उत्तर प्रदेश में दलित मतदाताओं का समर्थन बसपा प्रमुख मायावती का आत्मविश्वास बनाए रखता है. प्रत्येक चुनाव में वह समीकरण बदल देती हैं, उनके आस-पास दिखने वाले चंद चेहरे इधर से उधर हो जाते हैं, उनके खड़े रहने की जगह बदल जाती है, कुर्सियां आगे-पीछे हो जाती हैं, लेकिन मायावती का अपना अंदाज नहीं बदलता. लोकसभा चुनाव में मायावती के वोट बैंक में सेंधमारी हो चुकी है. उनके कई वरिष्ठ सहयोगी साथ छोड़कर जा चुके हैं. फिर भी मायावती लखनऊ रैली में आत्मविश्वास दिखाने के प्रति संजीदा बनी रहीं. वह बताना चाहती थीं कि पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उससे वह विचलित नहीं हैं. इसीलिए पूरे समारोह में वह अपने पुराने तरीके पर ही अमल करती रहीं.
यूं तो मायावती विधान सभा चुनाव के मद्देनजर कई महीने से उत्तर प्रदेश में सक्रिय हैं. लेकिन नौ अक्टूबर की लखनऊ रैली को उनके चुनाव अभियान का अघोषित आगाज माना जा सकता है, क्योंकि इसमें मायावती नए समीकरण के हिसाब से मुखातिब थीं. यह बात उनके भाषण के अलावा कई दृश्यों से भी उजागर हुई. पहले दृश्य पर विचार कीजिए. मायावती ऐसे प्रतीकों के माध्यम से बड़े सन्देश देती हैं. समय-समय पर वह इनमें बदलाव करती रहती हैं. लखनऊ रैली में बसपा के शीर्ष ब्राह्मण नेता पिछड़ते दिखाई दिए. इनकी जगह शीर्ष मुस्लिम नेता पर ज्यादा फोकस था. पुराने नेताओं में जितने लोग बसपा में बचे हैं, उनमें इन्हीं का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है. मायावती जब मुख्यमंत्री थीं, तब भी इन्हें ही नम्बर दो की पोजीशन पर माना जाता था. रैली में यही मायावती के सर्वाधिक करीब दिखाई दिए.
एक शालीन कार्यकर्ता की भांति, पूरे अदब से ये मायावती की सहायता कर रहे थे. मायावती जब कांशीराम की मूर्ति के समक्ष मोमबत्ती जलाने आईं, तो इन्हीं पूर्व मंत्री ने उन्हें मोमबत्ती जलाकर दी. मायावती ने जिस अंदाज में मोमबत्ती जलाई, यह भी लाजवाब था. फिर उन्होंने पूर्व मंत्री, मुस्लिम नेता को बुझाने के लिए मोमबत्ती सौंप दी. मायावती के फूलों की टोकरी लेकर खड़े रहने का सौभाग्य भी इन्हीं नेता को मिला. मायावती ने फूल चढ़ाए और आगे बढ़ गईं. एक अन्य नेता ने उनके पीछे जगह बनाने की कोशिश की, लेकिन पहले वाली बात दिखाई नहीं दी. मायावती को जो संदेश देना था, बिना कहे दे दिया. इस बार सवर्ण सोशल इंजीनियरिंग नहीं वरन दलित मुस्लिम गठजोड़ को महत्व दिया जाएगा. स्पष्ट है कि मायावती ने समीकरण बदला, आस-पास के चेहरे बदले, लेकिन अपना अंदाज नहीं बदला. जिन्हें वह समीकरण का सूत्रधार बनाती हैं, उन्हें भी एक सीमा से अधिक महत्व नहीं देतीं. फिर समीकरण के आधार पर संबंधित नेता व उनके सगे-संबंधी भले ही लाभ उठा लें, आम जन को इसका कोई लाभ नहीं मिलता.
मायावती के भाषण में भी पुराने समीकरण को छोड़ने और नए को अपनाने का साफ इशारा था. उन्होंने कहा कि सपा बिखर रही है, मुसलमान अपना वोट बिखरने न दें. वे बसपा को वोट दें, नहीं तो भाजपा की सरकार बन जाएगी. इस कथन को मायावती के सामने फूलों की टोकरी लिए अदब से झुके हुए मुस्लिम नेता से जोड़कर देखें तो तस्वीर साफ हो जाएगी. मायावती को अब केवल इसी समीकरण पर भरोसा रह गया है. इसी के मद्देनजर वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर सर्वाधिक हमला बोलती हैं. ज्यों-ज्यों चुनाव करीब आते जाएंगे, मायावती का मोदी व भाजपा पर हमला तीखा होता जाएगा. लखनऊ रैली से इतना तो साफ हो गया कि मायावती को अपने कार्यों के बल पर सत्ता में वापसी की उम्मीद नहीं बची है. इसीलिए वह इस बार दलित-मुस्लिम गठजोड़ का तानाबाना बुन रही हैं. मायावती पांच वर्ष तक पूर्ण बहुमत की सरकार चला चुकी हैं. इसके बाद पांच वर्ष तक बसपा प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी रही है. प्रजातंत्र में सरकार व मुख्य विपक्षी दल दोनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. लेकिन मायावती न तो सत्ता के अपने पांच वर्षीय कार्यकाल की किसी उपलब्धि का उल्लेख करती हैं, न ही वे विपक्ष में रहते हुए सरकार के विरोध में कोई बड़ा आंदोलन कर सकीं. एक बार लखनऊ में विधानसभा के समक्ष बसपा का आंदोलन हुआ था, लेकिन तब मायावती को उत्तर प्रदेश आने की फुर्सत नहीं थी.
मायावती कहती हैं कि वह सत्ता में आईं तो इस बार पत्थरों का कार्य नहीं कराएंगी. उन्होंने यह भी कहा कि कई योजनाएं उनकी सरकार ने बनाई थी, जिसे सपा सरकार अपने नाम से चला रही है. इसका मतलब है कि मायावती ने पांच वर्षों में पत्थरों का काम तो खूब कराया, लेकिन अन्य योजनाओं के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला. अर्थात पांच वर्ष कम पड़ गए थे, तभी तो वह उन योजनाओं को चलाने का आरोप सपा सरकार पर लगा रही हैं. मायावती की मानें तो ऐसी कई योजनाएं बसपा व सपा के दस वर्षीय शासन में भी अग्रिम रूप से पूरी नहीं हो सकी हैं. यह गौरतलब तथ्य है. जिनके लिए उत्तर प्रदेश में कार्य के लिए दस वर्ष कम पड़ गए, वही लोग नरेन्द्र मोदी सरकार से ढ़ाई वर्ष का हिसाब मांग रहे हैं. मायावती ने तो ऐसा भाषण दिया जैसे उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव केंद्र के ढ़ाई वर्षों के मुद्दे पर होगा. इसमें बसपा अपने पांच वर्षीय शासन पर कोई चर्चा नहीं करेगी. सपा पर उतना ही हमला बोलेगी, जिससे मुस्लिम वोटों को अपनी ओर मोड़ना आसान हो जाए. बाकी निशाने पर मोदी ही रहेंगे. इसी से जुड़ा दूसरा दिलचस्प पहलू यह है कि अब मायावती भी भ्रष्टाचार रोकने, कालाधन आदि की बात करने लगी हैं. लोगों की याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होती.
कुछ भी हो, मायावती बदली स्थिति से बेखबर नहीं हैं. बात अब सपा-बसपा तक सीमित नहीं रही. अब लोगों के पास विकल्प है. पांच वर्ष मायावती ने जैसी सरकार चलाई उसके प्रति वह खुद ही आश्वस्त नहीं हैं. इसीलिए वे भाजपा, सपा, कांग्रेस पर हमला बोलकर नया समीकरण बनाने का प्रयास कर रही हैं.