सूबे बिहार में 2019 की जंग के लिए महागठबंधन में राजद 22 पर, कांग्रेस 11 पर, कुशवाहा की पार्टी 5 पर और हम और एनसीपी एक-एक सीट पर चुनावी अखाड़े में उतर सकती है. राजद के रणनीतिकार भी इसी फार्मूले को फाइनल ट्यून करने में लगे हैं. इस पर सहमति बनते ही सीटवार विभाजन की कवायद शुरू हो जाएगी. लालू प्रसाद और कांग्रेस के करीबी सूत्रों का मानना है कि सीटों के इस बंटवारे पर मोटे तौर पर सहमति बन गई है और बस सही समय का इंतजार हो रहा है. इस बीच जीतन राम मांझी को लालू प्रसाद राज्यसभा भेज एक बड़ा राजनीतिक विस्फोट भी कर सकते हैं.
सत्ता की राजनीति के लिए सौदेबाजी के खेल की शुरुआत बिहार में हो गई है. 2019 की जंग में कौन किस खेमे में होगा, इसकी कवायद ने अभी से यह साफ कर दिया कि इस बार कोई भी मोर्चा या गठबंधन सौदेबाजी की कड़ी परीक्षा से गुजरने वाला है. बिहार की राजनीति में अभी दो बड़ी धूरी हैं, जिसके इर्द-गिर्द सहयोगी दलों को अपने-अपने लिए गुंजाइश बनानी है. इन दो धुरियों से इतर कांग्रेस ने भी अपने को एक धूरी मानकर कुछ खास दलों को अपने साथ जोड़ने का होमवर्क तेजी से करना शुरू कर दिया है. प्रदेश कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि कांग्रेस के साथ अगर उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, पप्पू यादव, आनंद मोहन और वामदलों का साथ हो जाए, तो फिर सूबे की जनता को एक नया विकल्प मिल जाएगा.
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद से उब चुकी जनता दिल खोलकर इस नए गठबंधन को गले लगा लेगी. कांग्रेस के रणनीतिकार मानते हैं कि यह नया गठबंधन तीस से पैंतीस प्रतिशत वोटों को अपने पाले में कर सकता है. सबसे बड़ी बात यह होगी कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और भाजपा से नाराज बड़े नेता हाथों-हाथ इस नए गठबंधन के साथ हो जाएंगे. चूंकि राजद और भाजपा गठबंधन में सीटों के लिए मारा-मारी है, इसलिए ऐसे बहुत से नेता छूट जाएंगे जिन्होंने चुनाव लड़ने का सपना पाल रखा है. ऐसे में कांग्रेस का गठबंधन ऐसे नेताओं की हसरतों को पूरा करने में कामयाब होगा. यहां यह बताना जरूरी है कि इस तरह की गठबंधन बनाने की बात पहले भी हुई थी, पर दिल्ली में बैठे कांग्रेस के दिग्गज नेता यह तय नहीं कर पा रहे थे कि बिहार में लड़ाई लालू के साथ लड़ी जाए या उसके खिलाफ.
बिहार में अपनी राजनीति अपनी शर्तों पर करने के हिमायती कांग्रेसियों का तर्क है कि लालू प्रसाद कभी भी कांग्रेस का विस्तार बिहार में होने नहीं देंगे. राजद भी अपने गठबंधन का विस्तार करने में लगा है. उपेंद्र कुशवाहा और आनंद मोहन के बाद पप्पू यादव पर भी राजद नेताओं की नजर है. ऐसे में कांग्रेस को सम्मानजनक सीटें मिल पाएंगी, यह कहना बेहद मुश्किल है. भ्रष्टाचार का जो दाग लालू प्रसाद पर लगा हुआ है, उससे भी कांग्रेस दूर रहने में ही अपनी भलाई मान रही है. लेकिन लालू के साथ चुनाव लड़ने के समर्थक कांग्रेसियों का तर्क है कि नरेंद्र मोदी को अगर बिहार में शिकस्त देनी है तो राजद के साथ ही रहकर अपने लिए बेहतर का प्रयास करना चाहिए. तर्क यह है कि संगठन के स्तर पर कांग्रेस अभी इतनी मजबूत नहीं है कि वह पूरे प्रदेश में एक धूरी बन सके. लालू प्रसाद के साथ माय का एक सशक्त वोट बैंक है, जो कांग्रेस के साथ आने से और भी मजबूत हो जाता है.
इसका लाभ पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिल चुका है. भाजपा के साथ जदयू के आ जाने से एनडीए मजबूत हुआ है, ऐसे में किसी नए प्रयोग को अंजाम देने से अच्छा है कि राजद के साथ महागठबंधन के प्रयोग को ही आजमाया जाए. हां, इस बार यह जरूर तय हो कि कांग्रेस को सम्मानजनक सीटें दी जाएं. कांग्रेसियों को लगता है कि लालू प्रसाद इस समय परेशानी में हैं, इसलिए वे किसी भी कीमत पर कांग्रेस को नाराज करने की गलती नहीं करेंगे. यही वजह है कि इन्हीं दो एक दूसरे के विरोधी तर्कों के कारण कांग्रेस आलाकमान यह तय नहीं कर पा रहा है कि बिहार में कौन सी राह पकड़ी जाए.
कांग्रेस के जानकार सूत्र बताते हैं कि राजद के साथ जो गठबंधन लोकसभा चुनाव के लिए बनेगा, उसमें कांग्रेस ने हर हाल में उपेंद्र कुशवाहा को शामिल करने की बात राजद नेताओं से कही है. राजद की भी यह समझ है कि अगर उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी को अपने पाले में कर लिया जाता है तो नरेंद्र मोदी की राह बिहार में बेहद कठिन हो जाएगी. भरोसेमंद सूत्रों की मानें तो इस महागठबंधन में राजद 22 पर, कांग्रेस 11 पर, कुशवाहा की पार्टी 5 पर और हम और एनसीपी एक एक सीट पर चुनावी अखाड़े में उतर सकती है. राजद के रणनीतिकार भी इसी फार्मूले को फाइनल ट्यून करने में लगे हैं.
अगर इस पर कोई सहमति बनती है तो आगे सीटवार विभाजन की कवायद शुरू हो सकती है. लालू प्रसाद के करीबी सूत्रों का मानना है कि सीटों के इस बंटवारे पर मोटे तौर पर सहमति बन गई है और जीतन राम मांझी को लालू प्रसाद राज्यसभा भेज एक बड़ा राजनीतिक विस्फोट भी कर सकते हैं. राज्यसभा भेजने के मामले में अगर-मगर हुआ, तो फिर इसकी भरपाई विधानसभा की सीटों में कर दी जाएगी. गौरतलब है कि कांग्रेस ने पिछला लोकसभा चुनाव यहां राजद के साथ मिलकर ही लड़ा था. 2014 में कांग्रेस 12 सीटों पर, एनसीपी एक सीट पर और बाकी बचे 27 सीटों पर राजद ने चुनाव लड़ा था. लेकिन 2014 के राजनीतिक हालात इस बार से अलग थे.
उस समय नीतीश कुमार ने अकेले भाग्य आजमाया था, लेकिन इस बार वे एनडीए गठबंधन के साथ हैं. दरअसल नीतीश कुमार के आने के बाद से ही कुशवाहा और जीतन राम मांझी की बैचेनी बढ़ गई. दोनों ही नेता अलग-अलग कारणों से नीतीश से दूर हुए लेकिन समय ने एक बार फिर उनको एक ही गठबंधन में लाकर खड़ा कर दिया. वे एक गठबंधन में तो हैं, लेकिन उनका दिल मिल नहीं रहा है. यही वजह है कि उपेंद्र कुशवाहा जब शिक्षा सुधार के लिए मानव कतार बनवाते हैं तो उसमें जदयू और भाजपा के नेता नहीं, बल्कि राजद के नेता शामिल होते हैं. रालोसपा के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि हमें लोकसभा की छह सीटें चाहिए. जीतनराम मांझी कहते हैं कि हमें विधानसभा की पचास सीटें चाहिए, यानी सौ फीसदी सौदेबाजी की राजनीति शुरू है.
कांग्रेस सीटों के बंटवारे पर राजद के साथ जो बात कर रही है, वह भी सौदेबाजी का ही उदाहरण है. राजद जो 27 सीटों पर लड़ी थी, उसे अब 22 सीटों पर लड़ने के लिए कहा जा रहा है. वैसे राजद से अलग कांग्रेस के एक खेमे ने जो फार्मूला बनाया है, उसमें कांग्रेस को 22, हम और पप्पू यादव को दो-दो, एनसीपी को एक और उपेंद्र कुशवाहा को 13 सीटें देने की बात कही जा रही है, लेेकिन यह तभी संभव है जब कांग्रेस आलाकमान लालूू प्रसाद से अलग होने का मन बनाए. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता समीर सिंह कहते हैं कि लालू प्रसाद के साथ मिलकर हमने 2014 में भी चुनाव लड़ा था.
2019 में क्या होगा, यह कहना अभी जल्दबाजी है, लेकिन कांग्रेस पार्टी जरूर चाहेगी कि सूबे में एक मजबूत धर्मनिरपेक्ष गठबंधन बने और नरेंद्र मोदी को करारी शिकस्त दे. जहां तक उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी का सवाल है, तो उन दोनों ने अपने सारे विकल्प खुले रखे हैं. जहां सौदा सही पटेगा उसी खेमे में मिलकर अगले के खिलाफ जंग का ऐेलान कर देंगे. इन दोनों नेताओं के सामने अपनी पार्टी और कैडरों को बनाए रखने की चुनौती है. अगर पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव नहीं लड़ेगी तो फिर पार्टी और कैडर दोनों को संभाले रखना मुश्किल हो जाएगा. यही वजह है कि रालोसपा नेता नागमणि ने छह सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही और जीतन राम मांझी ने 50 सीटों की मांग रख दी.
उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी को लेकर राजद और कांग्रेस दोनों ही खेमों में दबाव है और दोनों ही दल चाहते हैं कि महागठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी को शामिल किया जाए. खासकर कांग्रेस हर हाल में उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी को महागठबंंधन का हिस्सा देखना चाहती है. ऐसा कर कांग्रेस देश को यह दिखाना चाहती है कि नरेंद्र मोदी की पकड़ कमजोर हो रही है और उसके सहयोगी दल उससे अलग हो रहे हैं. यही दोहरा लाभ उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के लिए फायदे का सौदा होने वाला है. लगता है राज्यसभा चुनाव और इसके बाद इस तरह की कवायद की झलक सार्वजनिक रूप से मिलनी शुरू हो जाएगी.
मोदी और नीतीश के िखला़फ राजपूतों का साथ चाहते हैं लालू
नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी को बिहार में कड़ी चुनौती देने की कवायद में जुटे लालू प्रसाद ने अपने माय वोट के अलावा कुछ अन्य वोट बैंकों पर नजर तेज कर दी है. कुशवाहा वोट को अपने पाले में करने का प्रयास तो काफी आगे बढ़ चुका है, इसके साथ ही मांझी को भी जोड़ने का अभियान जारी है. लेकिन राजद के थिंकटैंक मानते हैं कि केवल इतने से ही काम निकलने वाला नहीं है. कुशवाहा और मांझी को जोड़ने के बाद लड़ाई टक्कर की होगी, इसमें कोई दो मत नहीं है. यह गठबंधन भी नरेंद्र मोदी की शिकस्त की गारंटी नहीं है, इसलिए राजद चाहता है कि उसका पुराना राजपूत वोट बैंक एक बार फिर उसके साथ आ जाए. एक मोटे अनुमान के अनुसार, बिहार की चालीस में से लगभग 15 लोकसभा की सीटें ऐसी हैं, जिसमें राजपूत मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं. राजद को लगता है कि अगर राजपूतों ने खुले दिल से पार्टी का साथ दिया तो लोकसभा की तस्वीर ही कुछ और होगी. राजद यह मानता है कि उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी के अलावा अगर राजपूत साथ आ जाएं तो बिहार की आधी से अधिक लोकसभा की सीटों पर पार्टी का कब्जा हो सकता है. राजद के बड़े नेता इस लाइन पर काफी गंभीरता से विचार कर रहे हैं. उपेद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी से तो बात काफी आगे बढ़ गई है और राजपूतों के बड़े नेताओं से संवाद का सिलसिला शुरू हो चुका है. इसी कड़ी में पिछले दिनों शिवानंद तिवारी ने सहरसा जेल में जाकर आनंद मोहन से लंबी बात की. सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, बात बन गई है और संभव है कि बीपीपा का राजद में विलय हो जाए. इसमें कोई अड़चन आई तो लवली आनंद को राजद चुनाव में समर्थन भी दे सकती है. इसी तरह रामा सिंह को भी जोड़ने का प्रयास जारी है और उन्हें आरा या फिर वैशाली से पार्टी चुनाव लड़ा सकती है. लवली आनंद शिवहर या फिर सहरसा से चुनावी अखाड़े में उतर सकती हैं. राजपूतों के बड़े नेता नरेंद्र सिंह पर भी राजद की नजर है. गौरतलब है कि बिहार के राजपूतों पर नरेंद्र सिंह की अच्छी पकड़ है और वह लालू प्रसाद के पुराने साथी भी रहे हैं. लालू की सरकार में वे मंत्री भी रह चुके हैं. लालू यादव से उनका पारिवारिक रिश्ता रहा है. राजद की सोच है कि नरेंद्र सिंह को मिला लेने से पूरे राज्य के राजपूतों में एक अच्छा संदेश जाएगा. जगदानंद सिंह और रघुवंश सिंह तो पहले से ही राजद में हैं. नरेंद्र सिंह अभी कोई फैसला लेने की जल्दी में नहीं हैं. कहा जाय तो वे वेट एंड वाच की स्थिति में हैं. इसकी वजह यह है कि उनके बड़े बेटे अजय प्रताप भाजपा के टिकट पर जमुई से विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. छोटे बेटे सुमित सिंह चकाई से निर्दलीय लड़े हैं. चकाई और जमुई इन दोनों सीटों पर अभी राजद का कब्जा है. ऐसे में लालू प्रसाद को नरेंद्र सिंह के इन दोनों बेटों को टिकट देने में परेशानी हो सकती है. खासकर जमुई सीट पर जहां से जयप्रकाश यादव के छोटे भाई विजय प्रकाश विधायक हैं. इसलिए जब तक लालू प्रसाद की तरफ से कोई ठोस वादा नहीं मिल जाता, तब तक नरेंद्र सिंह अपने पत्ते नहीं खोलना चाहते हैं. लेकिन राजद के रणनीतिकार कोई बीच का रास्ता निकालने की कोशिश में लगे हैं. इसके तहत राजद नरेंद्र सिंह को विधान परिषद का टिकट देने का दांव भी खेल सकती है. जहां तक एनडीए का सवाल है तो वहां नरेंद्र सिंह को उनके कद के हिसाब से तवज्जो नहीं दी जा रही है. जानकार बताते हैं कि अगर एनडीए में नरेंद्र सिंह को जल्द उचित सम्मान नहीं मिला तो वे लालू प्रसाद से गले मिलने में हिचकेंगे नहीं.