केंद्र से कांग्रेस सरकार के पटाछेप का एक कारण ये भी था कि वो बेरोजगारी खत्म नहीं कर सकी. नई सरकार द्वारा दिखाए गए अच्छे दिनों के सपने बेरोजगारों के लिए भी थे. हालांकि अपने अच्छे दिनों के इंतजार में वे अब भी नौकरीविहीन हैं, इधर सरकार खुद कह रही है कि साल-दर-साल नौकरियों में कमी आती जा रही है. फिर कैसे आएंगे बेरोजगारों के अच्छे दिन…

govt29 मार्च को जब देश लोकसभा से जीएसटी को मंजूरी मिल जाने की खुशियां मना रहा था, उसी दिन संसद से ही देश के वर्तमान और भविष्य की दशा-दिशा बताने वाली एक और खबर निकली. लेकिन उस दिन या अगले दिन की खबरों में भी उतनी जगह नहीं पा सकी, जितनी की जीएसटी. हालांकि जीएसटी की सफलता भी उसी पर टिकी है, क्योंकि जब रोजगार ही नहीं रहेगा तो फिर टैक्स कहां से आएगा. 30 मार्च को लोकसभा में ही सरकार ने राजनीतिक दलों की कमाई में अड़ंगा डालने वाले राज्यसभा के उन पांच संशोधनों को खारिज कर दिया, जिनमे से एक में राजनीतिक चंदे की सीमा को कंपनियों के लाभ का 7.5 प्रतिशत तक करने की बात कही गई थी. लेकिन अ़फसोस कि तब भी किसी के लिए यह बड़ी चिंता की बात नहीं थी कि जनता की कमाई क्यों कम हो रही है. विपक्ष ने भी सरकार से इसका कारण नहीं पूछा कि साल-दर-साल नौकरियों में कमी क्यों आती जा रही है और क्या कारण है कि रोजगार उत्सर्जन के लिए बनाई गई तमाम योजनाएं फ्लॉप साबित हो रही हैं.

दरअसल, 30 मार्च को कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने लोकसभा में कुछ ऐसे आंकड़े पेश किए, जो ये साबित करते हैं कि रोजगार उत्सर्जन की दृष्टि से मोदी सरकार अपने कार्यकाल के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. मंत्री जी ने सदन को बताया कि साल 2013 की तुलना में 2015 में केंद्र सरकार की सीधी भर्तियों में 89 प्रतिशत तक की कमी आई है. वर्तमान समय के लिहाज से इसे एक भयावह आंकड़ा कहा जा सकता है, क्योंकि भारत अभी बेरोजगारी के एक बुरे दौर से गुजर रहा है. गौर करने वाली बात ये भी है कि केंद्र द्वारा सीधी भर्तियों के आंकड़े में साल दर साल कमी आती जा रही है. साल 2013 में केंद्र द्वारा की गई सीधी भर्तियों में 1,54,841 लोगों को रोजगार मिला था, जो 2014 में घटकर 1,26,261 रह गया.

साल 2015 में इसमें जबर्दस्त गिरावट आई और केंद्र की तरफ से की जाने वाली भर्तियों के माध्यम से केवल 15,877 लोग ही रोजगार पा सके. नौकरियों की ये संख्या केंद्र सरकार के 74 विभागों को मिलाकर है. गौर करने वाली बात यह भी है कि हाशिए पर पड़े उन लोगों के रोजगार उत्सर्जन में भी भारी कमी आई है, जिन्हें हर सरकार अपना बताती रही है. इसी दौरान अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों को दी जाने वाली नौकरियों में 90 प्रतिशत तक की कमी आई है. साल 2013 में इन जातियों के 92,928 लोगों की केंद्र की तरफ से दी जाने वाली नौकरियों में भर्ती हुई थी, जो 2014 में घटकर 72,077 हो गई, जबकि 2015 में ऐसी नौकरियां धड़ाम से गिरीं और इनकी संख्या केवल 8,436 हो गई.

इससे पहले बजट सत्र में ही सरकार के एक अन्य मंत्री ने भी इस दिशा में सदन का ध्यान दिलाया था. केंद्रीय योजना राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने आंकड़ों के जरिए सदन को बताया था कि बेरोजगारी दर में इजाफा हो रहा है. 6 फरवरी को राज्यसभा में पूरक सवालों का जवाब देते हुए राव इंद्रजीत सिंह ने जानकारी दी थी कि वर्तमान समय में बेराजगारी दर 5 फीसदी को पार कर रही है, जबकि अनुसूचित जाति के बीच बेराजगारी की दर सामान्य से ज्यादा, 5.2 फीसदी है. मंत्री जी ने ही बताया था कि जो बेरोजगारी दर आज 5 फीसदी है, वो 2013 में 4.9 फीसदी, 2012 में 4.7 फीसदी और 2011 में 3.8 फीसदी थी. वहीं, साल 2011 में अनुसूचित जाति के बीच बेरोजगार की ये दर 3.1 फीसदी थी, जो आज 5.2 फीसदी है.

रोजगार देने के मामले में सरकार के दावोें व हकीकत की पड़ताल करें, तो इसमें भी वास्तविकता कुछ और ही नजर आती है. इस बार के बजट में ये बात सामने आई थी कि सरकार ने 2,80,000 नौकरियों के लिए बजट का प्रावधान किया है. सरकार की तरफ से इसे ‘नौकरियों की बाढ़’ कहा गया. आयकर विभाग में सबसे ज्यादा नौकरियों की बात कही गई थी. इस विभाग में नौकरियों की संख्या 46,000 से बढ़ाकर 80,000 किए जाने की बात थी. इसमेंं कहा गया था कि उत्पाद शुल्क विभाग में भी 41,000 नई भर्तियां की जाएंगी.

लेकिन कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह द्वारा लोकसभा में बताए गए आंकड़े इसमें संदेह पैदा करते हैं कि बजट में जितनी नौकरियों की बात कही गई है, वे जमीन पर उतर पाएंगी. दो वर्षों के भीतर जब केंद्र सरकार की नौकरियों में 89 फीसदी की कमी हो सकती है, तो फिर कैसें मानें कि सरकार ‘नौकरियों की बाढ़’ लाने वाली है. इन दावों पर चर्चा के बीच ये भी गौर करने वाली बात है कि केंद्र सरकार के ही राजस्व विभाग में बीते 8 सालों के दौरान महज 25 हजार भर्तियां हुई हैं. 2006 से 2014 के दौरान राजस्व विभाग में केवल 25,070 लोग नौकरियां पा सके.

किसी एक विभाग द्वारा सबसे ज्यादा नौकरियां देने के मामले में रेलवे अव्वल है. लेकिन वर्तमान समय में रोजगार उत्सर्जन के लिहाज से उसकी भी हालत खस्ता है. हाल में हुए यूपी चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा था कि बीते एक साल में रेलवे ने एक लाख लोगों को नौकरी दी है. लेकिन हकीकत कुछ और है. रेलवे की कार्यक्षमता को लेकर जरूरी लोगों की संख्या को 2014 की तुलना में 2015-18 के लिए घटा दिया गया है. वो भी दो लाख से ज्यादा. इस बार के बजट में इस बात का जिक्र है कि 1 जनवरी 2014 को रेलवे की मंजूर क्षमता 15,57,000 थी, जिसे 2015-18 के लिए 13,26,437 से लेकर 13,31,433 कर दिया गया है. इसमें ध्यान देने वाली बात ये भी है कि 2014 में जब रेलवे को 15,57,000 लोगों की जरूरत थी, तब भी यहां 13,61,000 लोग ही काम कर रहे थे.

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सरकार के पास वेकेंसी नहीं है, या लोगों की जरूरत नहीं है. नौकरियों के लिए पद खाली हैं, लेकिन फिर भी बहाली नहीं हो पा रही और बड़ी संख्या में युवा बेरोजगार बैठे हैं. कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने ही बताया था कि केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में साढ़े सात लाख से ज्यादा पद खाली हैं. जुलाई 2016 में एक लिखित जवाब में मंत्री जी ने लोकसभा में बताया था कि 1 जुलाई 2014 को केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों को मिलाकर 40.48 लाख पद थे, जिनमें से 33.01 लाख पदों पर ही नियुक्तियां की जा सकी थीं. मंत्री जी ने सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए ये बात कही थी. उन्होंने उस रिपोर्ट के अनुसार बताया था कि 1 जनवरी 2014 को केंद्र सरकार के अधीन 7,74,000 पद खाली हैं.

हालांकि कई ऐसे विभागों में जहां कर्मियों की ज्यादा जरूरत है और बिना भर्ती के काम नहीं चल सकता, वहां भी समान्य रूप से नौकरी पर रखने की जगह समान्य से कम वेतन और बिना अन्य सुविधाओं के ठेके पर लोग बहाल किए जा रहे हैं. फ्लेक्सी स्टाफ के रूप में जाने जाने वाले ऐसे कर्मी काम तो वही करते हैं, जो उस पद पर सीधी भर्ती से आए हुए लोग करते हैं, लेकिन इन्हें उनकी तुलना में बहुत ही कम सुविधाएं दी जाती हैं. भारत में फ्लेक्सी स्टाफ का ये चलन इतनी तेजी से पांव पसार रहा है कि इस मामले में भारत जल्द ही अमेरिका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर आ जाएगा. हमारे देश में फ्लेक्सी स्टाफिंग 20 फीसदी की दर से बढ़ रही है और 2018 में भारत में इनकी संख्या 2 करोड़ 90 लाख हो जाएगी.

स्वरोजगार की राह भी आसान नहीं

ठीक से स्टार्ट भी नहीं हुई स्टार्टअप

16 जनवरी 2016 को स्टार्टअप इंडिया का एक्शन प्लान पेश करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सरकार इस योजना के जरिए देश में स्टार्टअप कंपनियों को बढ़ावा देगी. उसी समय के संबोधन में ओयो रूम्स के संस्थापक रीतेश अग्रवाल की बातें सुनकर प्रधानमंत्री ने कहा था कि रीतेश की बातें सुन रहा था, मुझे हैरानी हुई कि एक चायवाले ने एक होटल चेन शुरू करने के बारे में क्यों नहीं सोचा. शायद प्रधानमंत्री जी को इस सवाल का जवाब मिल गया हो, क्योंकि 10,000 करोड़ के भारी-भरखम बजट वाली इस योजना के लिए सरकार की तरफ से अब तक केवल 5 करोड़ 66 लाख रुपए ही जारी हुए हैं. स्टार्टअप इंडिया को लेकर तब प्रधानमंत्री जी ने कहा था कि स्टार्टअप कंपनियों को बढ़ावा देने के लिए 10 हजार करोड़ के सरकारी फंड का प्रावधान किया गया है.

उस समय यह भी कहा गया था कि स्टार्टअप के लिए पेटेंट एप्लिकेशन लगाने पर 80 पर्सेंट छूट और पहले तीन साल तक मुनाफे पर टैक्स में छूट मिलेगी. इसी योजना के अंतर्गत स्कूली छात्रों के इनोवेशन को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाने की भी बात कही गई थी. लेकिन वर्तमान की वास्तविकता इन घोषणाओं से बहुत अलग है.

आरटीआई के जरिए एक अखबार द्वारा पूछे गए प्रश्नों के जवाब में सरकार ने बताया है कि स्टार्टअप इंडिया के लिए 22 जनवरी 2016 को जिस 10,000 करोड़ के फंड की बात कही गई थी, उसमें से अब तक 1,315 करोड़ का ही फंड बना गया है और इसमें से भी अब तक केवल 5 करोड़ 66 लाख रुपए ही जारी हुए हैं. हालांकि चार निवेश कंपनियों को 110 करोड़ देने की बात कही गई है. अब ये सोचने वाली बात है कि जिस योजना को नौकरियां पैदा करने के लिए जादू की छड़ी की तरह प्रचारित किया गया, उसके लिए अब तक ठीक से फंड भी जारी नहीं किया जा सका है. 

दस्तावेजों के मकड़जाल में उलझी मुद्रा योजना

माइक्रो यूनिट्स डेवलेपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी अर्थात मुद्रा योजना के शुभारंभ के मौके पर प्रधानमंत्री ने एक बात कही थी कि बहुत सी चीजें सिर्फ दृष्टिकोण के आसपास मंडराती रहती हैं, लेकिन उनकी वास्तविकता बिल्कुल अलग होती है. प्रधानमंत्री जी की ये बात वर्तमान समय में मुद्रा योजना की सार्थकता पर सटीक बैठती है, क्योंकि इस योजना को लेकर जिस तरह का दृष्टिकोण बनाया गया है, वास्तविकता उससे बिल्कुल अलग है.

पहली बात तो ये कि जो मोदी सरकार उद्योग-धंधों को फाइलों की जकड़न से बाहर निकालने की बात करती है, उसी ने मुद्रा योजना को दस्तावेजों में कैद कर दिया है. इस योजना की एक ये सच्चाई भी सामने आ रही है कि इसके जरिए लोन लेने पर जिस दर से ब्याज का भुगतान करना होता है, उससे कम दर पर भारत के गांवों में महाजन से सूद पर पैसे मिल जाते हैं.

इस बारे में बताते हुए यूपी के इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नीरज सिंघल कहते हैं कि मुद्रा बैंक से छोटे कारोबारी को भी 11.25 फीसदी से 11.75 फीसदी की दर से लोन मिलता है, जो किसी भी तरह से कारोबारियों के हित में नहीं है. मुद्रा योजना को छोटे कारोबारियों के हित के लिए अमल में लाया गया था, लेकिन इसका फायदा लेने के लिए इतने दस्तावेजों को अनिवार्य कर दिया गया है, जिनसे छोटे कारोबारियों का कभी वास्ता ही नहीं होता. जैसे, इसके लिए 5 साल का सीएमए डाटा देना अनिवार्य है.

सीएमए यानि क्रेडिट मॉनिटरिंग अरेंजमेंट डाटा, बैंक से मुद्रा योजना के तहत लोन लेने के लिए जरूरी है. बैंक इस डाटा को देखकर ही लोन देने या नहीं देने का फैसला लेते हैं. सीएमए डाटा सीए के जरिए बनवाया जाता है, जिसके लिए सीए 25-30 हजार रुपए फीस लेते हैं. एक छोटे कारोबारी को जिसे 50,000 का लोन लेना हो, उसके लिए भी सीएमए डाटा बनावाना जरूरी होगा.

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