सितंबर में सोनिया गांधी पूर्ण रूप से रिटायर होने जा रही हैं. यानी, सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने जा रही हैं. जाहिर है, इस पद पर सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी आएंगे. लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि चुनाव दर चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को लगातार सिर्फ हार का सामना करना पड़ रहा है. कांग्रेस के कार्यकर्ता से लेकर बड़े नेता तक आलाकमान के रवैये से न सिर्फ हैरान है, बल्कि परेशान भी है. उनकी समस्या ये हैं कि उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं है. अब जब राहुल गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा बनने वाले हैं, तो ये जानना जरूरी हो जाता है कि राहुल गांधी की कार्यशैली कैसी है? वह क्या सोचते हैं, कैसे सोचते हैं? किसकी सुनते हैं? क्या सुनते हैं और क्या नहीं सुनते हैं? इन सवालों का जवाब जानना न सिर्फ कांग्रेस के नेताओं के लिए जरूरी है, बल्कि इस देश की जनता के लिए भी उतना ही जरूरी है.
वर्ष 1984 में भाजपा दो सीटों पर सिमट गई थी और आज भारतीय जनता पार्टी की केंद्र में सरकार है. विश्लेषण करें, तो पाते हैं कि तब भी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में निराशा नहीं आई थी. वे लगातार काम करते रहे. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में विश्वास रखते हुए चुनावी लड़ाइयां लड़ते रहे. यह अलग बात है कि आज अटल जी बीमार हैं और भाजपा के दूसरे महानायक श्री लालकृष्ण आडवाणी राजनीतिक एकांतवास झेल रहे हैं. कोई भी उन्हें या मुरली मनोहर जोशी को फ्रंटलाइन में नहीं देख पा रहा. आज के दौर के महानायक का चेहरा बदल चुका है. आज नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के न केवल सर्वमान्य नेता हैं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिशा निर्देशक भी हैं.
कांग्रेस की हालत इससे बिल्कुल उलट है. कांग्रेस ने आज से दस साल पहले अपने खाते में हार का सिलसिला दर्ज करना शुरू किया. कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में बिहार का पहला चुनाव हारी. फिर वह बिहार का दूसरा चुनाव भी हारी. बिहार के चुनाव में हारने के बाद यह आशा थी कि कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में सीख लेगी और उत्तर प्रदेश में काम करना शुरू करेगी. पर कांग्रेस ने कोई सीख नहीं ली और उत्तर प्रदेश भी दोनों बार उसके हाथ से जाता रहा. फिर, उसके हाथ से राजस्थान गया. एक तरीके से संपूर्ण उत्तर भारत कांग्रेस के हाथ से निकल गया और अंत में केंद्र भी उसके हाथ से निकल गया. राहुल गांधी साबित ही नहीं कर पाए कि कांग्रेस नाम की कोई पार्टी है, जो भारतीय जनता पार्टी के मुक़ाबले सत्ता में आने का दावा पेश कर रही है. नतीजा यह निकला कि केंद्र के बाद हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र कांग्रेस के हाथ से निकल गया और दिल्ली में कांग्रेस के इतिहास में पहली बार कांग्रेस को महान शून्य की बढ़त हासिल हुई और उसके खाते में सीटें भी शून्य आईं.
तब यह सवाल पैदा हुआ कि आख़िर कांग्रेस में ऐसी कौन-सी चीज है, जो उसे लोगों की नज़रों से उतार रही है. आज कांग्रेस का मतलब कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, उनके पुत्र एवं कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी बेटी प्रियंका गांधी हैं. अगर इन तीन नामों को हम किनारे कर दें, तो कांग्रेस का कोई अस्तित्व कहीं नज़र नहीं आता. इसलिए इन तीनों के बारे में देश के लोगों को जानना चाहिए कि इनका मनोविज्ञान क्या है, कार्य करने की इनकी शैली क्या है, विषयों को समझने का इनका तरीका क्या है, ताकि हम यह समझ सकें कि कांग्रेस अगले पांच, दस, पंद्रह सालों में क्या करने की योजना बना रही है.
राहुल गांधी एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो उलझा हुआ दिखाई देता है. राहुल गांधी को लगता है कि ऐसे लोग, जो सामान्य या गंदे कपड़े पहनते हैं या ऐसे लोग, जो संभ्रांत चीजें नहीं जानते हैं, वही जनता के नज़दीक हैं. और, इस प्रक्रिया में राहुल गांधी के सर्वाधिक नज़दीक पहुंचने वाले लोगों में मधुसूदन मिस्त्री हैं, मीनाक्षी नटराजन हैं, मोहन गोपाल हैं.
अब एक किस्सा आपको बताते हैं. मीनाक्षी नटराजन थ्री व्हीलर से राहुल गांधी से मिलने आती हैं और राहुल गांधी को लगता है कि अरे, मीनाक्षी नटराजन कितनी सीधी हैं, जो थ्री व्हीलर से उनसे मिलने आती हैं. इसलिए वही नेतृत्व कर सकती हैं. एक मीटिंग में कोका कोला का कैन बंटा. मीनाक्षी नटराजन राहुल गांधी से पूछती हैं कि सर, यह कैन कैसे खुलेगा? राहुल जवाब देते हैं, तुम कैन नहीं खोल पाती हो? मीनाक्षी हल्के से मुस्कुरा देती हैं. राहुल कैन खोलकर देते हैं. और, यही मीनाक्षी नटराजन का प्लस प्वाइंट है. जेब में अगर प्लास्टिक का पेन है, तो वह राहुल को पसंद है. और, अब जो लोग राहुल से मिलने आते हैं, वे फटे, मुड़े-तुड़े कपड़े पहन कर, मोंट ब्लैंक पेन छिपाकर, जेब में प्लास्टिक का पेन डालकर, खराब घड़ी पहन कर आते हैं. दरअसल, सबको पता चल गया है कि राहुल को नाटक पसंद है. दूसरे शब्दों में, वे राहुल को बहुत भोला मानते हैं और इसलिए राहुल के आसपास ज़्यादातर वैसे ही लोग हैं, जो इस तरह के नाटक में भरोसा करते हैं.
राहुल का दिमाग बनाने वाले मोहन गोपाल से पहले यह काम जयराम रमेश करते थे, लेकिन अब वह उस दायरे से बाहर हैं. मोहन गोपाल भी मुड़े-तुड़े कपड़े पहनते हैं. वह पहले एनएसयूआई में थे. वह पहले अमेरिका गए और वहां से देश की राजनीति सीखकर आए हैं. ओबीसी समर्थक हैं और वह राहुल गांधी को विभिन्न विषयों पर नोट्स बनाकर देते रहते हैं. राजू आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं और एससी-एसटी हैं. राहुल गांधी के भाषणों में जो एससी-एसटी समर्थक तत्व आता है, उसके पीछे राजू का योगदान है. मधुसूदन मिस्त्री, सीपी जोशी, कुछ रोल मोहन प्रकाश भी कभी निभाते हैं. ये हैं, राहुल गांधी के प्रत्यक्ष तौर पर दिमाग बनाने वाले मित्र.
दूसरी तरफ़ राहुल गांधी अपने लिए दूसरे प्रतिमान रखते हैं. वह स्वयं फाल्कन हवाई जहाज में चलते हैं, जबकि नेहरू जी देश में सद्भावना यात्रा पर ट्रेन से निकलते थे. फाल्कन हवाई जहाज और जेट वह ऐसे लेते हैं, जो छोटे हवाई अड्डों पर उतर नहीं सकते. तो, बड़े हवाई अड्डे पर राहुल गांधी फाल्कन या सहारा के बड़े जेट से उतर कर, हेलिकॉप्टर में बैठकर जहां मीटिंग होती है, वहां जाते हैं. चुनाव के लिए जो पैसा इकट्ठा किया गया, उसमें से राहुल गांधी ने फाल्कन हवाई जहाज के किराये पर ही 400 करोड़ रुपये खर्च कर दिए. राहुल गांधी को छोटे जहाज में चलना पसंद नहीं है. राहुल गांधी पर यह कहावत बहुत सटीक बैठती है और शायद किसी ने लिखा भी है कि सोशलिस्ट बाई डे एंड एलिटिस्ट बाई नाइट. राहुल गांधी शाम के बाद लोगों की पहुंच से बाहर चले जाते हैं. और, यही राहुल गांधी के व्यक्तित्व का पहला कॉन्ट्राडिक्शन है कि वह अपने लिए सादगी नहीं पसंद करते, लेकिन जो सादगी का नाटक करता है, उसे वह सही मानते हैं. राहुल गांधी ने चुनाव में कांग्रेस को जिताने वाली फोर्स, यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई के ऊपर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च कर दिए और नतीजे के तौर पर कांग्रेस को हर जगह गिनती गिनने लायक ही सीटें मिलीं.
राहुल गांधी के व्यक्तित्व का एक और उदाहरण अमीना शेख वाला विज्ञापन है, जिसके ऊपर राहुल गांधी ने 300 करोड़ रुपये खर्च किए. इसमें अमीना शेख कहती हैं कि वह यूथ कांग्रेस की सदस्य हैं और वह राहुल गांधी को वोट देंगी. इस विज्ञापन का कोई असर नहीं हुआ. लोगों का कहना था कि अमीना शेख अगर यूथ कांग्रेस की सदस्य हैं, तो वह राहुल गांधी को नहीं, तो क्या नरेंद्र मोदी को वोट देंगी? इसकी जगह यह होता कि मैं गोवा विश्वविद्यालय की छात्रा हूं और मैं राहुल गांधी को वोट दूंगी. पर राहुल गांधी की टीम में किसी ने इस विज्ञापन के ज़रिये होने वाले नुक़सान को देखा ही नहीं. नतीजे के तौर पर वह 300 करोड़ का विज्ञापन बर्बाद हो गया. कांग्रेस के लोगों का कहना है कि इसी तरह बिना दिमाग के विज्ञापनों ने पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी हार दिलाई. राहुल का मनोविज्ञान भी मजेदार है. राहुल हार्डवर्कर माने जाते हैं और उन्होंने पिछले दस सालों में बहुत पढ़ा-लिखा भी है. वह हर विषय पर बात कर सकते हैं. वह अपने सलाहकारों की टीम के साथ अपनी एक राय बनाते हैं और तब उन्हें जो प्रभावित करने की कोशिश करता है, उसे वह पसंद नहीं करते. उदाहरण के तौर पर आनंद शर्मा जैसे लोग, जो हाथ हिलाते हुए हाई फाई भाषा में राहुल से बात करते हैं, तो राहुल को यह पसंद नहीं आता. यह भी सही है कि वह जल्दी प्रभावित नहीं होते हैं. उनके अपने तर्क हैं और इसकी शुरुआत उनके पढ़ाई के दिनों से हुई. उन्हें बचपन से ही दिल्ली से बाहर रखा गया. वह अमेरिका में रहे. कमल डांडोना के साथ उन्हें रहना पड़ा. कमाल डांडोना राजीव गांधी के दोस्त और बड़े बिजनेसमैन थे, जहां से राहुल में एक अलग तरह का आत्मविश्वास आया और जिसे आप नकचढ़ा आत्मविश्वास कह सकते हैं. एक तत्व विकसित हुआ, जिसमें उन्हें अपने अलावा सब ग़लत लगते हैं.
पिता की हत्या के बाद राहुल गांधी देश में वापस आए और मां की इच्छानुसार धीर-धीरे देश की राजनीति में खपे भी, लेकिन यह देश उन्हें बहुत पसंद नहीं आया. उन्हें जब भी वक्त मिलता, वह अपने दोस्तों से मिलने बाहर चले जाते. अभी भी लगभग ऐसा ही है. राहुल के बहुत से कार्यक्रम उनकी विदेश यात्रा को देखकर बनते हैं और इस विदेश यात्रा या कहें कि अपने दोस्तों से मिलने के मोह ने उनमें एक और आदत विकसित कर दी कि वह किसी भी चीज पर कॉन्सन्ट्रेट नहीं करते. दस दिनों तक एक और दस दिनों के बाद दूसरा विषय. और इसी सारी प्रक्रिया के दौरान, चूंकि आप देश में नहीं रहते हैं, तो आपको वे लोग पसंद नहीं आते, जिनमें अंदरूनी ताकत है और जो पार्टी के लिए कुछ कर सकते हैं, उनके अंदर एक और दुर्गुण पैदा कर दिया है. वह कहते हैं, आई नो एवरीथिंग, व्हॉट आई एम सेइंग इज राइट, व्हॉट यू आर सजेस्टिंग, यू आर रॉन्ग. और इसने राहुल गांधी के व्यक्तित्व में एरोगेंस पैदा कर दिया है. और जहां एरोगेंस होती है और जब वह जनता के सामने आ जाती है या पार्टी के सामने आ जाती है, तो उसके परिणाम बहुत खराब होते हैं.
राहुल का दिमाग बनाने वाले मोहन गोपाल से पहले यह काम जयराम रमेश करते थे, लेकिन अब वह उस दायरे से बाहर हैं. मोहन गोपाल भी मुड़े-तुड़े कपड़े पहनते हैं. वह पहले एनएसयूआई में थे. वह पहले अमेरिका गए और वहां से देश की राजनीति सीखकर आए हैं. ओबीसी समर्थक हैं और वह राहुल गांधी को विभिन्न विषयों पर नोट्स बनाकर देते रहते हैं. राजू आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं और एससी-एसटी हैं. राहुल गांधी के भाषणों में जो एससी-एसटी समर्थक तत्व आता है, उसके पीछे राजू का योगदान है. मधुसूदन मिस्त्री, सीपी जोशी, कुछ रोल मोहन प्रकाश भी कभी निभाते हैं. ये हैं, राहुल गांधी के प्रत्यक्ष तौर पर दिमाग बनाने वाले मित्र. केरल से आने वाले मोहन गोपाल मोटा कुर्ता पहनते हैं. अभी राहुल गांधी से दिल्ली चुनाव से ठीक पहले ग़लती हुई. ग़लती यह कि उन्होंने यूथ कांग्रेस की एक बैठक बुलाई, जिसमें एक नतीजा निकला कि चूंकि कांग्रेस प्रो-मुस्लिम ज़्यादा हो गई है, इसलिए उसे हार का सामना करना पड़ा. अब सवाल यह है कि अगर ऐसी बैठक करनी ही थी, तो दिल्ली चुनाव के बाद करते. यह तथ्य उजागर होते ही आपको मिलने वाला एक-दो प्रतिशत वोट भी शून्य हो गया.
सीपी जोशी साहब मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे. एक वोट से नहीं हारते, तो वह राजस्थान में गहलोत की जगह मुख्यमंत्री होते. उन्हें गुजरात सौंपा गया. उन्होंने वहां थ्योरी निकाली कि जो दो बार हार गया है, उसे टिकट नहीं देना चाहिए. और इस सिद्धांत ने गुजरात में सबके टिकट कटवा दिए, जिसमें नरहरि अमीन जैसा बड़ा नाम भी शामिल है. जो हार्ड कोर कांग्रेसी रहे, वे कांग्रेस से दूर जाने लगे. स्वयं सीपी जोशी हमेशा गुस्से में रहने वाले व्यक्ति दिखाई देते हैं. पार्टी एक तरह के भ्रम में जी रही है. उत्तर भारत की राजनीति के अंतर्विरोध मधुसूदन मिस्त्री नहीं समझते. उत्तर प्रदेश में, जहां जाति की राजनीति बुरी तरह चलती है, उनके सुझाव पर निर्मल खत्री पार्टी के अध्यक्ष बने हुए हैं. खत्री लगातार कह रहे हैं कि वह बीमार हैं, वह पार्टी को आगे नहीं ले जा सकते. पर चूंकि मधुसूदन मिस्त्री ने सुझाया है, तो राहुल गांधी उन्हें ही अध्यक्ष बनाकर चुनाव की लड़ाई लड़ना चाहते हैं. राहुल गांधी इस राय पर भी गए कि समझौते नहीं करने हैं, गठबंधन में नहीं जाना है, तो उन्होंने महाराष्ट्र में बनता हुआ गठबंधन तोड़ दिया.
जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस से रिश्ता तोड़ दिया. जबकि जम्मू में आठ सीटें कांग्रेस एक हज़ार से कम वोटों से हारी है. राहुल गांधी के बारे में, जो उनके साथ मीटिंगों में बैठते हैं, उनका कहना है कि वह उत्तेजित होकर (अंग्रेजी में हाइपर कहते हैं) ़फैसले लेते हैं. उनका यह वाक्य-यू डोंट नो व्हॉट आई एम सेइंग इज राइट, लोग अक्सर सुनते हैं.
कांग्रेस कम हो रही है, सिकुड़ रही है या कांग्रेस कार्यकर्ताओं के शब्दों में, कांग्रेस डूब रही है. ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के नेताओं ने सोनिया गांधी का नाम गांधारी रख दिया है, जिसे अपने बेटे का कोई भी निगेटिव प्वाइंट, व्यक्तित्व में कोई भी कमी दिखाई ही नहीं देती. लोकसभा चुनाव हारने के बाद, जिसमें पहली बार राहुल को एक बड़े नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया गया था, मां यानी सोनिया गांधी राहुल को लेकर ओवर प्रोटेक्टिव हो गई हैं. कांग्रेस के एक बहुत बड़े नेता ने एक कहानी सुनाई कि यह एक्जटिली किसी एक घटना का दोहराव है. जब कांग्रेस चुनाव हार गई, तो संजय गांधी को लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी भी ओवर प्रोटेक्टिव हो गई थीं. उन्होंने बताया कि 1977 की हार के बाद रामलीला मैदान में एक सम्मेलन हो रहा था. संजय गांधी नीचे श्रोताओं के साथ बैठे थे. कुछ लोगों ने शोर मचाया कि संजय गांधी को ऊपर लाओ. तो कुछ बड़े कांग्रेस नेताओं ने इसका विरोध किया. इसमें वसंत साठे का नाम प्रमुख था. जब सम्मेलन ख़त्म हो गया, तो इंदिरा जी ने इस नेता को बुलाया और कहा कि आपके पास जो कार है, उसे जाने दीजिए. आप मेरी कार में चलिए. रास्ते में उन्होंने इस नेता से कहा कि वसंत साठे से कहिए कि अगर आगे उन्होंने ऐसा किया, तो मैं उन्हें पार्टी से निकाल कर फेंक दूंगी. साथ ही उन्होंने कहा कि संजय गांधी के सारे नज़दीक के लोगों को बुलाइए और उन्हें इनकरेज करिए और उन्हें पार्टी से जो मदद मिल सकती है, वह दीजिए.
लोग सोनिया जी से कहते हैं कि कांग्रेस सिमट रही है. वह सब सुन रही हैं, पर चुप रहती हैं. शायद यह इस तथ्य को पुख्ता करता है कि वह राहुल को लेकर ओवर प्रोटेक्टिव हो गई हैं. यद्यपि मां देख रही है कि नुक़सान हो रहा है, पर कुछ कर नहीं पा रही है. वह बेटे और पार्टी की स्थिति के बीच शायद कोई रास्ता तलाश रही हैं. दूसरी तरफ़ राहुल गांधी बात करने में बहुत तेज हैं. मुझे जिस नेता ने घटना बताई, उसने कहा कि वह बहुत उस्ताद हैं. वह हर बार अपनी मां को कनविंस कर लेते हैं और उनसे कहते हैं कि मां, ऐसे पार्टी को ठीक करूंगा, वैसे ठीक करूंगा. एक इलेक्शन बाहर रहने से कुछ नहीं होता. मैं पार्टी को ऐसे बनाऊंगा, यूथ कांग्रेस को इस तरह मजबूत करूंगा और राजनीति में अच्छे लोगों को लाकर दस साल बाद पचास साल के लिए कांग्रेस पार्टी को सत्ता में ले आऊंगा. यानी 2025 में सरकार हमारी होगी, मतलब कांग्रेस की होगी. शायद राहुल गांधी की इन्हीं बातों से प्रभावित होकर सोनिया गांधी सितंबर में राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने जा रही हैं.