किससे किसको ख़तरा है? सरकार कहती है कि ग़रीब आदिवासियों को नक्सलियों से ख़तरा है और आदिवासियों की सुरक्षा करना राज धर्म है. जैसे भी हो, उसका पालन किया जाना है. उस बड़े काम के लिए पुलिस बल नाक़ाफी है. इसलिए सीआरपीएफ है, सीईएसएफ है, नगा और मिजो बटालियन है. दुर्गम इलाक़ों में बागियों से लड़ने का प्रशिक्षण देने के लिए बाक़ायदा स्कूल है. और सबसे आगे सलवा जुडुम है और नक्सलियों से निबटने के लिए हथियारबंद नागरिकों का दस्ता, जिन्हें विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) का दर्जा हासिल है.
पुलिस और सुरक्षा बलों के साथ क़दमताल करते हुए सलवा जुडुम और उसके एसपीओज़ आदिवासियों को नक्सली कहर से बचाने की मुहिम पर हैं. सलवा जुडुम को भारी चिंता है कि आदिवासी गांवों में असुरक्षित हैं और उनका भला इसी में है कि उन्हें सलवा जुडुम के कैंपों में पहुंचा दिया जाए. बड़ी मुश्किल यह है कि आदिवासी नक्सली ख़तरे को समझ नहीं पा रहे और अपने पहाड़-जंगल की गोद को छोड़ कर सलवा जुडुम की छत्रछाया में रहने को तैयार नहीं. इस इनक़ार का मतलब है कि आदिवासी नक्सली हैं या नक्सलियों के असर में हैं और उनके मददगार हैं. उन्हें सबक सिखाने की ज़रूरत है. सबसे पहले तो उन्हें सरकारी सुविधाओं और कल्याणकारी योजनाओं से वंचित कर दिया जाए. बाक़ी काम सरकारी वर्दी और सलवा जुडुम की गैरसरकारी वर्दी करेगी. गांवों पर धावा बोला जाएगा. घरों और खेत-खलिहानों को आग के हवाले किया जाएगा. सलवा जुडुम के पराक्रमी आदिवासी औरतों और लड़कियों पर अपनी मर्दानगी का जौहर दिखाएंगे. उसे चुपचाप देखना और भोगना होगा. वरना बलात्कार के बाद स्तन भी काटे जा सकते हैं और गोली से उड़ाया भी जा सकता है.
दंतेवाड़ा ज़िले के पांच गांवों के आदिवासियों ने सलवा जुडुम का यह फरमान नहीं माना कि ‘गांव छोड़ो और शरणार्थी की ज़िंदगी जियो’, तो बदले में सलवा जुडुम के कोई दो सौ लोगों ने गांवों पर हमला बोला. जम कर लूटपाट और मारपीट की और आख़िर में 24 लोगों को गोली दागे जाने के लिए चुना. पांच खुशकिस्मत थे कि सामने खड़ी मौत को चकमा देकर भाग निकले. लेकिन बाक़ी 19 आदिवासियों की ज़िंदगी देखते-देखते हमेशा के लिए ख़त्म हो गई. 8 जनवरी 2009 को हुए इस हत्याकांड को नक्सलियों से मुठभेड़ का सरकारी नाम मिला. मरने वालों को ख़तरनाक नक्सली बताया गया. उनमें चार महिलाएं भी थीं, लेकिन उस दावे का झूठ परत-दर-परत खुलने लगा है और नक्सली सफाए के नाम पर आयोजित किये गये उस बर्बर कारनामे के विरोध में चौतरफा और दूर-दूर तक आवाज़ें भी उठने लगी हैं. फिलहाल, यह मामला बिलासपुर उच्च न्यायालय में है. यह कोई पहला मामला नहीं है. यह तो संतोषपुर की वारदात का दोहराव है, जिसमें खेतों में काम कर रहे 12 आदिवासियों को गोलियों का निशाना बनाया गया था.
फिलहाल, दंतेवाड़ा ज़िले में लगभग साढ़े छह सौ गांव वीरान हो चुके हैं. यह नक्सली हिंसा से आदिवासियों को बचाने की कवायद का नतीजा है. ज़्यादातर लोग अपनी जान बचा कर ज़िले से सटे आंध्रप्रदेश के जंगलों में भाग निकले. जो नहीं भाग सके, सलवा जुडुम के कैंपों में हैं. उन्हें डरा-धमका कर, हांक कर कैंपों में लाया गया है. उनमें से कुछ को सचमुच नक्सलियों से ख़तरा है. इसलिए कि नक्सली उन्हें अपना दुश्मन या सरकारी मुखबिर मानते हैं. सलवा जुडुम के कैंप किसी नरक से कम नहीं.
आदिवासी कुदरत के क़रीब रहने और खुली हवा में सांस लेने के आदी हैं. लेकिन कैंपों में उन्हें ठूंस कर रखा जाता है और जहां मूलभूत सुविधाओं का भारी अकाल है. इसलिए तरह-तरह की बीमारियां हैं. त्रासदी यह कि घर का कोई सदस्य जंगल में है यानी सलवा जुडुम और एसपीओज़ की आंख की किरकिरी है, तो दूसरा कैंप में घुटने को मजबूर है. बंदूक का राज है. आज़ादी बंधक है. औरतें और लड़कियां और अधिक ग़ुलाम हैसियत में हैं, और उनके यौन शोषण की भयावह कहानियां जब-तब बाहर आती रहती हैं. लेकिन सलवा जुडुम को सरकारी सहयोग और संरक्षण बदस्तूर जारी है.
हालांकि फरवरी में दिल्ली विश्वविद्यालय की नंदिनी सुंदर की याचिका पर, देश की सबसे बड़ी अदालत अपनी नाराज़गी जाहिर करते हुए राज्य सरकार को ताकीद कर चुकी है कि वह नक्सलियों से लड़ने के नाम पर आम नागरिकों को हथियार दिये जाने से बाज आए. उस पर राज्य सरकार ने अदालत को सफाई दी कि सलवा जुडुम का अब कोई वजूद नहीं है. लेकिन उसके कुछ ही दिन बाद डॉ रमन सिंह ने विधानसभा में फरमाया गया यह उनका अपना संकल्प हो कि सलवा जुडुम का अभियान तब तक जारी रहेगा, जब तक नक्सलियों का आतंक ख़त्म नहीं हो जाता. यह तो सलवा जुडुम के आतंक को वैधता प्रदान करने का बयान है कि सलवा जुडुम तीन दशक से जारी नक्सली हिंसा को ख़त्म करने के लिए आदिवासियों का स्वत:स्फूर्त आंदोलन है, तो उसे कैसे रोका जा सकता है? राज्य सरकार का मुखिया कहता है कि सरकार का सलवा जुडुम से कोई लेनादेना नहीं. वहीं उनका गृहमंत्री सरकार द्वारा एसपीओज़ को हथियार दिये जाने को उचित ठहराता है. नहीं भूला जाना चाहिए कि टाटा ने बस्तर में इस्पात संयंत्र के लिए राज्य सरकार से 4 जून 2005 को करार किया था, और उसके चौबीस घंटे के भीतर सलवा जुडुम की हलचल शुरू हो गई थी.
उससे पहले नक्सली यह इरादा जाहिर कर चुके थे कि वे विस्थापन पर चुप नहीं बैठेंगे. सलवा जुडुम उसी चुनौती का जवाब है कि चाहे जो हो, विकास तो होकर रहेगा और विकास के लिए कंपनियों की सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाएगा. मंशा सरकारी है, लेकिन चेहरा गैर सरकारी है और अंदाज़ क़ातिलाना और वहशियाना है. एसपीओज़ और सुरक्षा बलों पर साढ़े पांच सौ हत्याओं के, सौ से अधिक गांवों में आगजनी और लूट के, जबकि 99 बलात्कार के मामले दर्ज हैं. यह वे मामले हैं, जो किसी तरह दर्ज हो सके.
शुक्र है कि सलवा जुडुम दंतेवाड़ा ज़िले तक सीमित है, और जिसमें दंतेवाड़ा को बांट कर पिछले अगस्त में बनाया गया नया ज़िला बीजापुर भी शामिल है. आलम यह है कि दक्षिण बस्तर का यह इलाक़ा दो हिस्सों में है. एक हिस्से में सुरक्षा बल और सलवा जुडुम का सिक्का चलता है और दूसरे हिस्से में नक्सलियों का. दोनों तरफ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी व्यवस्थाएं तहस-नहस हैं. बच्चों के अधिकारों की तो शामत है.
खबर है कि उड़ीसा सरकार भी छत्तीसगढ़ की तर्ज पर नक्सलियों को उखाड़ फेंकने के लिए दो हज़ार आदिवासी युवकों को एसपीओज़ का ओहदा दिये जाने की योजना बना रही है. राम जाने क्या होगा आगे?
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