कांग्रेस का चिंतन-शिविर समाप्त हो गया लेकिन क्या वह उसकी चिंता समाप्त कर पाया? कांग्रेस की चिंता तो अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। कांग्रेस की चिंता वास्तव में भारत के लोकतंत्र की भी चिंता है, क्योंकि सशक्त विरोधी दल के बिना कोई भी लोकतंत्र जल्दी ही प्रवाह पतित हो सकता है। वैसा लोकतंत्र बिना ब्रेक की मोटर गाड़ी बन जाता है। किसी भी पार्टी को सशक्त होने के लिए नीति और नेता की जरुरत होती है। हम देखें कि इस उदयपुर शिविर में से किस नीति का उदय हुआ है। सोनिया गांधी ने कहा कि अब कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा चलाएगी। इस समय क्या भारत टूट रहा है? उसे जोड़ने की बजाय कांग्रेस को जोड़ना ज्यादा जरुरी है। कांग्रेस अंदर और बाहर दोनों तरफ से टूट रही है। स्वयं राहुल गांधी ने अपने भाषण में कहा है कि कांग्रेसी नेता हमेशा यही सोचते रहते हैं कि मुझे क्या मिला? (वैसे सोनिया, राहुल और प्रियंका को तो यह सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ती है)। इसीलिए कांग्रेस हर प्रांत में अंदर से टूट रही है। मध्यप्रदेश में उसकी सरकार क्यों गिरी? राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्रियों की कुर्सियां क्यों डगमगाती रहती हैं? कांग्रेस के कई मुख्यमंत्री और मंत्री पार्टी छोड़कर विरोधी दलों में क्यों शामिल हो रहे हैं? इस वक्त कांग्रेस की सरकारें जिन प्रांतों में हैं, वे प्रांतीय नेताओं के दम पर टिकी हुई हैं। इसीलिए राहुल गांधी का यह कहना तर्कसंगत नहीं लगता कि भाजपा से सिर्फ अकेली कांग्रेस ही लड़ सकती है, वह एक मात्र अखिल भारतीय विरोधी पार्टी है और वह एक मात्र ऐसी पार्टी है, जिसके पास विचारधारा है। यहां कम्युनिस्ट पार्टी का जिक्र जरुरी नहीं है लेकिन क्या यह सत्य है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा की कोई विचारधारा नहीं है? राहुल का कहना है कि भाजपा सिर्फ सत्तालोभी और देशतोड़ू पार्टी है। क्या कांग्रेस सत्तालोभी नहीं है? भाजपा के पास तो सही या गलत, एक विचारधारा है लेकिन कांग्रेस के पास क्या है? न उसके पास गांधीवाद है, न समाजवाद है, न गरीबी हटाओ है और न ही ‘भारत को महासंपन्न बनाओ’ या ‘महाशक्ति बनाओ’ है। उसके पास सिर्फ सत्तारुढ़ दलों की लचर-पचर आलोचना है, जो लोगों के सिर पर से निकल जाती है। उसके नेताओं को इस समय देश की नहीं, खुद की चिंता है। इसी चिंता ने इस महान पार्टी को अब प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना दिया है। उसी की देखादेखी लगभग सभी प्रांतों में पारिवारिक पार्टियां खड़ी हो गई हैं। इस चिंतन शिविर में एक भी वक्ता की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह इस पारिवारिक प्रपंच के विरूद्ध मुंह खोले। यह सुसंयोग है कि वर्तमान सत्तारुढ़ पार्टी अभी तक पारिवारिक प्रपंच में नहीं फंसी है, हालांकि वह भी लगभग उसी रास्ते पर चल पड़ी है। 50 साल से कम आयु के लोगों को प्रमुखता देने का इरादा तो ठीक है लेकिन उसमें से भी परिवारवाद की बू आ रही है। ‘एक परिवार, एक टिकिट’ की बात, उसमें भी 5 वर्ष की शर्त, क्या चोर दरवाजे से परिवारवाद को ही चलाना नहीं है? दूसरे शब्दों में इस चिंतन शिविर ने तो कांग्रेस के लिए न तो कोई नई नीति दी और न ही कोई नेता दिया।

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