किसानों के देशव्यापी कर्ज की, उपज की, सिंचाई की और अब ज़मीन छिनने के डर की समस्या का समाधान नरेंद्र मोदी की सरकार अपनी प्राथमिकता पर नहीं रख रही है. उसका मानना है कि किसानों की समस्याएं जैसे-जैसे सामने आएंगी, वैसे-वैसे उनके बारे में सोचा जाएगा या उन पर बात की जाएगी. नरेंद्र मोदी के मन पर कोई सवाल नहीं है और मैं यह मानता भी नहीं कि वह किसानों की समस्याओं का हल नहीं करना चाहते. सवाल केवल इतना है कि वह इसे प्राथमिकता की सूची में नीचे कहीं रखे हुए हैं. यह बजट भी बताता है कि किसान कहीं पर भी नरेंद्र मोदी की आर्थिक योजना में शामिल नहीं हैं, उनकी प्राथमिकता में कॉरपोरेट है.
नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब दिया और सारे देश में उस भाषण को सराहा गया. कांग्रेस किसी भी चीज पर सरकार को नहीं घेर सकी. भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने स़िर्फ यह कहा कि अगर कुछ ग़लत होगा, तो हम उसमें सुधार करेंगे. प्रचंड बहुमत था, धन्यवाद प्रस्ताव पारित होना ही था. पर जिस चीज ने परेशानी में डाला, वह यह कि विपक्ष के नाम पर लोकसभा शून्य है. कांग्रेस पर यह ज़िम्मेदारी है कि वह विपक्ष का रोल निभाए, लेकिन वह विपक्ष का रोल नहीं निभा पा रही है. कांग्रेस के लोग मल्लिकार्जुन खड़गे के भाषण की तारीफ़ कर रहे हैं, पर खड़गे साहब नेता नहीं हैं और न ही उनके पास तर्क हैं.
लोग अपेक्षा कर रहे थे कि राहुल गांधी लोकसभा में नरेंद्र मोदी का सामना करेंगे. इस अपेक्षा में कोई अतिशयोक्ति नहीं है. अगर राहुल गांधी सामना करते और अपनी छाप छोड़ते, तो यह उन्हें एक अवसर देता, देश में अपनी बुद्धिमत्ता दिखाने का, अपनी समझ दिखाने का. लेकिन, राहुल गांधी ने ऐसा नहीं किया. अब वह चाहे विपश्यना के लिए विदेश गए हों या विचार-मंथन के लिए विदेश गए हों या फिर थकान उतारने के लिए विदेश गए हों. अगर दिग्विजय सिंह की मानें, तो वह (राहुल) देश में ही हैं. तो देश में भी अंतर्ध्यान होने का समय ग़लत था. इस वाकये ने बताया कि राहुल गांधी में राजनीतिक समझ की कमी है. शायद राजनीतिक समझ की कमी सोनिया गांधी में भी है, अन्यथा वह राहुल गांधी को बाहर नहीं जाने देतीं.
राहुल गांधी के सामने फिर एक अवसर है. नरेंद्र मोदी का मुक़ाबला वैचारिक स्तर पर वह कर सकते हैं कि नहीं कर सकते, इसे उन्हें साबित करना होगा. लोकसभा चुनाव में वह असफल रहे हैं. लेकिन, अब जबकि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, तो राहुल गांधी को यह साबित करना होगा कि वह देश के सबसे सशक्त विपक्ष के नेता हैं. इसके लिए उन्हें अपने दरवाजे कार्यकर्ताओं के लिए खोलने होंगे. और, जब कार्यकर्ता उनसे मिलने आएं और अपनी समस्याएं बताएं, तो बिना ऊबे हुए, बिना यह कहे कि आप श्रीमान् ए से मिल लीजिए, आप श्रीमान् बी से मिल लीजिए, आप श्रीमान् सी को नोट दे दीजिए, उन्हें यह कहना चाहिए कि क्या परेशानी है, आप मुझे बताओ. और, जब वे (कार्यकर्ता) उनसे अपनी परेशानी बताएं, तो उस समय उन्हें (राहुल गांधी को) अपने स्मार्ट फोन के व्हाट्स-ऐप्प में घुसना और उससे खेलना बंद कर देना चाहिए. कांग्रेस के बड़े नेताओं का यह कहना है कि जब पब्लिक मीटिंग होती है, तो भी राहुल गांधी मंच से अपने व्हाट्स-ऐप्प पर नीचे बैठे अपने मित्र को मैसेज करते रहते हैं और वह वहां से मैसेज करता रहता है.
राहुल गांधी के सामने फिर एक अवसर है. नरेंद्र मोदी का मुक़ाबला वैचारिक स्तर पर वह कर सकते हैं कि नहीं कर सकते, इसे उन्हें साबित करना होगा. लोकसभा चुनाव में वह असफल रहे हैं. लेकिन, अब जबकि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, तो राहुल गांधी को यह साबित करना होगा कि वह देश के सबसे सशक्त विपक्ष के नेता हैं. इसके लिए उन्हें अपने दरवाजे कार्यकर्ताओं के लिए खोलने होंगे. और, जब कार्यकर्ता उनसे मिलने आएं और अपनी समस्याएं बताएं, तो बिना ऊबे हुए, बिना यह कहे कि आप श्रीमान् ए से मिल लीजिए, आप श्रीमान् बी से मिल लीजिए, आप श्रीमान् सी को नोट दे दीजिए, उन्हें यह कहना चाहिए कि क्या परेशानी है, आप मुझे बताओ. और, जब वे (कार्यकर्ता) उनसे अपनी परेशानी बताएं, तो उस समय उन्हें (राहुल गांधी को) अपने स्मार्ट फोन के व्हाट्स-ऐप्प में घुसना और उससे खेलना बंद कर देना चाहिए.
राहुल गांधी गंभीर हैं, राहुल गांधी पार्टी चला सकते हैं, यह साबित करना बाकी है. और अगर नहीं साबित कर सके, तो पार्टी भले ही उनके पास रहे, लेकिन जनता और कार्यकर्ता उनसे दूर चले जाएंगे. यह चिंता की बात इसलिए है कि अभी कोई दूसरी पार्टी, चाहे वह समाजवादी पार्टी हो, चाहे जदयू हो, चाहे तृणमूल कांग्रेस हो या दक्षिण की कोई पार्टी हो, इस स्थिति में नहीं है कि वह सत्ता पक्ष में बैठी भारतीय जनता पार्टी का मुक़ाबला सारे देश में कर सके. यह मजबूरी की स्थिति है, इसलिए लोकतंत्र के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए कांग्रेस को कमज़ोर न होने देना राहुल गांधी का बुनियादी कर्तव्य है. इस काम में राहुल गांधी की सहायता प्रियंका गांधी करती हैं, सोनिया गांधी करती हैं या फिर उनके चुने हुए लोग करते हैं, इसका ़फैसला होना बाकी है. पर चूंकि राहुल गांधी कांग्रेस के सर्वोच्च नेता हैं, इसलिए उन पर यह ज़िम्मेदारी है कि वह लोकतंत्र समर्थक रुख अपनाएं, न कि लोकतंत्र विरोधी रुख अपनाएं.
राहुल गांधी के सामने अकेले नरेंद्र मोदी नहीं हैं. उनके सामने अरुण जेटली हैं, उनके सामने नितिन गडकरी हैं, उनके सामने राजनाथ सिंह हैं और उनके सामने पीयूष गोयल हैं. ये ऐसे लोग हैं, जो देश के प्रति अपनी समझ को तार्किक भाषा में देश के लोगों के समक्ष रख सकते हैं. उनका विरोध भी उतना ही तार्किक और वजनदार होना चाहिए. यही लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है. इस शर्त को अगर कोई राजनीतिक दल या कोई नेता पूरा नहीं करता, तो उसे कैसे लोकतंत्र समर्थक माना जाए?
लोकसभा में धन्यवाद प्रस्ताव का जवाब देते हुए नरेंद्र मोदी मुलायम सिंह यादव की इस बात पर खामोश हो गए कि क्या जिस तरह उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों के क़र्ज़ माफ़ किए हैं, उसी तरह प्रधानमंत्री भी देशव्यापी स्तर पर किसानों के क़र्ज़ माफ़ करेंगे? नरेंद्र मोदी ने इसका जवाब देना ठीक नहीं समझा और वह खामोश बैठे रहे. दरअसल, देश में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में वृद्धि हुई है. किसान परेशान हैं. स्वयं महाराष्ट्र में 250 से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली. देवेंद्र फडणवीस प्रधानमंत्री के दूत बनकर दावोस में आर्थिक संरचना की बैठक में शामिल होकर आ गए. जबकि उनके राज्य में किसानों को सहायता नहीं मिल पा रही है. यही हाल गुजरात का है, यही हाल आंध्र प्रदेश का है, बल्कि अब तो उत्तर प्रदेश भी इसका शिकार होता दिखाई दे रहा है.
किसानों के देशव्यापी कर्ज की, उपज की, सिंचाई की और अब ज़मीन छिनने के डर की समस्या का समाधान नरेंद्र मोदी की सरकार अपनी प्राथमिकता पर नहीं रख रही है. उसका मानना है कि किसानों की समस्याएं जैसे-जैसे सामने आएंगी, वैसे-वैसे उनके बारे में सोचा जाएगा या उन पर बात की जाएगी. नरेंद्र मोदी के मन पर कोई सवाल नहीं है और मैं यह मानता भी नहीं कि वह किसानों की समस्याओं का हल नहीं करना चाहते. सवाल केवल इतना है कि वह इसे प्राथमिकता की सूची में नीचे कहीं रखे हुए हैं. यह बजट भी बताता है कि किसान कहीं पर भी नरेंद्र मोदी की आर्थिक योजना में शामिल नहीं हैं, उनकी प्राथमिकता में कॉरपोरेट है. और, यह बजट कोई ऐसी दिशा भी नहीं दिखाता, जिससे लोगों, खासकर गांव के लोगों को रा़ेजगार मिलेगा या उत्पादन तंत्र में उन्हें कोई हिस्सेदारी मिलेगी.
फिर भी यह मानना चाहिए कि जब तक विपक्ष नहीं है, तब तक नरेंद्र मोदी के अपने दल के बुद्धिजीवी उन्हें सलाह देंगे और ऐसी सलाह देंगे, जिससे देश में समस्याएं बढ़ें नहीं, बल्कि उनका निदान हो. आज कोई यह कहने की स्थिति में नहीं है कि समस्याओं के ऐसे निदान, जो इस देश के 70 प्रतिशत लोगों को छूते हों, अभी तलाशे जाने बाकी हैं. यह सरकार वे समाधान तलाशे. और, विपक्ष के रूप में कांग्रेस या फिर राहुल गांधी उन समाधानों की तलाश के लिए सरकार पर दबाव डालें, यही श्रेयस्कर है.