देश में 16वीं लोकसभा अस्तित्व में आ चुकी है. इसके साथ ही एक बड़ी समस्या सामने आई है कि आख़िर विपक्ष का नेता कौन होगा. दरअसल, 16 मई को जब नतीजे सामने आए, तो भाजपा ने अपने बूते बहुमत हासिल कर लिया. भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को तो 300 से भी अधिक सीटें मिलीं. दूसरी तरफ़ कांग्रेस की ऐतिहासिक हार हुई. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब कांग्रेस इतनी भी सीटें नहीं जीत सकी कि उसे विपक्ष का दर्जा तक दिया जा सके. उसे महज 44 सीटों पर ही सफलता मिली. कांग्रेस समेत किसी पार्टी के पास इतनी सीटें नहीं हैं, कि वह मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा हासिल कर सके. ऐसे में सवाल है कि क्या 16वीं लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष पद पर सर्वसम्मति से कोई फैसला हो पाएगा अथवा क्या नेता प्रतिपक्ष की आवश्यकता है या नहीं?
दरअसल, लोकतंत्र का पुराना लोकमंत्र है कि सशक्त संसद के लिए मजबूत विपक्ष का होना ज़रूरी है, लेकिन इस बार एक पार्टी यानी भाजपा ने ऐसी जीत हासिल की कि विपक्ष के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो गया है. यह सियासत के लिहाज से सरकार के लिए भले ही मुफीद माहौल हो, लेकिन लोकतंत्र के लिहाज से इसे आदर्श स्थिति नहीं कहा जा सकता. हालांकि, ऐसा पहली बार नहीं है, जब संसद में कोई भी पार्टी विपक्ष का दर्जा पाने लायक सीटें न जीती हो. आज़ाद भारत के 67 सालों के इतिहास में लगभग आधा वक्त बिना किसी दर्जा प्राप्त विपक्ष के ही गुजरा है. लेकिन, साल 1989 से लेकर अब तक यानी पिछले 25 सालों में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि लोकसभा में विपक्ष न हो. कांग्रेस को विपक्ष का दर्जा मिल सकता है अथवा नहीं, इस बात को लेकर राजनीतिक बहस तेज हो गई है. देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों, सत्ताधारी भाजपा और कांग्रेस के बीच इस मुद्दे को लेकर तनातनी शुरू हो गई है.
भाजपा संविधान और नियमों का हवाला देते हुए कह रही है कि जब तक विपक्ष एक राय से किसी एक नेता की अगुवाई में दावा पेश नहीं करता, तब तक कांग्रेस या किसी एक दल को विपक्ष का पद कैसे दिया जा सकता है. जबकि कांग्रेस की राय है कि भाजपा को लोकतांत्रिक परंपराओं का ध्यान रखना चाहिए. उसे कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद दे देना चाहिए. हालांकि, कांग्रेस के लिए यह भी सोचने वाली बात है कि आज़ाद भारत के इतिहास में क़रीब 25 सालों तक उसने सत्ता में रहते हुए लोकसभा में किसी को भी विपक्ष का नेता नहीं बनाया. 10 जनवरी, 1980 से लेकर 31 दिसंबर, 1984 तक और फिर 01 जनवरी, 1985 से लेकर 27 नवंबर, 1989 तक लोकसभा बिना नेता प्रतिपक्ष के चली. इससे पहले भी 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा में विपक्ष का कोई वजूद नहीं था. 1969 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में पहली बार कांग्रेस (ओ) के राम सुभाग सिंह को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिला था.
अगर नियमों की बात करें, तो विपक्ष का दर्जा पाने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को 10 फ़ीसद सीटें जीतना ज़रूरी होता है, लेकिन इस बार कांग्रेस सहित किसी भी पार्टी के पास इतनी सीटें नहीं हैं. लोकसभा की कुल सीटों के हिसाब से देखें, तो विपक्ष का नेता बनने के लिए कम से कम 55 सीटों की आवश्यकता है. कांग्रेस के पास 44 सीटें हैं और वह भाजपा के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है. ऐसे में विपक्ष के पद पर उसका दावा कमजोर पड़ गया है. अब सत्ता पक्ष यानी भाजपा को ही तय करना है कि किस पार्टी को नेता प्रतिपक्ष का पद दिया जाना चाहिए. अगर इसके दूसरे पहलू पर नज़र डालें, तो संसद में विपक्ष की कमी कई अहम ़फैसलों को प्रभावित कर सकती है. मसलन, सीबीआई प्रमुख, सीवीसी आदि पदों की नियुक्तियों में विपक्ष के नेता की भूमिका काफी अहम होती है. इस लिहाज से कुछ नियमों में बदलाव भी करने पड़ सकते हैं.
एक बात यह भी ध्यान देने वाली है कि जो कांग्रेस लोकतंत्र की दुहाई देते हुए नेता प्रतिपक्ष पद पर अपने अधिकार की बात कह रही है, उसे समझना चाहिए कि यह पद हासिल करने की चीज है. यह पद उस पार्टी के लिए है, जो कम से कम दस फ़ीसद सीटें जीतकर सदन में पहुंचती है. जिस तरह से जनता सरकार बनाने का जनादेश देती है, उसी तरह विपक्ष में कौन बैठेगा, उसका जनादेश भी सीधे चुनाव से आता है. चुनावी नतीजों से साफ़ है कि देश की जनता ने कांग्रेस पार्टी को विपक्ष के लायक भी नहीं समझा. इसलिए कांग्रेस को समझना चाहिए कि नेता प्रतिपक्ष की एक गरिमा होती है, उसे शैडो प्राइम मिनिस्टर कहा जाता है. यह पद उनके लिए नहीं है, जिन्हें जनता ख़ारिज कर देती है.
इससे अलग, कांग्रेस ने जिस तरह ख़ुद को बतौर विपक्षी पार्टी पेश करना शुरू किया, उससे भी कई सवाल उठते हैं. कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष के रूप में एक स्वच्छ छवि वाले नेता को पेश कर सकती थी, लेकिन उसने एक विवादित रेल मंत्री को नेता प्रतिपक्ष के रूप में पेश किया. खड़गे को गांधी परिवार का काफी क़रीबी माना जाता है. कांग्रेस शुरू से ही जनाधार वाले नेताओं को पीछे और उनकी जगह अपने विश्वस्त नेताओं को आगे करती रही है. मल्लिकार्जुन खड़गे इसी की मिसाल हैं. ग़ौरतलब है कि 16वीं लोकसभा के चुनाव में मोदी की जीत में देश के युवा मतदाताओं का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा. कांग्रेस और उसके उपाध्यक्ष राहुल गांधी अक्सर युवाओं की बात करते नज़र आते हैं. अगर कांग्रेस को देश की जनता के सामने एक प्रभावी और युवा को बतौर नेता प्रतिपक्ष पेश करना था, तो वह अगली पंक्ति के नेताओं में से ज्योतिरादित्य सिंधिया, शशि थरूर आदि को आगे कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष पद पर दावा करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि उसके पास ज़रूरी 10 फ़ीसद सीटें नहीं हैं.
कांग्रेस का नेता प्रतिपक्ष पद पर नैतिक?अधिकार नहीं
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