मांझी के प्रशासन चलाने के तौर-तरीकों और बोली-बानी की बाहर तो बाहर, जद (यू) में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई. यह अपनी राजनीतिक प्रकृति में घोर नकारात्मक रही. नतीजतन, नीतीश कुमार की आदर्श की राजनीति के चंदोवे में छेद दिखने लगे, बयानों के तीर चलने लगे. और, इस तरह नीतीश-भक्त दलीय नेताओं ने अपने भोथरे हथियार से चंदोवा तार-तार करना शुरू किया. ऐसे में राजनीतिक मर्यादा को खेत आना था और वही हुआ. हालात बिगड़ते चले गए और जीतन राम मांझी पर राजनीतिक ही नहीं, ग़ैर-राजनीतिक आक्षेप भी किए गए, उन्हें मानसिक तौर पर असंतुलित तक कहा जाने लगा.

111बिहार के सत्तारूढ़ जनता दल (यू) में महीनों से चल रही तनातनी का अंत क्या है? इस सवाल का सीधा जवाब तो इसके सबसे बड़े नेता (सुप्रीमो कहिए) नीतीश कुमार के पास ही है, लेकिन वह भी ऐसा कुछ नहीं कर या कह रहे हैं, जिससे दल के भावी स्वरूप और जीतन राम मांझी सरकार के कामकाजी बने रहने को लेकर कोई विशेष उम्मीद जगे. हालांकि, महीनों की चुप्पी के बाद इस सप्ताह उन्होंने इस बावत अपना मुंह खोला और मांझी सरकार के किसी संकट से मुक्त रहने की बात कही. पर, इस भरोसे की सारी गंभीरता उनके दलीय प्रवक्ताओं ने अपने बयानों से दो-तीन घंटों के भीतर ही बेअसर कर दी. मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और उनके मंत्रियों पर बयानों के तीर चलाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है. तीरंदाज़ी का यह क्रम महीनों से चल रहा है. हालात सहज बनाने के कई नेताओं, जिनमें सहयोगी राजद प्रमुख लालू प्रसाद भी शामिल हैं, के प्रयास निष्फल होते जा रहे हैं.
हालांकि, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद सहित उनके अनेक नए-पुराने शुभचिंतक इसे भाजपा का कुचक्र बताकर अपने राजनीतिक चेहरे की चमक बरकरार रखना चाहते हैं, पर यह बात निरंतर स्पष्ट होती जा रही है कि जद (यू) की एकता और सरकार के भविष्य को लेकर विपक्षी भाजपा को बहुत कुछ करने-कहने की ज़रूरत नहीं है. जद (यू) के कुछ मुखर प्रवक्ताओं एवं
नेताओं के राजनीतिक आचरण से इस चुनावी साल में भाजपा की राह आसान होती जा रही है. बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह सवाल नहीं पूछा जा रहा है कि सरकार क्या कर रही है या नीतीश कुमार की राजनीति किधर जा रही है या फिर आसन्न विधानसभा चुनाव में वह और उनका दल कोई नया मुद्दा उठा रहे हैं या नहीं. बल्कि, सवाल यह होता है कि पार्टी और सरकार क्या इसी तरह लड़ते-भिड़ते चुनाव में पहुंचेगी? इस सवाल का जवाब केवल नीतीश कुमार के पास है.
जद (यू) के अघोषित सुप्रीमो नीतीश कुमार ने पिछले मई में संसदीय चुनाव में हार के लिए मुख्यमंत्री पद की शहादत देकर ज़िम्मेदार राजनीति की मिसाल पेश की थी. उस वक्त विधायकों, अनेक राजनीतिक एवं ग़ैर-राजनीतिक शुभचिंतकों की सलाह को दरकिनार करके उन्होंने जीतन राम मांझी को अपना उत्तराधिकारी बनाया था और मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी. कुछ महीने तक तो सब कुछ ठीकठाक रहा, पर जल्द ही जीतन राम मांझी को लेकर जद (यू) में असहजता दिखने लगी थी. मांझी अपने काम को कैसे और किस दक्षता से अंजाम दे रहे थे, यह कहना तो फिलहाल कठिन है, पर इतना तो तय है कि वह संचिका और कलम के बदले ज़ुबान पर अधिक भरोसा करने लगे. उनका राजनीतिकरण कुछ उल्लेखनीय घुटे हुए राजनेताओं के साथ हुआ है और कोई तीस वर्षों से वह राज्य की कांग्रेसी और ग़ैर-कांग्रेसी मंत्रिपरिषदों में शामिल रहे, लिहाज़ा यह उनकी राजनीतिक आकांक्षा का तकाज़ा रहा होगा.
मांझी के प्रशासन चलाने के तौर-तरीकों और बोली-बानी की बाहर तो बाहर, जद (यू) में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई. यह अपनी राजनीतिक प्रकृति में घोर नकारात्मक रही. नतीजतन, नीतीश कुमार की आदर्श की राजनीति के चंदोवे में छेद दिखने लगे, बयानों के तीर चलने लगे. और, इस तरह नीतीश-भक्त दलीय नेताओं ने अपने भोथरे हथियार से चंदोवा तार-तार करना शुरू किया. ऐसे में राजनीतिक मर्यादा को खेत आना था और वही हुआ. हालात बिगड़ते चले गए और जीतन राम मांझी पर राजनीतिक ही नहीं, ग़ैर-राजनीतिक आक्षेप भी किए गए, उन्हें मानसिक तौर पर असंतुलित तक कहा जाने लगा. यह सब कुछ सार्वजनिक मंचों से या फिर मीडिया के ज़रिये हो रहा था. इतना ही नहीं, जद (यू) नेतृत्व के खास मंत्रियों ने जीतन राम मांझी के कार्यक्रमों का अघोषित बहिष्कार शुरू कर दिया. यह वह मा़ैका था, जब हालात संभालने की कोशिश की जानी चाहिए थी, लेकिन नेतृत्व खामोश ही नहीं रहा, बल्कि उसका पलड़ा इन मांझी विरोधियों के पक्ष में झुका दिखने लगा. ऐसे में जो होना था, वही हुआ यानी जद (यू) के भीतर शीत युद्ध शुरू हुआ, जो अब चरम पर पहुंच गया है.
बिहार की सत्ता राजनीति का हाल यही है कि सरकार बंटी है, दल बंटा है, नीतीश-लालू का जनता परिवार बंटा है. सरकार के चार मंत्रियों ने खुलेआम कहा है कि मांझी के ख़िलाफ़ जारी अभियान जद (यू) के विनाश का कारण बन सकता है. इधर, नीतीश कुमार के पुराने राजनीतिक प्रबंधक एवं सहयोगी के तौर पर परिचित संसदीय कार्य मंत्री श्रवण कुमार तो मीडिया के ज़रिये जीतन राम मांझी को सोच-समझ कर बोलने की नसीहत तक देने से नहीं हिचक रहे हैं. सहकारिता मंत्री जय कुमार सिंह ने नीतीश कुमार के मुख्यमंत्रित्व में काम करने के अपने इरादे का खुलेआम ऐलान किया है. मांझी सरकार के अनेक वरिष्ठ मंत्रियों ने तो नेतृत्व परिवर्तन और नीतीश कुमार को पुन: मुख्यमंत्री बनाने के लिए पटना से लेकर दिल्ली तक अभियान भी चलाया. इस अभियान का नेतृत्व वे मंत्री कर रहे हैं, जो दशकों से नीतीश कुमार की छाया के तौर पर जाने जाते रहे हैं. मांझी सरकार में उन वरिष्ठ मंत्रियों की संख्या भी कम नहीं है, जो एकमात्र नीतीश कुमार में अपनी निष्ठा जाहिर करने से नहीं चूकते हैं. हालत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीते माह मांझी बदलो अभियान को सार्थक बनाने के लिए जद (यू) विधायकों के हस्ताक्षर लेने की पहल की गई, लेकिन इस अभियान का साथ देने के लिए तीन दर्जन विधायक भी खुलकर सामने नहीं आए. यह और ऐसे कई राजनीतिक कार्य हो रहे हैं, जो नीतीश कुमार के खास माने जाने वाले लोग कर रहे हैं. बिहार के लोगों को यह सहज ही विश्‍वास नहीं होता कि इतना कुछ उनके अंजान रहते हो रहा है.

नीतीश कुमार और लालू प्रसाद सहित उनके अनेक नए-पुराने शुभचिंतक इसे भाजपा का कुचक्र बताकर अपने राजनीतिक चेहरे की चमक बरकरार रखना चाहते हैं, पर यह बात निरंतर स्पष्ट होती जा रही है कि जद (यू) की एकता और सरकार के भविष्य को लेकर विपक्षी भाजपा को बहुत कुछ करने-कहने की ज़रूरत नहीं है. जद (यू) के कुछ मुखर प्रवक्ताओं एवं नेताओं के राजनीतिक आचरण से इस चुनावी साल में भाजपा की राह आसान होती जा रही है. बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह सवाल नहीं पूछा जा रहा है कि सरकार क्या कर रही है या नीतीश कुमार की राजनीति किधर जा रही है या फिर आसन्न विधानसभा चुनाव में वह और उनका दल कोई नया मुद्दा उठा रहे हैं या नहीं. बल्कि, सवाल यह होता है कि पार्टी और सरकार क्या इसी तरह लड़ते-भिड़ते चुनाव में पहुंचेगी?

दल की ही बात लीजिए, प्रवक्ताओं समेत वे तमाम नेता भी जीतन राम मांझी और उनके समर्थक मंत्रियों पर सार्वजनिक तौर पर निशाना साध रहे हैं, जो बीते वर्षों में नीतीश कुमार के खास रहे हैं. उक्त सारे लोग हर अभियान में आगे किए जाते रहे हैं और पद-सुविधाओं से नवाजे जाते रहे हैं. इन दिनों उक्त सारे लोगों ने जीतन राम मांझी की सार्वजनिक निंदा का अभियान चला रखा है, लेकिन नीतीश कुमार ही नहीं, दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव और प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह तक कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं हैं. सभी उक्त लोगों को अपने बयानों में संयम बरतने की सलाह दे रहे हैं. कार्रवाई की बात तो दूर, सुप्रीमो टाइप उक्त बड़े नेता यह भी नहीं कहते कि प्रवक्ताओं की बात से दल सहमत नहीं है, ये प्रवक्ताओं के निजी विचार हैं. यहीं पार्टी नेताओं की बातें अपनी सार्थकता खो देती हैं, वे भ्रमजाल पैदा करने की कोशिश करती हैं. इससे यह हुआ कि जद (यू) का आम नेता-कार्यकर्ता खामोश होकर इस दल से मुक्त होने के विकल्प की तलाश में जुट गया है. भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी जब यह कहते हैं कि जद (यू) के पचास विधायक उनके संपर्क में हैं और भाजपा किसी भी क्षण मांझी सरकार को अपदस्थ कर सकती है, तो वह सच्चाई के निकट हैं. नीतीश कुमार की पार्टी के तीन दर्जन से अधिक विधायक भाजपा के काफी नज़दीक आ गए हैं और वे अब पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहते.
यह राजनीतिक तनातनी, जो अपनी प्रकृति में अस्थिरता ही है, राज्य प्रशासन को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है. जद (यू) की शैली में राज्य की नौकरशाही भी विभाजित हो गई है. अनेक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी गंभीर मसलों पर भी मुख्यमंत्री मांझी से सलाह लेने की जहमत उठाना पसंद नहीं करते. उनके लिए साहब एक ही हैं और सचिवालय के गलियारों में उन साहब के लिए बड़े साहब विशेषण का इस्तेमाल किया जाता है. जीतन राम मांझी सरकार और बड़े साहब की न पटने वाली दूरी के कारण राज्य में किसी लोकप्रिय सरकार के होने का कोई संकेत कहीं नहीं मिल रहा है, सिवाय मंत्रिमंडल की बैठकों के. राज्य की क़ानून-व्यवस्था की स्थिति तो निम्नतम स्तर पर पहुंच ही रही है, विभिन्न योजनाओं का काम भी प्राय: ठप्प है. वित्तीय वर्ष की अंतिम तिमाही तक भी विकास मद की चालीस प्रतिशत राशि का खर्च होना तो दूर की बात, उसका आवंटन तक नहीं हुआ है. जिसका मन जहां करता है, वहीं विकास की छोटी लाइन की गाड़ी की चेन खींच देता है. फिर, अनेक या पूर्ववर्ती सभी मुख्यमंत्रियों की तरह जीतन राम मांझी भी प्रतिबद्ध नौकरशाही के कायल हैं और उसी हिसाब से अधिकारियों की सेटिंग कर रहे हैं. हाल के कुछ महीनों में उच्चस्तरीय तबादलों में इसकी साफ़ झलक देखने को मिली है. वह भी खास सामाजिक समूह के अधिकारियों को खास-खास जगहों पर ला रहे हैं. उनके सलाहकारों में उक्त सामाजिक समूह के अधिकारी ही शामिल हैं. इससे सचिवालय स्तर पर ही नहीं, प्रमंडल और ज़िला स्तरों पर भी प्रशासन विभाजित हो गया है. विभाजित सरकार, विभाजित दल और विभाजित प्रशासन बिहार की प्रशासनिक जड़ता का मुख्य ज़िम्मेदार तत्व बन गया है.
बिहार की राजनीति में जीतन राम मांझी सरकार की तुलना कुछ मामलों में भागवत झा आज़ाद के मुख्यमंत्रित्व काल से की जा सकती है. आज़ाद जी को भी अपनी पार्टी के विधायकों और प्रदेश नेतृत्व के ऐतिहासिक विरोध का सामना करना पड़ा था. उन दिनों कांग्रेसी विधायकों ने अपने आज़ाद-विरोध को तीखा बनाने के लिए गांधी टोपी पहनी थी और विधानसभा में दशकों बाद उस टोपी की बहार देखी गई थी. उस अभियान के एक नायक मांझी सरकार में भी हैं. कांग्रेस की आंतरिक कलह और पटना से लेकर दिल्ली तक वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं एवं मंत्रियों के आज़ाद के पक्ष-विपक्ष में बंटे होने के कारण पिछड़े बिहार में विकास की चर्चा बंद हो गई थी. तब तक राजीव गांधी बोफोर्स कांड में घिर चुके थे और आलाकमान का इकबाल निम्नतम स्तर पर पहुंच गया था. एकाधिक कारणों से कांग्रेस के पंगु आलाकमान को विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष शिवचंद्र झा एवं कुछ अन्य बागी नेताओं के सामने घुटने टेकने पड़े थे. मांझी सरकार ऐसे ही राजनीतिक माहौल का सामना कर रही है, लेकिन उसका आलाकमान तो पटना में ही है और सरकार के आसपास. इसलिए यह अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है कि आलाकमान किधर या किसके साथ है. जद (यू) के महानायक नीतीश कुमार बहुत सारे अच्छे कार्यों, अच्छी नीतियों और अच्छी बातों के लिए इतिहास में याद किए जाएंगे, ऐसा बिहार के अनेक बुद्धिजीवियों का कहना है और यह तथ्य भी है. लेकिन, यह भी सच है कि अपने उत्तराधिकारी जीतन राम मांझी के साथ जद (यू) के नेताओं के राजनीतिक आचरण को लेकर अपनी भूमिका के लिए भी वह याद किए जाते रहेंगे.

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