ये सारी चीजें हम जैसों को सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोकतंत्र का सम्मान करने वाले राष्ट्रभक्त लोगों की विचारधारा का क्या अब हमारे समाज में कोई स्थान नहीं है? इनका नाम भले ही लें, लेकिन सत्ता इन सबके विचारों के खिलाफ सोच पर चलेगी और चल रही है. अगर हम टीवी चैनलों से गाइड हों और दिशा निर्देश लें, तो यह स्थिति स्थायी बनी रहेगी.
31 साल के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने हाशिमपुरा और मलियाना में मारे गए लोगों को थोड़ा सा न्याय देने की कोशिश की है. 31 साल पहले हमारे पास एक खबर आई और सही कहें तो खबर स्वयं चलकर आई. गाजियाबाद के उस समय के एसएसपी श्री वीएन राय चौथी दुनिया के दफ्तर आए और बताया कि किस तरह हाशिमपुरा के लोगों को लाइन से खड़ा किया, गोली मारी गई और लाशें बहा दी गईं.
उन्होंने कहा कि यह खबर उन्होंने उस समय के एक लोकप्रिय दैनिक को दी, तो उसने छापने से मना कर दिया. फिर यह खबर उन्होंने कई लोगों को बताई, लेकिन सबने छापने से मना कर दिया. तब वे चौथी दुनिया के दफ्तर में आए थे. जब उन्होंने पूरी घटना बताई, तो मैं समझ नहीं पाया कि क्या करना चाहिए. इस खबर को लेकर हमने वीरेंद्र सेंगर से कहा कि वे इस खबर की तह तक जाएं, इसे हम जरूर छापेंगे.
उस समय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री. दंगे काफी दिनों से चल रहे थे. वीरेंद्र सेंगर जब तथ्य लेकर आए तब पता चला कि किस तरह से पीएसी ने हाशिमपुरा के लोगों को घरों से निकाला, नहर के किनारे ले गए, गोली मारी और लाशें बहा दी.
उस समय गाजियाबाद के जिलाधीश नसीम जैदी थे और वीएन राय एसएसपी. नसीम जैदी बाद में देश के मुख्य चुनाव आयुक्त बने और वहीं से रिटायर हुए. दोनों यह खबर मिलने के बाद नहर के किनारे चारों तरफ घूमे. माहौल ऐसा था कि पीएसी के हाथों इनकी अपनी जान भी बहुत सुरक्षित नहीं थी.
जब हमने यह खबर छापी, तो उत्तर प्रदेश सरकार ने सारी कॉपियां खरीद लीं. हमने दोबारा अखबार छापा और प्रतियां बाजार में भेजी, वो भी खरीद ली गईं. जब हमने तीसरी बार फिर छापा, तब वीर बहादुर सिंह का फोन आया कि हम ये भी खरीद लेंगे. मैंने कहा, ‘वीर बहादुर जी, जब तक प्रेस छापने से मना नहीं करता, हम इन कॉपियों को फिर से छापेंगे.’
कोई गिरफ्तार नहीं हुआ, पुलिस के डर से गवाह नहीं आए, जिनके घर के लोग मारे गए थे, उन्होंने केस की पैरोकारी छोड़ दी. लेकिन कुछ ऐसे लोग थे, जिनका न्याय व्यवस्था में विश्वास था. वो इसके पीछे पड़े रहे. एक बार तो अदालत ने यह कहा कि इससे सम्बन्धित एफआईआर और कागज वो लोग लेकर आएं,
जिनके ऊपर जुल्म हुआ है या जिनके घर के लोग मारे गए हैं. निचली अदालत से तो सभी छुट गए थे. हाईकोर्ट में केेस गया और हाईकोर्ट ने 16 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. सुप्रीम कोर्ट में यह सजा बरकरार रहती है या नहीं, पता नहीं, पर कम से कम दिल्ली हाईकोर्ट ने बताया कि वो न्यायिक प्रक्रिया को ईमानदारी के साथ आगे बढ़ाने में रुचि रखता है.
मैं इस केस का जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि अब तो अदालतों को भी धमकियां मिलने लगी हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर को लेकर एक आदेश दिया, इसके पहले उसने मुस्लिम दरगाहों को लेकर आदेश दिया था और महिलाओं को दरगाह के अंदर तक जाने की इजाजत दी थी. मुस्लिम महिलाएं अब दरगाहों के अंदर जाती हैं, जो नहीं जाना चाहें, वो उनकी इच्छा के ऊपर निर्भर करता है. सबरीमाला मंदिर केरल में है.
भगवान अयप्पा का घर है. वहां जब मंदिर बना तब से औरतों का प्रवेश वर्जित था. सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला गया और सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को पूजा करने की इजाजत दी. लेकिन इसका विरोध शुरू हो गया. यह विरोध अगर स्थानीय निवासी या भक्त करते, तो भी बात समझ में आती, सुप्रीम कोर्ट के आदेश का विरोध सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने किया और उसे विरोध करने में किसी तरह का संकोच नहीं हुआ.
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष खुलेआम कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को आस्था के सवालों के ऊपर फैसला नहीं करना चाहिए. यानि सुप्रीम कोर्ट वही करे या कहे जैसा एक बड़ी भीड़ चाहती है. सुप्रीम कोर्ट संविधान का या कानून का पालन न करें. अगर वो कानून का पालन करेगा, संविधान के अनुसार अगर कोई फैसला देगा, तो उस फैसले को लागू नहीं कराया जा सकता है, क्योंकि लागू करने वाली मशीनरी तो केंद्र सरकार या राज्य सरकार के पास है.
हमें मान लेना चाहिए कि अब से पहले हमने जो संविधान, लोकतंत्र, परंपराओं और मानवता आदि के बारे में पढ़ा, वो सब एक तरह से बेमतलब है. जिस तरह से आज का समाज है और जिस तरह से समाज की बनावट बदलती जा रही है, उसमें हमें मान लेना चाहिए कि संविधान या कानून प्रमुख नहीं है.
किस तरह की भीड़ है, उसे आप कैसे समझा सकते हैं, कैसे आस्था और परंपरा के नाम पर आप मानवता के तारों को छिन्न-भिन्न कर सकते हैं, शायद आगे ऐसा ही होने वाला है. मुझे दो प्रधानमंत्रियों की बात याद आती है. वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे, लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा शुरू कर दी थी.
अटल जी राष्ट्रपति के पास जाने से पहले वीपी सिंह से मिलने आए और उनसे कहा कि ‘आप सिर्फ पांच ईंटें ले जाने की इजाजत दे दीजिए, हम पांच ईंटें रखकर चले आएंगे, सरकार से समर्थन वापस नहीं लेगें और सरकार चलती रहेगी.’ वीपी सिंह जी ने कहा, ‘अटल जी, मैं प्रधानमंत्री हूं और अगर मैं सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं कर पाया, तो यह मेरा अपमान नहीं होगा, यह सुप्रीम कोर्ट का अपमान होगा और देश का प्रधानमंत्री सुप्रीम कोर्ट का अपमान नहीं होने दे सकता, नहीं तो हमारे लोकतांत्रिक व्यवस्था का दर्शन ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा.’
अटल जी हंसे और उन्होंने कहा, ‘फिर मैं यहां से जाता हूं और राष्ट्रपति को समर्थन वापसी का पत्र दे देता हूं.’ वीपी सिंह ने कहा, ‘एक आखिरी बात, आप भी कभी न कभी प्रधानमंत्री बनेंगे और जब आप प्रधानमंत्री बनेंगे तो आप अपने कलम की ताकत से जो मुझे आज करने के लिए कह रहे हैं, आप खुद कर लीजिएगा.’ अटल जी चले गए, राष्ट्रपति को उन्होंने समर्थन वापसी का पत्र दे दिया, वीपी सिंह की सरकार गिर गई.
यह 1990 की बात है. 1996, 1998 और 1999 में अटल जी प्रधानमंत्री बने. राम मंदिर को लेकर साधु-संतों के बयान आए, तो वीपी सिंह जी को कुछ याद आया. उन्होंने फौरन अटल जी को फोन करवाया. अटल जी लोकतांत्रिक सोच के प्रधानमंत्री थे, उन्होंने फौरन वीपी सिंह के फोन के जवाब में कॉल बैक किया. वीपी सिंह ने कहा, ‘अटल जी, आपको याद है, एक दिन मैंने आपसे कहा था कि जब आप प्रधानमंत्री बनें, तो आप अपनी कलम की ताकत से राम मंदिर बनवा लीजिएगा, अब क्या स्थिति है?’ वीपी सिंह की की यह बात सुनकर अटल जी जोर से हंसे और उन्होंने कहा कि मैं आपसे बात करूंगा.
अटल जी लगभग सात साल प्रधानमंत्री रहे, लेकिन राम मंदिर का मसला वहीं का वहीं अटका रहा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला नहीं किया था और सुप्रीम कोर्ट के उस यथास्थिति वाले आदेश की अटल जी अवज्ञा नहीं कर पाए.
अब स्वनामधन्य अमित शाह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को जनभावना के विरुद्ध फैसला नहीं करना चाहिए. यानि सुप्रीम कोर्ट राम मंदिर के पक्ष में फैसला करे, जिससे विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण हो. सबरीमाला में इसका रिहर्सल हो चुका है. रिहर्सल का मतलब, सुप्रीम कोर्ट का आदेश अगर खिलाफ में होता है, तो उस आदेश का पालन न हो, लोग वहां जाकर मंदिर बनाना शुरू कर दें और सरकार शांत बैठी रहे. इसकी भी तैयारी कुछ क्षेत्रों में हो रही है.
ये सारी चीजें हम जैसों को सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोकतंत्र का सम्मान करने वाले राष्ट्रभक्त लोगों की विचारधारा का क्या अब हमारे समाज में कोई स्थान नहीं है? इनका नाम भले ही लें, लेकिन सत्ता इन सबके विचारों के खिलाफ सोच पर चलेगी और चल रही है. अगर हम टीवी चैनलों से गाइड हों और दिशा निर्देश लें, तो यह स्थिति स्थायी बनी रहेगी.
लोकतंत्र के प्रति अगर पुनः सम्मान की भावना पैदा करनी हो, तो वो इस देश की जनता ही कर सकती है. देश का संपूर्ण लोकतांत्रिक ढांचा, मानवता का जुड़ाव या भाईचारा, सब अब इस देश के 125 करोड़ लोगों के हाथों में है. देखते हैं कि इस देश की जनता लोकतंत्र चाहती है या लोकतंत्र के नाम पर कुछ और चाहती है.