आख़िरकार, चुनाव पांच सालों के लिए होते हैं और जनता स्थायित्व चाहती है. जनता चाहती है कि क़ानून और व्यवस्था की समस्या न हो. जनता तेज विकास चाहती है. राजनीतिक दल रामराज्य लाने की बात कर रहे हैं, फिर भी पिछले साठ सालों में ऐसा कुछ नहीं हुआ. वे जनता को केवल बेवकूफ बना रहे हैं. दो या तीन सालों में कोई चमत्कार नहीं होने वाला है, तब तक कि, जब तक एक अलग तरह की आर्थिक नीति नहीं अपनाई जाती. दुर्भाग्य से, कांग्रेस और भाजपा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ये दोनों प्रो-अमेरिकन, प्रो-रिच पॉलिसी अपना रहे हैं, जो जनता के लिए ठीक नहीं है.
चुनाव प्रक्रिया वास्तव में शुरू हो चुकी है. हालांकि, चुनाव आयोग ने अभी समय और तिथि की घोषणा नहीं की है. आचार संहिता लागू नहीं हुई है, लेकिन इस सबसे पहले ही राजनीतिक दल चुनाव के मोड में चले गए हैं. भाजपा, राकांपा आदि ने तो अपने लोकसभा प्रत्याशियों की घोषणा भी कर दी है. इधर राम विलास पासवान ने भाजपा के साथ हाथ मिला लिया है. ध्यान देने की बात यह है कि राम विलास पासवान एनडीए से गुजरात दंगों की वजह से ही अलग हुए थे. आज उन्हें महसूस हो रहा है कि हालात ऐसे हो गए हैं, जिससे मोदी के साथ हाथ मिलाया जा सकता है. 2002 में जिस बात (दंगा) की अनदेखी नहीं की थी, आज उसकी अनदेखी कर सकते हैं. यही राजनीति है. बिहार में स्थिति यह है कि राम विलास पासवान को शायद यह महसूस हुआ कि भाजपा के साथ हाथ मिलाने के लिए यही सबसे अच्छा मौक़ा है और इसीलिए उन्होंने सभी विकल्पों के बारे में सोचने की जहमत नहीं उठाई.
आजकल राजनीति में नीतियों और सिद्धांतों की बात करना एक अपराध की तरह है. यह केवल चुनावी नीति है और सिद्धांतों, विचारधारा या राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. यहां हर कोई लोकसभा में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें पाने और उसी के अनुसार कार्य करने के लिए कोशिश कर रहा है. अधिकतम सीटें प्राप्त करने के लिए यह एक सरल गणित है. कांग्रेस पार्टी सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में है. प्रधानमंत्री पद के लिए जैसे ही भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा की, यह तय हो गया कि प्रतियोगिता मोदी बनाम राहुल है. कांग्रेस भी इससे सहमत हुई, लेकिन उसने कई कारणों और व्यवहारिक परेशानियों की वजह से अपने प्रधानमंत्री के तौर पर राहुल गांधी के नाम की घोषणा नहीं की. उसे यह महसूस हुआ कि इससे झटका लग सकता है.
कांग्रेस एक बड़ी पार्टी है. यह देश भर में मौजूद है. सचमुच देश भर में. और, इतनी मौजूदगी भाजपा के पास भी नहीं है. कांग्रेस के पास देश के हर हिस्से में क्षेत्रीय नेता हैं, जो कांग्रेस के सिद्धांतों एवं विचारधारा के मुताबिक अच्छी तरह से अभियान दर अभियान चला सकते हैं. दुर्भाग्य से, लोकप्रियता पाने या फिर किसी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार न देखने के लिए ये जो कर रहे हैं, उससे पार्टी और राहुल गांधी, दोनों को नुक़सान हो रहा है. जो मौक़ा पार्टी के पास खुद को प्रोजेक्ट करने का था, उसे पार्टी खो चुकी है, क्योंकि पार्टी के मुख्य प्रचारक के लिए यह काम नया है और वह प्रेस को संबोधित करने में असफल रहे हैं. राहुल गांधी का अर्णब गोस्वामी के साथ इंटर्व्यू, जिसे मैं अधिक बुरा नहीं समझता, जनता के बीच कुछ खास संदेश देने में नाकाम रहा.

कांग्रेस एक बड़ी पार्टी है. यह देश भर में मौजूद है. सचमुच देश भर में. और, इतनी मौजूदगी भाजपा के पास भी नहीं है. कांग्रेस के पास देश के हर हिस्से में क्षेत्रीय नेता हैं, जो कांग्रेस के सिद्धांतों एवं विचारधारा के मुताबिक अच्छी तरह से अभियान दर अभियान चला सकते हैं. दुर्भाग्य से, लोकप्रियता पाने या फिर किसी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार न देखने के लिए ये जो कर रहे हैं, उससे पार्टी और राहुल गांधी, दोनों को नुक़सान हो रहा है. जो मौक़ा पार्टी के पास खुद को प्रोजेक्ट करने का था, उसे पार्टी खो चुकी है, क्योंकि पार्टी के मुख्य प्रचारक के लिए यह काम नया है और वह प्रेस को संबोधित करने में असफल रहे हैं.

अब कांग्रेस को अपनी रणनीति में बदलाव लाना चाहिए और अपने कुछ बेहतरीन नेताओं को देश के अलग-अलग हिस्सों में उतारना चाहिए. वे न स़िर्फ अपने क्षेत्रों में मजबूत प्रचार करें, बल्कि पूरे क्षेत्र में यह काम करें. उदाहरण के तौर पर दिग्विजय सिंह हिंदीभाषी क्षेत्रों में एक मजबूत प्रवक्ता साबित हो सकते हैं. चिदंबरम दक्षिण में, एंटनी केरल में और इसी तरह अन्य नेता. कांग्रेस अब तक प्रधानमंत्री के क़रीबी लोगों के सहारे सरकार चला रही थी, लेकिन इससे चुनाव में फ़ायदा नहीं होने वाला है. कांग्रेस की दूसरी सबसे बड़ी परेशानी हैं कैग द्वारा उद्घाटित किए गए घपले-घोटाले. अगर कांग्रेस के पास मजबूत प्रवक्ता हों, तो वे इस क्षति को कम कर सकते हैं. वे जनता को यह बता सकते हैं कि कैग के आंकड़े सही नहीं हैं या सरकार ने इस सबके लिए कड़े क़दम उठाए. सुप्रीम कोर्ट में मामला है और आगे से ऐसा कुछ नहीं होने दिया जाएगा.
आख़िरकार, चुनाव पांच सालों के लिए होते हैं और जनता स्थायित्व चाहती है. जनता चाहती है कि क़ानून और व्यवस्था की समस्या न हो. जनता तेज विकास चाहती है. राजनीतिक दल रामराज्य लाने की बात कर रहे हैं, फिर भी पिछले साठ सालों में ऐसा कुछ नहीं हुआ. वे जनता को केवल बेवकूफ बना रहे हैं. दो या तीन सालों में कोई चमत्कार नहीं होने वाला है, तब तक कि, जब तक एक अलग तरह की आर्थिक नीति नहीं अपनाई जाती. दुर्भाग्य से, कांग्रेस और भाजपा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ये दोनों प्रो-अमेरिकन, प्रो-रिच पॉलिसी अपना रहे हैं, जो जनता के लिए ठीक नहीं है.
नई-नई आई आम आदमी पार्टी अभी भी अपनी विचारधारा सामने लाने में संकोच कर रही है. एक समय वे बिजली की उच्च दर के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं, फिर एक बड़े औद्योगिक घराने द्वारा गैस प्राइसिंग का मामला उठाते हैं और अंत में सीआईआई की मीटिंग में बोलते हैं कि वे पूंजीवाद के ख़िलाफ़ नहीं हैं. मेरे हिसाब से वे अभी भी भ्रमित हैं. वे बीच का रास्ता तलाश रहे हैं. खैर, जो भी उनकी विचारधारा हो, उसे तत्काल सार्वजनिक करना चाहिए, इसी में उनकी भलाई है.
अभी तक हमारे पास एक बिखरी हुई लोकसभा थी. कोई भी ऐसा दल आगे नहीं आया, जिसके पास स्पष्ट बहुमत हो. अभी मोदी आगे बढ़ते हुए दिख रहे हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि अन्य दूसरी पार्टियों के लिए उम्मीद ख़त्म हो गई हो. ये सभी पूरे देश में एक-एक सीट के लिए चुनाव लड़ेंगी. नतीजतन, एक बार फिर हमारे सामने बिखरी हुई लोकसभा होगी. चुनाव के बाद का पूरा माहौल दिलचस्प होने जा रहा है. यह देखना दिलचस्प होगा कि हम किस तरह की सरकार बनाएंगे.

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