‘सरकार के विरोध’ को ‘राष्ट्र के विरोध’ में तब्दील करने का सुनियोजित प्रयत्न हो रहा है। ऐसे में उन पत्रकारों को भी लपेटने की कोशिश जारी है, जो घोषित तौर पर किसी एजेंडे का हिस्सा नहीं हैं और अपना पत्रकारीय कर्तव्य पूरी निष्ठा और सरकारी निगाहों की परवाह किए बगैर कर रहे हैं। यकीनन राजद्रोह बेहद गंभीर अपराध है, लेकिन जो सत्ता को न सुहाए, हर वो काम ‘राजद्रोह’ है, यह भी अस्वीकार्य है। किसी जमाने में ‘चख ले इंडिया’ से पूरे देश में चर्चित हुए पत्रकार विनोद दुआ आजकल यू ट्यूब पर शो चलाते हैं। उनके 30 मार्च 2020 को प्रसारित ऐसे ही एक शो को लेकर हिमाचल प्रदेश में एक स्थानीय भाजपा नेता अजय श्याम ने दुआ के खिलाफ शिमला जिले में राजद्रोह का मामला दर्ज कराया था। जिसके मुताबिक दुआ ने अपने यूट्यूब कार्यक्रम में प्रधानमंत्री पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने वोट हासिल करने के लिए ‘मौतों एवं आतंकी हमलों’ का इस्तेमाल किया। इस टिप्पणी से सांप्रदायिक नफरत फैलकर शांति भंग हो सकती थी।
दुआ के खिलाफ पुलिस ने भादसं की धारा 124 ए, धारा 268 (सार्वजनिक उपद्रव), धारा 501 (अपमानजनक चीजें छापना) और धारा 505 के तहत मामला दर्ज किया था। दुआ इसके खिलाफ कोर्ट में गए और उन्होंने सर्वोच्च अदालत से उनके खिलाफ दायर राजद्रोह की प्राथमिकी खारिज करने तथा इस मामले में एक कमेटी के मार्फत जांच के आदेश देने का अनुरोध किया था। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में दुआ के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करते हुए कहा कि प्रत्येक पत्रकार केदार नाथ सिंह मामले (जिसने भादवि की धारा 124ए के तहत राजद्रोह के अपराध के दायरे को परिभाषित किया था) के तहत सुरक्षा का हकदार है।
अदालत ने कहा कि ऐसी धाराएं तभी लगाई जानी चाहिए, जब शांति बिगाड़ने की कोशिश हो। उल्लेखनीय है कि 1962 में ‘केदार नाथ सिंह केस’ में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया था कि ‘कथित राजद्रोही भाषण और अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति को तभी दंडित किया जा सकता है, जब वो भाषण ‘उकसाने वाला’ ‘हिंसा’ या ‘सार्वजनिक अव्यवस्था’ के लिए नुकसान पहुंचाने वाला हो। इसके पहले पत्रकार दुआ ने अपने बचाव में तर्क दिया था कि सरकार की आलोचना तब तक राजद्रोह नहीं है, जब तक वह हिंसा भड़काने वाली नहीं हो। उन्होंने कहा कि अगर मैं प्रधानमंत्री की आलोचना करता हूं तो यह ‘सरकार की आलोचना’ के दायरे में नहीं आता।
दुआ के वकील विकास सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के 1962 के केदारनाथ मामले के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा था कि एक नागरिक के नाते यह विनोद दुआ का अधिकार है कि वह सरकार के बारे में जो भी चाहें, उसे कह या लिख सकते हैं। सरकार की आलोचना या उस पर टिप्पणी कर सकते हैं। हालांकि यह आलोचना या टिप्पणी ऐसी होनी चाहिए कि उससे सरकार के खिलाफ किसी तरह की हिंसा के लिए न फैले। सिंह ने दलील दी कि अगर हमारे प्रेस ( मीडिया) को स्वतंत्र रूप से कामकाज करने की अनुमति नहीं दी गई तो सच्चे अर्थों में हमारा लोकतंत्र खतरे में है।’ उन्होंने कहा कि दुआ को भारतीय दंड संहिता की धारा 505 (2) और 153ए के तहत लगाए गए आरोपों के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि उन्होंने पत्रकार के रूप में किसी धर्म, नस्ल, भाषा, क्षेत्रीय समूह या समुदाय के खिलाफ कुछ नहीं किया है।
यहां गौरतलब बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले का हवाला अदालत में दिया गया है, वह 1962 का है। तब देश में ज्यादातर कांग्रेस सरकारें थीं। इसका अर्थ यह हुआ कि पत्रकारों के खिलाफ इस तरह के मामले चलाने की प्रवृत्ति नई नहीं है। लेकिन चिंता की बात यह है कि बीते 6 सालों में इस तरह के मामले बहुत ज्यादा बढ़े हैं। यानी किसी भी असहमति और किसी एजेंडा विशेष विरोधी बात को राजद्रोह का ठप्पा लगाकर मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक विगत एक दशक में देश में राजद्रोह के कुल 10938 मामले दर्ज हुए,जिनमे से 65 प्रतिशत मामले 2014 के बाद के हैं। इनमें से ज्यादा किसी सरकार और राजनेता के खिलाफ की गई टिप्पणी को आधार बनाकर दर्ज किए गए हैं। देश में ऐसे सबसे ज्यादा मामले बिहार, यूपी, असम, कर्नाटक, झारखंड आदि राज्यों में दर्ज हुए हैं। हाल में आंध्र प्रदेश सरकार ने दो तेलुगू चैनलो के खिलाफ भी ऐसे ही मामले दर्ज किए।
यहां सवाल उठता है कि आखिर राजद्रोह कानून है क्या और यह कितना गंभीर अपराध है? इस देश में राजद्रोह का कानून सबसे पहले अंग्रेज लेकर आए। भारतीय दण्ड संहिता ( आईपीसी) की धारा 124 ए में उल्लेखित राजद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ इस धारा में राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है। अगर कोई शख्स देश विरोधी संगठन के खिलाफ अनजाने में भी संबंध रखता है या किसी भी प्रकार से सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है। राजद्रोह गैर जमानती जुर्म है और दोषी पाए जाने पर व्यक्ति को तीन साल से लेकर आजीवन जेल तक हो सकती है। साथ ही उसका पासपोर्ट रद्द हो जाता है, वह सरकारी नौकरी से महरूम हो जाता है।
इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लोकमान्य तिलक के खिलाफ मुकदमा चलाया तो स्वतंत्र भारत में फारवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह पर बिहार सरकार ने, कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर महाराष्ट्र सरकार (2012) ने, केस चलाया । आजाद भारत में इस कानून को खत्म करने की बात कई बार उठी। लेकिन सत्ता में आते ही हर राजनीतिक पार्टी को यह कानून प्यारा लगने लगता है। मोदी सरकार ने भी दो साल पहले संसद में साफ कर दिया था कि वह इस कानून को खत्म नहीं करेगी। क्योंकि राष्ट्र-विरोधी, पृथकतावादी और आतंकवादी तत्वों से प्रभावकारी ढंग से निपटने के लिए इस कानून की जरूरत है।
यकीनन राष्ट्रद्रोही गतिविधियों पर नकेल डालने के लिए सख्तह कानून जरूरी है, लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी अहम है कि कौन सा काम राष्ट्रविरोधी है और कौन सा सरकार विरोधी ? इसे पारिभाषित कौन करेगा? कोई एक‘सरकार तो ‘राष्ट्र’ नहीं हो सकती। राष्ट्र की परिभाषा सरकार से बहुत बड़ी है। तो फिर इसकी लक्ष्मण रेखा क्या है? राजनेता और सरकार की नजर में सच उजागर करने वाला और उसे कटघरे में खड़ा करने वाला कोई भी काम ‘राजद्रोह’ हो सकता है। दरअसल यहां सच उजागर करने और सरकार को बेनकाब करने में महीन फर्क है। अभिव्यक्ति की आजादी यही कहती है कि जो सच है वह निर्भीकता से सामने लाया जाए ( बशर्ते वो हमेशा एकतरफा न हो)।
स्वस्थ पत्रकारिता से यही अपेक्षित है। लेकिन यही सच जब सरकारों के लिए मुश्किल खड़ी करता है तो उसे देशविरोधी करार देने की पूरी कोशिश होती है। व्यक्ति को राष्ट्र और राष्ट्र को व्यक्ति में बदलने का नरेटिव बनाया जाता है। ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर इस अधिकार के दुरूपयोग का मास्क पहनाया जाता है। यह प्रवृत्ति तब ज्यादा प्रबल होती है, जब भीतर से स्वयं को असुरक्षित करने वाले सत्ताधीश बाहर और ज्यादा शक्तिशाली और निष्ठुर दिखने का प्रयास करते हैं।
यह हमने स्व. इंदिरा गांधी के जमाने में भी देखा और आज भी देख रहे हैं। शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मदन लोकुर को कहना पड़ा कि सरकार बोलने की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए राजद्रोह कानून का सहारा ले रही है। यानी मूल मुद्दा इस कानून की मनमाफिक व्याख्या का है। शायद यही कारण है कि राजद्रोह के अधिकांश मामले कोर्ट में नहीं टिके। इस कानून के तहत सजा का प्रतिशत बहुत ही कम है। यानी सरकारें इस कानून का प्रयोग लक्षित व्यक्ति या संगठनों को प्रताडि़त करने के लिए ज्यादा कर रही हैं।
अभी दो दिन पहले ही आंध्र प्रदेश की जगन्मोहन रेड्डी सरकार द्वारा दो तेलुगू चैनलों के खिलाफ दायर राजद्रोह के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मीडिया के संदर्भ में राजद्रोह कानून की सीमाएं तय करने की जरूरत है। कोर्ट ने कहा कि वह अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया के अधिकारों के संदर्भ में राजद्रोह कानून की व्याख्या की समीक्षा करेगा। कोर्ट की समीक्षा पर सबकी निगाह रहेगी। फिलहाल तो कोर्ट के इस फैसले से समूचे मीडिया जगत को राहत मिली है। क्योंकि जाग्रत मीडिया इस देश में जिंदा रहने की जमानत है और इसलिए भी कि देश में लोकतंत्र को ठोकतंत्र में बदलने से रोकने के लिए (कुछ गलतियों के बावजूद) यह निहायत जरूरी है।