देश की सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी सीपीएम का पांच दिवसीय 22वां पार्टी कांग्रेस 22 अप्रैल को हैदराबाद में सम्पन्न हो गया. वामपंथी सियासत में दिलचस्पी रखने वालों की निगाहें इस आयोजन पर टिकी थीं. लोगों की रुचि इसमें थी कि सीताराम येचुरी को पार्टी महासचिव का दूसरा कार्यकाल मिलता है या नहीं और कांग्रेस के साथ संभावित गठबंधन या तालमेल पर पार्टी का क्या रुख होता है? यह आयोजन इसलिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि फिलहाल देश में वामपंथी पार्टियां अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही हैं.
पश्चिम बंगाल, जो कभी उनका सबसे मज़बूत किला था, वहां लगातार वामपंथ का आधार खिसक रहा है. यहां भाजपा अपना किला तामीर करने में जुटी है. वहीं त्रिपुरा में 25 साल से सत्ता पर काबिज सीपीएम को भाजपा के हाथों करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है. त्रिपुरा में जीत को भाजपा अपनी सबसे बड़ी वैचारिक जीत की तरह प्रचारित कर रही है.
एक समय तक़रीबन पूरे देश में वामपंथी दलों का मज़बूत संगठनात्मक ढांचा मौजूद था. 1990 के दशक की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों और खुद उनकी गलतियों (जिसे वे ऐतिहासिक गलतियां कहते हैं) ने इस ढांचे को लगभग नष्ट कर दिया. वामपंथी राजनीति पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा तक सिमट कर रह गई. अब वहां भी उनके वजूद पर खतरा मंडरा रहा है. महाराष्ट्र में पार्टी की किसान इकाई द्वारा किसानों के लॉन्ग मार्च का सफल आयोजन, पार्टी के निराश और हताश कार्यकर्ताओं में जोश भर सकता है. ऐसे में देखना यह है कि क्या सीताराम येचुरी अपने दूसरे कार्यकाल में वामपंथ के पतन को रोक पाते हैं या जो सिलसिला पश्चिम बंगाल में सत्ता गंवाने के बाद शुरू हुआ था, वो जारी रहता है?
भाजपा-विरोधी मोर्चा और सीपीएम में दो-फाड़
सीपीएम पोलित ब्यूरो ने 22वां पार्टी कांग्रेस हैदराबाद में आयोजित करने का प्रस्ताव पिछले वर्ष सितम्बर महीने में केंद्रीय समिति के समक्ष रखा था. दरअसल पार्टी कांग्रेस, सीपीएम में फैसले लेने वाली सबसे बड़ी इकाई है. इस कांग्रेस में देश के आर्थिक और सामाजिक मुद्दों के अलावा भाजपा और संघ परिवार से निपटने के उपायों पर भी विचार होना था. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा भाजपा के ख़िला़फ चुनाव में कांग्रेस के साथ किसी तरह के तालमेल का था. इस मुद्दे पर पार्टी सा़फ तौर पर दो भाग में बंटी दिख रही थी. सीताराम येचुरी का ग्रुप भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल के पक्ष में था. वहीं पूर्व महासचिव और पोलित ब्यूरो सदस्य प्रकाश करात का ग्रुप कांग्रेस से किसी तरह के गठबंधन या तालमेल के ख़िला़फ था. इस ग्रुप का प्रस्ताव था कि जहां पार्टी का आधार मज़बूत है, वहां वो अपने दम पर चुनाव लड़े और जहां पार्टी की उपस्थिति नहीं के बराबर है, वहां किसी मज़बूत विपक्षी उम्मीदवार को समर्थन दे.
सीताराम येचुरी की जीत
कांग्रेस के समर्थन के मामले में बाजी सीताराम येचुरी के हाथ लगती दिखी. पार्टी कांग्रेस ने इस वर्ष जनवरी में कोलकाता में सेंट्रल कमिटी के प्रस्ताव में संशोधन कर भाजपा और संघ के ख़िला़फ लड़ाई में कांग्रेस से तालमेल के लिए दरवाज़े खोल दिए. इसे करात ग्रुप की नाकामी के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि जनवरी में कोलकाता सेंट्रल कमिटी की मीटिंग में कांग्रेस के साथ किसी तरह का समझौता नहीं करने का प्रस्ताव करात ग्रुप की ओर से ही पेश किया गया था. अब अगले तीन वर्ष तक पार्टी कांग्रेस के साथ तालमेल के लिए आज़ाद होगी.
बहरहाल, यह प्रस्ताव कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1964 में सीपीएम की स्थापना के बाद यह पहला मौक़ा था जब सेंट्रल कमिटी से पारित किसी प्रस्ताव को पार्टी कांग्रेस में संशोधित किया गया हो. दरअसल कांग्रेस के साथ तालमेल के सवाल ने पार्टी को उसी मुकाम पर खड़ा कर दिया है, जहां से इसकी शुरुआत हुई थी. सीपीएम 1964 में कांग्रेस पार्टी से करीबी और दूरी के सवाल पर सीपीआई से अलग हुई थी.
यहां सबसे दिलचस्प बात यह है कि सीपीएम की केरल इकाई कांग्रेस से समझौते के ख़िला़फ थी, क्योंकि केरल में उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से है. वहीं पश्चिम बंगाल इकाई कांग्रेस से तालमेल के पक्ष में है. यहां सीपीएम का मुकाबला तृणमूल कांग्रेस से है, लेकिन भाजपा लगातार सीपीएम के जनाधार में सेंध लगा रही है. ऐसे में पश्चिम बंगाल इकाई सीताराम येचुरी का साथ देती नज़र आई. लेकिन जहां तक पार्टी में टूट की बात है, तो फिलहाल देश में वामपंथ राजनीति की ऐसी स्थिति नहीं है कि कोई भी ग्रुप अपनी अलग पार्टी बनाने की सोचेगा.
कांग्रेस-समर्थन प्रस्ताव से येचुरी की राह आसान
दरअसल, कांग्रेस के साथ तालमेल के सवाल पर सीपीएम में अंदरूनी खींचातानी काफी अरसे से चल रही थी. यह मामला पार्टी प्लेटफॉर्म से उठकर सार्वजनिक मंच पर भी आ गया था. ऐसा लग रहा था कि करात ग्रुप इस मुद्दे पर येचुरी ग्रुप पर हावी रहेगा, लेकिन पार्टी प्रतिनिधियों के एक बड़े हिस्से ने सेंट्रल कमिटी के उक्त प्रस्ताव में संशोधन की जबर्दस्त मांग की.
इसने माहौल को येचुरी के पक्ष में कर दिया और संचालक समिति को वोटिंग की बजाय आम सहमति से इस संशोधन प्रस्ताव को मंज़ूर करना पड़ा. शायद इसी जीत ने सीपीएम महासचिव पद पर येचुरी के दूसरे कार्यकाल का रास्ता आसान कर दिया. उससे पहले इस पद के लिए त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार, पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात और बीवी राघवुलू के नाम दौड़ में शामिल थे.
अब सवाल यह उठता है कि कांग्रेस के साथ तालमेल का सीपीएम को क्या फायदा होगा? दरअसल 2016 में पश्चिम बंगाल में सीपीएम ने कांग्रेस के साथ तालमेल किया था, लेकिन उसका फायदा कांग्रेस को अधिक हुआ और वामपंथी गठबंधन को अपने सबसे ख़राब प्रदर्शन का सामना करना पड़ा. वाम वोट कांग्रेस को हस्तांतरित तो हुए, लेकिन कांग्रेस के वोट वाम गठबंधन को नहीं मिले. ऐसे में कांग्रेस का साथ सीपीएम के लिए कितना कारगर होगा, यह तो समय ही बताएगा.
पूर्व के प्रयोग यह बताते हैं कि इससे पार्टी को कोई खास फायदा नहीं मिलने वाला है. पहले भी वामपंथी पार्टियों के देश में खिसकते जनाधार के लिए अवसरवादी गठबंधन को ज़िम्मेदार करार दिया गया था. अब कांग्रेस के साथ किसी तरह का तालमेल उसके लिए एक बार फिर घातक साबित हो सकता है.