जब अन्ना हजारे लोकपाल और लोकायुक्त के लिए आंदोलन कर रहे थे, तो कई लोगों को लगता था कि लोकपाल और लोकायुक्त बनते ही देश में भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा. आज भी कई लोग इन संस्थानों की मांग को लेकर ज़मीन-आसमान एक करने पर तुले हैं. लेकिन, पिछले कुछ समय से जिस तरह की खबरें आ रही हैं, वे लोकपाल और लोकायुक्त के लिए संघर्ष करने वालों के लिए किसी सदमे से कम नहीं हैं. जब अन्ना हजारे दिल्ली में आंदोलन कर रहे थे, तब किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह लोकपाल के खिला़फ एक शब्द बोल दे, क्योंकि ऐसा करने पर लोगों द्वारा उसे भ्रष्टाचारियों का दलाल घोषित कर दिए जाने का डर था. मीडिया ने लोकपाल और लोकायुक्त नामक संस्थानों की ऐसी मार्केटिंग की कि ये दोनों ईमानदारी और पारदर्शिता के पर्याय बन गए.
आज पूरे देश में लोकायुक्त की रिपोर्ट का नाम सुनते ही जनता द्वारा चुनी सरकार से लेकर राज्यपाल और चुनाव आयोग तक कांपने लगते हैं. सब दबाव में आ जाते हैं. इस देश का सौभाग्य है कि सुप्रीम कोर्ट किसी के दबाव में नहीं आता है, वर्ना अनर्थ हो गया होता. उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त को सुप्रीम कोर्ट से झटका लगा है. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से उन लोगों की याद आ गई, जो अन्ना आंदोलन के समय कह रहे थे कि अगर लोकपाल और लोकायुक्त ग़लत फैसले लेने लगे, तो वह किसके प्रति ज़िम्मेदार होगा. अगर लोकपाल और लोकायुक्त ही राजनीति का अड्डा बन जाएंगे, तो उन पर कैसे नियंत्रण किया जाएगा. अगर लोकपाल और लोकायुक्त ही भ्रष्ट निकल गया, तो भ्रष्टाचार पर कैसे लगाम लगाई जा सकेगी. उस वक्त ये सवाल भी उठाए जा रहे थे कि क्या किसी प्रजातंत्र में लोकपाल और लोकायुक्त को इतनी शक्तियां दी जा सकती हैं कि वह बिल्कुल तानाशाह बन जाए. क्या किसी प्रजातंत्र में हम ऐसी संस्था बना सकते हैं, जो बिल्कुल निरंकुश हो और जिसके भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का कोई तरीका न बचे. आज वही डर सही साबित होने लगा है. हम एक ऐसी शर्मनाक कहानी आपके सामने रख रहे हैं.
उमा शंकर सिंह रसड़ा विधानसभा क्षेत्र (बलिया) के विधायक हैं. कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने उन्हें विधायक पद से बर्खास्त कर दिया था. बर्खास्तगी की वजह उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त की रिपोर्ट थी. लोकायुक्त ने यह रिपोर्ट राज्यपाल को सौंपी थी. समझने वाली बात यह है कि लोकायुक्त के पास किसी विधायक को बर्खास्त करने की शक्ति नहीं है, लेकिन इसके बावजूद लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में खुद-ब-खुद उमा शंकर सिंह को अयोग्य करार दिया था. राज्यपाल ने इस रिपोर्ट को चुनाव आयोग के पास भेज दिया. चुनाव आयोग ने भी लोकायुक्त की जांच को आधार बनाकर उमा शंकर सिंह को अयोग्य करार दिया. इसके बाद राज्यपाल ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. लेकिन, इस मामले में लोकायुक्त को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्यपाल और चुनाव आयोग के फैसले पर रोक लगा दी और उमा शंकर सिंह की विधायकी बहाल कर दी. इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले के खिला़फ लोकायुक्त सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए.
सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ, वह चौंकाने वाला है. जस्टिस आरके अग्रवाल एवं जस्टिस अमिताभ रॉय की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली उत्तर प्रदेश लोकायुक्त की याचिका खारिज कर दी. रसड़ा के विधायक उमाशंकर सिंह को सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल गई. दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 28 मई को बसपा विधायक की सदस्यता बहाल रखते हुए आदेश दिया था कि चुनाव आयोग 15 जून से मामले की सुनवाई दोबारा करे. साथ ही हाईकोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा था कि लोकायुक्त को भ्रष्टाचार के मामले में जांच करने का अधिकार है, लेकिन वह किसी विधायक की सदस्यता रद्द करने की सिफारिश नहीं कर सकता. तो पहला सवाल यह है कि लोकायुक्त ने विधायक की सदस्यता रद्द करने की सिफारिश क्यों की? दूसरा सवाल यह है कि राज्यपाल ने लोकायुक्त की रिपोर्ट को इतनी तरजीह क्यों दी? और, तीसरा सवाल यह है कि चुनाव आयोग ने भी लोकायुक्त की रिपोर्ट को ब्रह्म-सत्य मानकर फैसला क्यों लिया? होना तो यह चाहिए था कि शिकायत मिलने पर चुनाव आयोग स्वयं जांच करता और अगर उसकी जांच में साक्ष्य मिलते, तो वह सदस्यता रद्द करने का फैसला ले सकता था. आ़िखर ऐसी क्या बात है कि लोकायुक्त की रिपोर्ट आते ही राज्यपाल और चुनाव आयोग के हाथ-पैर फूलने लगे?
उमा शंकर सिंह रसड़ा विधानसभा क्षेत्र (बलिया) के विधायक हैं. कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने उन्हें विधायक पद से बर्खास्त कर दिया था. बर्खास्तगी की वजह उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त की रिपोर्ट थी. लोकायुक्त ने यह रिपोर्ट राज्यपाल को सौंपी थी. समझने वाली बात यह है कि लोकायुक्त के पास किसी विधायक को बर्खास्त करने की शक्ति नहीं है, लेकिन इसके बावजूद लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में खुद-ब-खुद उमा शंकर सिंह को अयोग्य करार दिया था.
ग़ौर करने वाली एक और बात है. जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपना फैसला दे दिया और उमा शंकर सिंह की विधायकी बहाल कर दी, तो उस फैसले को चुनौती देने लोकायुक्त साहब सुप्रीम कोर्ट क्यों पहुंच गए? वह भी इतनी स्पीड से, जबकि कोर्ट में छुट्टियां चल रही हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला तो चुनाव आयोग के फैसले के खिला़फ था. जब लोकायुक्त सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, तो वहां उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश रद्द करने की मांग की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जजों ने लोकायुक्त की कार्यशैली सही तरीके से पहचान ली. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि आपको यानी लोकायुक्त को इस मामले में इतनी रुचि क्यों है और आपके कोर्ट आने के पीछे क्या मंशा है? अगर कोर्ट द्वारा लोकायुक्त की मंशा पर टिप्पणी होने लगे, तो इसका मतलब सा़फ है कि दाल में ज़रूर कुछ काला है. दरअसल, यह मामला 2011 में शुरू हुआ, जब उमा शंकर सिंह के ही गांव के एक वकील सुभाष सिंह उर्फ क्रांतिकारी ने लोकायुक्त में उनके खिला़फ एक शिकायत दर्ज करा दी. आरोप भ्रष्टाचार का था कि वह अपने रसूख के बल पर और ग़ैर-क़ानूनी तरीके से सरकारी ठेके लेते हैं. यह शिकायत 2011 में की गई, जब उमा शंकर सिंह विधायक नहीं थे. जबकि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2012 में हुआ था. दूसरी बात यह कि जब भी कोई व्यक्ति शिकायत करता है, तो हल़फनामे के रूप में करता है और शिकायत के साथ उसे साक्ष्य भी देने पड़ते हैं. 2011 में उमा शंकर सिंह विधायक नहीं थे. कोई सरकारी कर्मचारी या पदाधिकारी नहीं थे. वह उस वक्त सरकार द्वारा पंजीकृत एक ठेकेदार थे, फिर भी लोकायुक्त ने शिकायत स्वीकार कर ली. पहली बात तो यह कि लोकायुक्त को उसे स्वीकार ही नहीं करना चाहिए था. दूसरी बात यह कि उमा शंकर सिंह न तो सरकार की ब्लैक लिस्ट में थे, न उन पर काम न करने या खराब काम करने का कोई आरोप था और न कोई भ्रष्टाचार का आरोप था. लोकायुक्त ने शिकायत तो स्वीकार कर ली, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की.
उमा शंकर सिंह छह मार्च, 2012 को चुनाव जीतकर विधायक बन जाते हैं उसके बाद शिकायतकर्ता से लोकायुक्त ने एक हल़फनामा लिया और उमा शंकर सिंह को धारा 9 (ए) के तहत नोटिस दिया कि विधायक बनने के बाद आपने ठेकेदारी की, जबकि भारतीय संविधान के मुताबिक, सांसद या विधायक बनने के बाद कोई भी व्यक्ति सरकारी ठेके नहीं ले सकता. नोट करने वाली बात यह है कि उमा शंकर सिंह जिस फर्म के नाम पर पीडब्ल्यूडी के ठेके लेते थे, वह फर्म 2009 में लिमिटेड कंपनी बन गई थी. क़ानून के मुताबिक, अगर कोई लिमिटेड कंपनी है, तो इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता है कि सांसद या विधायक उसके सीएमडी हैं या कुछ और. फिर वह सांसद या विधायक इस क़ानून की परिधि से बाहर चला जाता है. उमा शंकर सिंह की फर्म का नाम छात्र शक्ति कंस्ट्रक्शन कंपनी था, जो 2009 में सीएस इंफ्रा कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बन गई, जिसे 2010 में पीडब्ल्यूडी ने स्वीकार कर लिया. मतलब यह कि उमा शंकर सिंह की पुरानी छात्र शक्ति कंस्ट्रक्शन कंपनी नामक फर्म का अस्तित्व समाप्त हो गया है. अब यह लिमिटेड कंपनी में कनवर्ट हो गई है. 2010 के बाद से जो भी सरकारी ठेका मिला, वह एक लिमिटेड कंपनी को मिला.
सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ, वह चौंकाने वाला है. जस्टिस आरके अग्रवाल एवं जस्टिस अमिताभ रॉय की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली उत्तर प्रदेश लोकायुक्त की याचिका खारिज कर दी. रसड़ा के विधायक उमाशंकर सिंह को सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल गई. दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 28 मई को बसपा विधायक की सदस्यता बहाल रखते हुए आदेश दिया था कि चुनाव आयोग 15 जून से मामले की सुनवाई दोबारा करे.
अब सवाल यह उठता है कि अगर किसी सांसद या विधायक की अयोग्यता का मामला बनता है, तो उसकी जांच करने का अधिकार चुनाव आयोग को है. लोकायुक्त को उसकी जांच करने का अधिकार नहीं है, बावजूद इसके वह इस मामले में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रहे थे? लोकायुक्त को तो स़िर्फ भ्रष्टाचार के मामले में जांच करने का अधिकार है. सांसद या विधायक की अयोग्यता परखने की शक्ति लोकायुक्त को किसने दे दी? साथ ही जब लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट राज्यपाल और मुख्यमंत्री को सौंपी, तो उनके अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर काम करने पर राज्यपाल ने आपत्ति क्यों नहीं उठाई? दरअसल, लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा कि लोकायुक्त के पास किसी विधायक को अयोग्य घोषित या बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है, लेकिन उन्होंने बड़ी चतुराई से उमा शंकर सिंह के मामले को विधायक बजरंग बहादुर सिंह के साथ जोड़ दिया और यह भी कह दिया कि राज्यपाल को चुनाव आयोग के माध्यम से फैसला लेना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सा़फ-सा़फ कहा है कि इस मामले में लोकायुक्त के पास कोई अधिकार नहीं है, लेकिन लोकायुक्त की रिपोर्ट को पूरी तरह से अमान्य नहीं घोषित किया जा सकता है. यह रिपोर्ट राज्यपाल के समक्ष एक संदेह या सवाल उठाने भर के लिए मान्य है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं. मतलब यह कि लोकायुक्त की रिपोर्ट अपने आप में परिपूर्ण या अंतिम नहीं है. लोकायुक्त की रिपोर्ट का महत्व स़िर्फ इतना है कि वह राज्यपाल के समक्ष एक संदेह अंकित करती है, ताकि राज्यपाल उस पर जांच के आदेश दें या मामले को सक्षम प्राधिकारी को भेज दें. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि लोकायुक्त की रिपोर्ट आते ही राज्यपाल ने उसे चुनाव आयोग को भेज दिया और चुनाव आयोग ने भी लोकायुक्त की रिपोर्ट को ही आधार बनाकर उमा शंकर सिंह को अयोग्य करार दिया, जिसके बाद उमा शंकर सिंह को विधायक पद से बर्खास्त कर दिया गया. किसी विधायक के बर्खास्त होने का मतलब है कि उस विधानसभा क्षेत्र में छह महीने के भीतर फिर से चुनाव हो. चुनाव आयोग चुनाव से पहले की प्रक्रिया शुरू कर देता है.
बर्खास्त होने के तुरंत बाद उमा शंकर सिंह ने हाईकोर्ट में रिट दायर कर दी. हाईकोर्ट ने रिट मंजूर भी कर ली. इसके बाद रसड़ा विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव की प्रक्रिया रुकवाने के लिए उमा शंकर सिंह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, जहां उन्हें राहत मिली. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को सुनकर आदेश दिया कि रसड़ा विधानसभा में चुनाव प्रक्रिया रोक दी जाए. इसके बाद हाईकोर्ट में रिट पिटीशन पर सुनवाई शुरू हुई, जिसका फैसला उमा शंकर सिंह के पक्ष में आया. हैरानी की बात तो यह है कि हाईकोर्ट से किरकिरी होने के बाद लोकायुक्त ने सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पिटीशन लगा दी. अब सवाल यह है कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद लोकायुक्त को सुप्रीम कोर्ट जाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? जब यह सबको पता है कि किसी विधायक को बर्खास्त करने या उसकी जांच करने का अधिकार लोकायुक्त के पास नहीं है, तब वह इस मामले में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं? ऐसे में लोकायुक्त पर कई प्रकार के कष्टप्रद सवाल उठना लाजिमी है.
सुप्रीम कोर्ट ने लोकायुक्त की याचिका न स़िर्फ खारिज की, बल्कि सुनवाई के दौरान उनकी मंशा पर टिप्पणी भी कर दी. अब लोकायुक्त के इस आचरण का जवाब कौन देगा? इन सब कामों में जो खर्च हुआ, वह लोकायुक्त ने अपनी जेब से नहीं, बल्कि जनता के पैसों से किया होगा. उसका हिसाब कौन देगा? एक विधानसभा के विधायक का भविष्य तीन साल तक अधर में लटका रहे, तो जनता की समस्याओं का हल कौन निकालेगा? रसड़ा विधानसभा क्षेत्र के लोगों को जो ऩुकसान हुआ, उसकी भरपाई क्या लोकायुक्त करेंगे?
सुप्रीम कोर्ट ने लोकायुक्त की याचिका न स़िर्फ खारिज की, बल्कि सुनवाई के दौरान उनकी मंशा पर टिप्पणी भी कर दी. अब लोकायुक्त के इस आचरण का जवाब कौन देगा? इन सब कामों में जो खर्च हुआ, वह लोकायुक्त ने अपनी जेब से नहीं, बल्कि जनता के पैसों से किया होगा. उसका हिसाब कौन देगा? एक विधानसभा के विधायक का भविष्य तीन साल तक अधर में लटका रहे, तो जनता की समस्याओं का हल कौन निकालेगा? रसड़ा विधानसभा क्षेत्र के लोगों को जो ऩुकसान हुआ, उसकी भरपाई क्या लोकायुक्त करेंगे? इससे बड़ा सवाल यह है कि लोकायुक्त की जवाबदेही कौन तय करेगा? आज यह कहा जा सकता है कि
जिन-जिन राज्यों में लोकायुक्त हैं, वहां भ्रष्टाचार में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है. यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ज़्यादातर राज्यों में लोकायुक्त का पद अब एक सफेद हाथी बन चुका है. उत्तर प्रदेश और बिहार से मिली सूचनाओं के मुताबिक़, उनके कार्यालयों पर हर साल करोड़ों रुपये ख़र्च हो रहे हैं. 2002 से 2007 के बीच उत्तर प्रदेश लोकायुक्त कार्यालय पर पांच करोड़ 20 लाख रुपये से ज़्यादा ख़र्च हो गए. सवाल यह है कि जनता के इन पांच करोड़ रुपये के बदले हासिल क्या हुआ? क्या उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार खत्म हो गया? जनता के पैसों का इस्तेमाल कुछ लोगों को दफ्तर, गाड़ियां और तनख्वाह देने के लिए करना आ़िखर कहां का न्याय है? उत्तर प्रदेश सरकार को लोकायुक्त के कामकाज पर श्वेत-पत्र जारी करना चाहिए, ताकि जनता को पता चल सके कि लोकायुक्त नामक संस्था ने कितना काम किया है? साथ ही यह भी बताना चाहिए कि अगर लोकायुक्त नामक संस्था न होती, तो क्या वह काम सरकार की दूसरी एजेंसी आसानी से न कर पाती?
अब जरा बिहार में लोकायुक्त कार्यालय पर हुए खर्च को समझते हैं. 2002 से 2007 के बीच बिहार लोकायुक्त कार्यालय पर पांच करोड़ 12 लाख रुपये से ज़्यादा ख़र्च हो गए. इन पांच सालों में इस कार्यालय के पास 8,743 शिकायतें आईं, जिनमें से 7,043 मामलों में जांच शुरू की गई. 131 नौकरशाहों एवं राजनेताओं के ख़िला़फ शिकायतें आईं. इन सभी मामलों में अंतिम कार्रवाई क्या हुई, यह अब तक किसी को पता नहीं है. नौकरशाहों एवं राजनेताओं के ख़िला़फ क्या हुआ, इसकी ख़बर कम से कम मीडिया में तो आज तक नहीं आई है. यह हाल स़िर्फ इन्हीं दो राज्यों का नहीं है, बल्कि और जिन राज्यों में लोकायुक्त हैं, वहां की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है. हर राज्य में लोकायुक्त विवाद के केंद्र बन चुके हैं, साथ ही उनके कामकाज पर सवाल उठने लगे हैं. ऐसा एक भी उदाहरण सामने नहीं आया है, जिसमें लोकायुक्त ने किसी राजनेता के ख़िला़फ कोई कार्रवाई की हो. दरअसल, सूचना आयोग की तरह ही लोकायुक्त का पद भी राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति का एक ज़रिया बन गया है.
अब सवाल यह उठता है कि अगर किसी सांसद या विधायक की अयोग्यता का मामला बनता है, तो उसकी जांच करने का अधिकार चुनाव आयोग को है. लोकायुक्त को उसकी जांच करने का अधिकार नहीं है, बावजूद इसके वह इस मामले में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रहे थे? लोकायुक्त को तो स़िर्फ भ्रष्टाचार के मामले में जांच करने का अधिकार है. सांसद या विधायक की अयोग्यता परखने की शक्ति लोकायुक्त को किसने दे दी? साथ ही जब लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट राज्यपाल और मुख्यमंत्री को सौंपी, तो उनके अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर काम करने पर राज्यपाल ने आपत्ति क्यों नहीं उठाई?
मध्य प्रदेश में तो लोकपाल और सूचना आयुक्त के बीच जंग हो गई. मामला थाने तक पहुंच गया था. बात 2007 की है, जब मध्य प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त और लोकायुक्त आपस में झगड़ते हुए भोपाल के एमपी नगर थाने तक पहुंच गए थे. मामला यह था कि मुख्य सूचना आयुक्त एक प्रकरण में लोकायुक्त के खिला़फ निर्णय सुनाने वाले थे, जो लोकायुक्त कार्यालय से जुड़ी सूचना से संबंधित था. फैसले के एक दिन पहले लोकायुक्त साहब मुख्य सूचना आयुक्त के घर पहुंच गए और उन्होंने उनसे अपने खिला़फ फैसला न सुनाने के लिए कहा. लोकायुक्त स्तर के व्यक्ति द्वारा ऐसी हरकत किसी भी लिहाज से उचित नहीं थी. जब मुख्य सूचना आयुक्त ने अपना फैसला दिया, तो उस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख कर दिया कि लोकायुक्त उन्हें प्रभावित करने के उद्देश्य से उनके घर आए थे. इससे लोकायुक्त नाराज़ हो गए और मामला पुलिस तक पहुंच गया. लोकायुक्त ने कहा कि मुख्य सूचना आयुक्त ने फैसले के बाद यह नोट जोड़ा, जो एक आपराधिक मामला है. इसके बाद मुख्य सूचना आयुक्त ने भी थाने में लोकायुक्त के खिला़फ फैसला प्रभावित करने के लिए दबाव बनाने का प्रकरण दर्ज करा दिया. बाद में इन दोनों का विवाद हाईकोर्ट तक पहुंच गया. ये दोनों संस्थाएं देश में भ्रष्टाचार खत्म करने और पारदर्शिता कायम करने के लिए बनाई गई थीं. मध्य प्रदेश में इन दोनों के इस प्रकार लड़ने से यह साबित होता है कि स़िर्फ संस्थाएं बना देने से ही मसले का हल नहीं निकलता.
जब अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में आंदोलन किया था, तो उस समय लोगों के मन में लोकपाल और लोकायुक्त को लेकर एक अलग-सी छवि बन गई थी. लोगों ने यह सोचा कि इनके बनते ही भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाएगा. विभिन्न राज्यों में लोकायुक्त बने अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं, लेकिन इस संस्था का पतन होना शुरू हो गया है. अन्ना हजारे और उनकी टीम ने देश को बहुत सपने दिखाए थे. अब जबकि राज्यों में लोकायुक्त हैं, तो सपना दिखाने वाली टीम ने भ्रष्टाचार के खिला़फ आंदोलन करना तो दूर, बयान देना भी बंद कर दिया है. अब ऐसा प्रतीत होने लगा है कि विचार-शून्यता की वजह से लोकपाल आंदोलन किसी तार्किक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया. उनके पास भ्रष्टाचार से निपटने का कोई वैचारिक ब्लूप्रिंट नहीं था. वे त्वरित जनभावना और दीर्घकालिक योजनाओं में सामंजस्य नहीं बैठा सके. यही वजह है कि लोकायुक्त भी दूसरी संस्थाओं की तरह व्यक्ति आधारित हो गया.
भ्रष्टाचार एक गंभीर और बड़ी समस्या है. इससे निपटने के लिए देश को एक ज़िम्मेदार और जवाबदेह व्यवस्था की ज़रूरत है. वर्तमान में विभिन्न राज्यों से लोकायुक्तों के बारे में जिस तरह की खबरें आ रही हैं, वे चिंताजनक हैं. लोकपाल और लोकायुक्त को लेकर सरकार को नए सिरे से सोचने की ज़रूरत है. पहले यह तय करना ज़रूरी है कि उनका औचित्य है भी या नहीं. सरकार को यह भी बताना होगा कि हर राज्य में पुलिस है, एंटी करप्शन ब्यूरो है, विजिलेंस डिपार्टमेंट है, सूचना का अधिकार है, अदालत है, पुलिस है, सीबीआई है. जब सब कुछ है, तो फिर लोकपाल और लोकायुक्त का औचित्य क्या है? और, अगर औचित्य है, तो फिर उनकी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही तय करनी होगी, क्योंकि देश को ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह लोकायुक्तों की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है.