बिहार में कांग्रेस के पतन की किसी एक महत्वपूर्ण वजह पर जब चर्चा होती है, तो 1989 के भागलपुर दंगों का उल्लेख जरूर किया जाता है. लगातार दो महीने तक भागलपुर शहर और 250 गांवों में एक हजार से ज्यादा लोगों की जान ले लेने वाले इन दंगों ने बिहार से कांग्रेस युग के अंत की घोषणा कर दी थी. हालांकि डैमेज कंट्रोल के लिए कांग्रेस आलाकमान ने अपने तीन-तीन मुख्यमंत्रियों-सत्येंद्र नारायण सिंह, भागवत झा आजाद और जगन्नाथ मिश्र की कुर्सियों की बलि भी ली थी, लेकिन बिहार के जनमानस पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. नतीजा यह हुआ कि 1990 के विधानसभा चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. तब से अब तक 26 वर्षों में कांग्रेस बिहार में कभी अकेले दम पर सत्ता हासिल करना तो दूर, सही तरह से कभी फल-फूल भी नहीं सकी.
यह दीगर बात है कि समय-समय पर लालू प्रसाद ने अपनी सरकार बचाने, चलाने में उसकी मदद ली पर हकीकत यह है कि इस दौरान विधानसभा में इसकी नुमाइंदगी न सिर्फ उंगलियों पर गिनने लायक रह गई, बल्कि सच्चाई यही है कि बिहार के सत्ता सिंहासन पर लगभग चालीस वर्षों से काबिज रही कांग्रेस हाशिये के गर्त में समा गई. 1990 से अब तक लगभग एक चौथाई सदी गुजर चुकी है. इस समय-काल में कांग्रेस की सत्ताई हैसियत को सुनिश्चित करने वाले न मुस्लिम उसके साथ रहे और न ही दलित. इन दोनों समुदायों की सम्मिलित आबादी बिहार में लगभग 31 प्रतिशत है.
ये दोनों समुदाय कांग्रेसी सत्ता की मास्टर चाबी की हैसियत रखते थे, जो 1990 के चुनाव में उसके हाथ से निकल गए और जनता नामधारी पार्टियों के खाने में शिफ्ट हो गए. इन जनता नामधारी पार्टियों के सबसे महत्वपूर्ण नुमाइंदों में से एक लालू प्रसाद हैं, जिन्होंने इन समुदायों पर मजूबत पकड़ बना ली. लालू की यह पकड़ इतनी मजबूत बन गई कि यह मौजूदा सियासत की नजीर बन गई और इसका सबसे बड़ा खामियाजा कांग्रेस को ही भुगतना पड़ा. नतीजतन वह इन दशकों में कभी संभल नहीं पाई.
हालांकि बाद में दलितों और मुसलमानों के एक हिस्से में बिखराव आया और वह रामबिलास पासवान की पार्टी समेत अन्य दलों में भी शिफ्ट हुआ. पर 2010 तक कांग्रेस कमोबेश दलित-मुस्लिम वोटों से महरूम ही रही. हालांकि कांग्रेस हाईकमान ने इस दौरान अनेक प्रयोग किए. पिछड़ी कुर्मी जाति के सदानंद सिंह, भूमिहार जाति के अनिल कुमार शर्मा व रामजतन सिन्हा और मुस्लिम समुदाय से महबूब अली कैसर को अध्यक्ष बनाया जाता रहा, पर उनकी लाख कोशिशों के बावजूद कांग्रेस हाशिये से ऊपर नहीं उठ सकी.
बल्कि यूं कहें कि इन वर्षों में कांग्रेस लालू प्रसाद के हाथों की कठपुतली सी बनी रही और लालू के इशारों पर सत्ता बचाने-बनाने के लिए महज एक फिलर की भूमिका निभाते हुए अपने वजूद के लिए कसमसाती रही. इस दौरान 25 वर्ष गुजर गए और फिर आया 2015 का विधानसभा का चुनाव, जो कांग्रेस के लिए जीवनदान बनकर आया.
2014 के लोकसभा चुनाव परिणामों में मोदी नामक सुनामी से तबाह हो चुके राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू अपनी डूबती कश्ती को बचाने के लिए एक प्लेटफॉर्म पर आये और इसी दौरान इन दोनों दलों ने कांग्रेस को भी साथ ले लिया. 2015 के चुनाव में तीनों दलों ने मिलकर जो चुनाव लड़ा, उसका करिश्माई नतीजा सामने है. लेकिन इस बात की बहुत चर्चा नहीं हुई कि इस चुनाव में राजद, जद यू से भी ज्यादा व्यापक सफलता जिस पार्टी को मिली, वह कांग्रेस ही थी.
कांग्रेस की सफलता दर, राजद और जदयू के मुकाबले ज्यादा थी और उसके पचपन प्रतिशत के करीब उम्मीदवार सफल हुए. कांग्रेस की इस सफलता ने जहां पार्टी में नया जोश और नई ऊर्जा भर दिया, वहीं इस चुनाव परिणाम में सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि उसके किसी एक समुदाय से सबसे अधिक जीत कर विधायक बनने वालों में मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी. कांग्रेस 41 सीटों पर चुनाव लड़ी और इसमें मुस्लिम विधायकों की संख्या 6 रही.
यानी इस पार्टी के मौजूदा कुल 27 विधायकों में मुसलमानों की भागीदारी 27 प्रतिशत के करीब है. इस तरह देखें, तो 16.9 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले बिहार में कांग्रेस विधायकों की नुमाइंदगी 27 प्रतिशत होना चौंकाने वाला है. यह सफलता, दरअसल कांग्रेस खेमे में मुस्लिम वोटों की पुनर्वापसी की कहानी बयान करती है. यहां ध्यान देने की बात है कि मुस्लिम वोटों पर सबसे मजबूत दावेदारी करने वाले राजद के 80 में से 12 मुस्लिम विधायक हैं जबकि जद यू के 71 में से मात्र 5. दूसरे शब्दों में राजद के 16 प्रतिशत और जद यू के 14 प्रतिशत विधायक ही मुस्लिम हैं.
ऊपर की पंक्तियों में हमने पिछले दस वर्षों के कांग्रेस के बिहार प्रदेश अध्यक्षों की जाति या समुदायवार चर्चा करते हुए देखा कि किसी भी अध्यक्ष के कार्यकाल में कांग्रेस में उत्साह नहीं लौट पाया. लेकिन 2015 के चुनाव की परिस्थितियां ऐसी बनीं कि कांग्रेस की जीत से उसमें उत्साह आया. हो सकता है कि इस उत्साह का कारण, दलित समाज से संबंध रखने वाले मौजूदा अध्यक्ष अशोक चौधरी की खुशकिस्मती हो या उनके सफल नेतृत्व का प्रभाव, लेकिन सच्चाई यही है कि अब बिहार कांग्रेस संगठनात्मक तौर पर जोश में है. और यह जोश उसमें इसलिए भी आया है कि 2010 में 4 विधायकों वाली पार्टी अब 27 विधायकों की पार्टी बन चुकी है.
आंकड़ों से हमने यह भी देखा कि इस सफलता में मुसलमानों की अहम भागीदारी रही है. अब अगर कांग्रेस रणनीतिकारों को यह एहसास है कि उनकी स्वीकार्यता मुसलमानों में बहुत बढ़ी है, ऐसे में वह इसे बरकरार रखने या यूं कहें कि और मजबूत करने की दिशा में काम करती है, तो यह कोई अस्वाभाविक नहीं है.
यही कारण है कि पार्टी ने पिछले 21 अक्टूबर को पटना में दलित-मुस्लिम महासम्मेलन का सफल आयोजन कर यह साबित करने की कोशिश की कि वह अपने संगठनात्मक वजूद को मुसलमानों के साथ-साथ दलितों में भी विस्तार देने में लगी है. यह आयोजन इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है कि पिछले एक दशक में, कांग्रेस ने अपने संगठनात्मक विस्तार के लिए कई जतन किए, पर उन प्रयासों या आयोजनों में ऐसा उमंग या उत्साह कभी नहीं दिखा.
अब सवाल यह है कि कांग्रेस के संगठनात्मक विस्तार में आगे की चुनौतियां क्या हैं? ये चुनौतियां इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि कांग्रेस अपने विस्तार के लिए जिस दिशा में बढ़ रही है, वह विरोधी भाजपा को कोई खास नुकसान पहुंचाने वाला नहीं है. जबकि उसके इस प्रयास का नुकसान खुद कांग्रेस के घटक दलों- राजद और जद यू को होगा. लिहाजा कांग्रेस के रणनीतिकार जब इन चुनौतियों पर गौर करते होंगे तो उनके सामने रुकावट के रूप में जो चेहरे नजर आते होंगे, वे लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के चेहरे होंगे.
क्योंकि कुछ हद तक दलित और बड़े पैमाने पर मुस्लिम वोटों पर इन दलों की ही पकड़ है. ऐसे में मौजूं सवाल यह है कि क्या राजद और जद यू कांग्रेस के ऐसे विस्तार को पचा पाएंगे? हमने यह सवाल बिहार प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता अरशद अब्बास आजाद के सामने रखा. इसके जवाब में अरशद कहते हैं कि संगठन का विस्तार एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है.
हर दल को आजादी है कि वह अपने संगठन को मजूबत करे. कांग्रेस भी इसी प्रयास में लगी है. संगठन के स्तर पर हम यही काम कर रहे हैं, बिना इस बात पर ध्यान दिए कि हमारे प्रयास से किसको क्या हानि होगी? हां यह बात सच है कि 1990 के बाद से दलितों और अल्पसंख्यकों में हमारा जनाधार कम हुआ है और ये दोनों समूह राजद जैसी पार्टियों की तरफ गए हैं. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हम तीनों पार्टियां महागठबंधन का हिस्सा हैं, जिन्होंने मिलकर चुनाव लड़ा है. चूंकि चुनाव में सीटों की साझेदारी होती है, इसलिए राजद या जद यू को हमारे प्रयास से चिंतित होने की जरूरत नहीं है.
सैद्धांतिक रूप से अरशद की बातें तो सही लगती हैं पर राजनीति की पेचीदगियां इतनी आसान नहीं और ना ही राजनीति किसी तयशुदा फॉर्मूले से चलती है. उधर राजद और जद यू जैसे कांग्रेस के घटक दल खुद अपने संगठनात्मक विस्तार में लगे हैं. और गौर से देखें तो तीनों दलों का पॉलिटिकल बेस कमोबेश एक ही है. हां यह जरूर है कि कांग्रेस की पकड़, राजद व जद यू के बनिस्बत उच्च वर्ग में ज्यादा है. 2015 के चुनावी टिकट बंटवारे में यह साफ हो भी गया था.
राजद और जद यू ने कुछ अपवादों को छोड़ कर, उच्च वर्ग के कैंडिडेट्स खुद खड़े करने के बजाय, ये काम कांग्रेस के खाते में डाल दिया था. कांग्रेस ने भी इस फॉर्मूले को स्वीकार किया और उसे सफलता भी हाथ लगी. पर अब जबकि कांग्रेस के दोनों घटक दल अपने-अपने विस्तार के प्रयासों में लगे हैं, तो कांग्रेस का मुसलमानों और दलितों की तरफ रुख करना, लाजिमी तौर पर राजद व जद यू को नहीं सुहाएगा. इसलिए भले ही ये दोनों दल कुछ कहें नहीं, पर कांग्रेस के इस प्रयास पर चौकन्ने भी होंगे और रोड़े अटकाने की जरूरत हुई तो इससे भी बाज नहीं आएंगे.