येचुरी के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी होगी कि वह पार्टी का देश भर में विस्तार करने पर ध्यान दें. ऐसे में, जबकि सभी क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने राज्यों से निकल कर दूसरे राज्यों में दस्तक देने लगी हैं, तब माकपा का स़िर्फ दो-तीन राज्यों में सिमटे रहना उसके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है. येचुरी के पास खुद को साबित करने के लिए समय भी बहुत कम है, क्योंकि पार्टी को अगले साल ही उनके नेतृत्व में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में उतरना होगा, जहां उसकी टक्कर उसी पार्टी से होने वाली है, जिसने गत विधानसभा चुनाव में तो उसे राज्य से बेदखल किया ही था, लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी थी.
सीताराम येचुरी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नए महासचिव चुने गए हैं. पार्टी के इस सबसे अहम पद के लिए रामचंद्रन पिल्लई द्वारा अपना नाम वापस लेने के बाद येचुरी को यह मा़ैका मिला. वह पार्टी के पांचवें महासचिव हैं. महासचिव बनने के बाद येचुरी के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वह पार्टी को दोबारा उस मुकाम तक पहुंचा सकेंगे, जहां पार्टी के शिखर पुरुष रहे कॉमरेड ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत ने छोड़ा था? क्या येचुरी पार्टी का सिमटता जनाधार उसे दोबारा वापस दिला सकते हैं? यह इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि येचुरी के सामने ज़िम्मेदारियों और उम्मीदों का बड़ा पहाड़ खड़ा है. दूसरी तऱफ वर्तमान में एकमात्र राज्य त्रिपुरा में ही माकपा शासित सरकार है. आइए देखते हैं कि सीताराम येचुरी के सामने कौन-कौन सी चुनौतियां हैं और वह उनका मुकाबला कैसे पार पाएंगे.
वर्ष 2008 में परमाणु करार को लेकर सरकार गिराने पर आमादा हो जाने वाली माकपा के उस क़दम ने जहां देश की बागडोर संभाल रहे मनमोहन सिंह और उनकी पार्टी कांग्रेस को हीरो साबित कर दिया था, वहीं स्वयं माकपा पर विकास विरोधी होने का ठप्पा लग गया था, जो आज तक नहीं हट सका. ऐसे में येचुरी को पार्टी की बिगड़ी छवि सुधारते हुए उसे विकास समर्थक होने की होड़ में शामिल करना होगा. दरअसल, बदलते समय के साथ पार्टी आत्म-मुग्धता का शिकार हो गई. यूपीए-एक के दौर में लगातार सरकार अस्थिर करने और धमकी देने की प्रवृत्ति ने दूसरे दलों में उसकी स्वीकार्यकता कम कर दी. सरल एवं सुलझे येचुरी के अन्य दलों के नेताओं से भी मधुर संबंध हैं. ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि वह दूसरे दलों के साथ सामंजस्य स्थापित करके पार्टी को दोबारा एक सशक्त भूमिका में ला सकेंगे.
प्रकाश करात के दौर में पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि वह युवा वर्ग को लुभाने में पूरी तरह असफल रही, जबकि पुराने नेताओं को एक-एक करके दरकिनार कर दिया गया. कभी माकपा के दिग्गज रहे सोमनाथ चटर्जी और सैफुद्दीन चौधरी आज पार्टी से बाहर हैं, तो पूर्व सांसद अनिल बसु को भी पार्टी ने बहिष्कृत कर रखा है. ऐसे में येचुरी को इन दोनों ही मोर्चों पर पार्टी को स्थापित करना होगा. जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे सीताराम येचुरी को युवाओं पर फोकस करना होगा, क्योंकि इस देश में युवाओं की संख्या काफी अधिक है. ऐसे में उन्हें नज़रअंदाज़ कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. कभी माकपा की पहचान उसके कैडर के लिए भी होती थी, लेकिन पश्चिम बंगाल में तृणमूल के हाथों पटखनी खाने के बाद पार्टी की हालत अब यह है कि उसका अपने सबसे बड़े गढ़ पश्चिम बंगाल में तो कैडर सिमट ही गया है, केरल और त्रिपुरा में भी उसे इस संकट से जूझना पड़ रहा है. पार्टी को किसी भी चुनाव में जीत चाहिए, तो उसे सबसे पहले कैडर को मजबूत करना होगा.
येचुरी के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी होगी कि वह पार्टी का देश भर में विस्तार करने पर ध्यान दें. ऐसे में, जबकि सभी क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने राज्यों से निकल कर दूसरे राज्यों में दस्तक देने लगी हैं, तब माकपा का स़िर्फ दो-तीन राज्यों में सिमटे रहना उसके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है. येचुरी के पास खुद को साबित करने के लिए समय भी बहुत कम है, क्योंकि पार्टी को अगले साल ही उनके नेतृत्व में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में उतरना होगा, जहां उसकी टक्कर उसी पार्टी से होने वाली है, जिसने गत विधानसभा चुनाव में तो उसे राज्य से बेदखल किया ही था, लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी थी. सीपीएम देश में धार्मिक सहिष्णुता एवं सांप्रदायिकता के मुद्दे पर सरकार को घेरने की तैयारी में है. उसके सामने नव-उदारवाद के प्रतिकूल प्रभावों से जूझने के अलावा महिलाओं एवं दलितों के अधिकारों का मुद्दा भी है. सीपीएम को विकास के रास्ते खुद तय करने होंगे. किसी भी दल से समझौता करने की रणनीति त्याग कर उन दलों के साथ चलना सीपीएम के लिए ठीक होगा, जो खास मुद्दों पर खास समय तक उसके साथ सक्रिय रहे हों. सोशल मीडिया के बिना आज सब कुछ अधूरा है. इसलिए पार्टी को देश का मिजाज भांपते हुए सोशल मीडिया से जुड़ना होगा. जाहिर है, पार्टी जब तक लोगों के मन की बात नहीं समझेगी, तब तक उसका विस्तार संभव नहीं होगा.