पिछले वर्ष 16 मई को सोलहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम घोषित हुए. देश की जनता ने पहली बार भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाने का अवसर दिया. लिहाज़ा, 26 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नई सरकार के जिन 25 मंत्रियों ने राष्ट्रपति भवन में शपथ ली, उनमें से एक नाम अल्पसंख्यक मामलों की केंद्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्लाह का भी था. नजमा हेपतुल्लाह को यह मंत्रालय यूपीए सरकार के दौरान इस पद पर रहे कांग्रेस के के. रहमान खान के बाद मिला. मुसलमानों को कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली यूपीए सरकार से यह शिकायत रही कि उसने अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों को लेकर नीतियां तो बहुत अच्छी-अच्छी बनाईं, लेकिन वह उन नीतियों को ज़मीनी स्तर पर लागू कराने में असफल रही. इसके लिए अल्पसंख्यक मंत्रालय की बेबसी और अक्षमता को भी ज़िम्मेदार ठहराया गया. आइए देखते हैं कि 26 मई, 2014 से लेकर अब तक मोदी सरकार में अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय संभाल रहीं डॉ. नजमा हेपतुल्लाह ने क्या-क्या काम किए हैं और क्या मुसलमान उनके कामों से संतुष्ट हैं अथवा नहीं?
नजमा हेपतुल्लाह पर बात करने से पहले कुछ चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पृष्ठभूमि और उन्हें लेकर मुसलमानों की चिंता पर भी करते चलें, तो आगे की बातों को समझना अधिक आसान होगा. 2002 के गुजरात दंगे तब हुए थे, जब नरेंद्र मोदी उस राज्य के मुख्यमंत्री थे, इसलिए मुसलमानों की ओर से उसके लिए ज़िम्मेदार सीधे तौर पर नरेंद्र मोदी को ही ठहराया गया. 2002 से लेकर अब तक लगभग 13 वर्ष गुज़र चुके हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी लाख कोशिशों के बावजूद मुसलमानों की इस शिकायत को दूर नहीं कर सके हैं. 2014 के संसदीय चुनाव से पहले अपने कई टीवी साक्षात्कारों में उन्होंने यह संदेश की देने की ज़रूर कोशिश की कि मुसलमानों को उनसे डरने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि उनके काम देखकर मुसलमान उनसे बेपनाह मोहब्बत करने लगेंगे. सबका साथ-सबका विकास जैसा नारा देकर भी उन्होंने यही साबित करने की कोशिश की कि उनकी नज़र में हिंदू और मुसलमान बराबर हैं और देश के विकास का मतलब है, सबका विकास. धर्म की बुनियाद पर किसी से भेदभाव का सवाल ही पैदा नहीं होता. लेकिन एक वर्ष गुज़र जाने के बाद, मुसलमानों को लेकर देश में जो माहौल देखने को मिल रहा है, उससे मोदी सरकार पर विश्वास बहाल होने के बजाय अल्पसंख्यकों की चिंताएं और बढ़ती जा रही हैं.
अब नज़र डालते हैं अल्पसंख्यक मामलों की केंद्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्लाह के कार्यों पर. सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की कि वह काम में विश्वास रखती है, बातों में नहीं. लेकिन 26 मई, 2014 से जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया, मोदी सरकार के कई मंत्रियों ने ऐसे-ऐसे विवादित बयान दिए, जिनसे बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुश्किलें निरंतर बढ़ती रहीं और यह सिलसिला आज भी जारी है. नजमा हेपतुल्लाह ने भी अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय संभालते ही ऐसे कई विवादित बयान दिए, जिनकी हर तऱफ निंदा हुई. मसलन 14 जुलाई, 2014 को उन्होंने कहा कि भारत की अल्पसंख्यक बिरादरी असल में पारसी हैं, मुसलमान नहीं. इसी तरह संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान कि भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है, का समर्थन करते हुए अगस्त 2014 में नजमा हेपतुल्लाह ने कहा कि सभी भारतीयों को हिंदू कहने में कोई बुराई नहीं है. जब उनके इस बयान की निंदा हुई, तो उन्होंने स़फाई देते हुए कहा, मैंने भारत में रहने वाले लोगों को हिंदी कहा था, हिंदू नहीं.
यह तो विवादित बयानों की बात थी. अब देखते हैं कि काम के स्तर पर नजमा हेपतुल्लाह ने शुरुआती दिनों में क्या-क्या किया. आठ जुलाई, 2014 को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में अपने मंत्रालय की कई स्कीमों के बारे में बताते हुए नजमा हेपतुल्लाह ने कहा कि उनका मंत्रालय अल्पसंख्यकों को शिक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्री-मैट्रिक, पोस्ट मैट्रिक और मैरिट कम मींस स्कॉलरशिप मुहैया करा रहा है. यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि स्कॉलरशिप की उक्त स्कीमें कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान शुरू की गई थीं, जिनसे अल्पसंख्यकों को शिक्षा प्राप्त करने में का़फी मदद मिली. हैरानी की बात यह है कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने केंद्र सरकार की इस स्कीम को अपने यहां लागू करने से मना कर दिया था, जिससे गुजरात के अल्पसंख्यक छात्रों का का़फी नुक़सान हुआ. लेकिन, आज केंद्र की सत्ता संभालने के बाद उन्हीं की एक कैबिनेट मंत्री राज्यसभा को इस स्कीम का विवरण बता रही हैं. नजमा हेपतुल्लाह ने राज्यसभा को यह भी बताया कि मौलाना आज़ाद नेशनल फेलोशिप के तहत अल्पसंख्यक स्कॉलर्स को उच्च एवं व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की ओर से आर्थिक सहायता दी जाती है.
हैरानी की बात यह है कि नजमा हेपतुल्लाह को मालूम नहीं है कि भारत में ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले (बीपीएल) अल्पसंख्यकों की संख्या कितनी है और वह केवल विभिन्न स्कॉलरशिप स्कीमों के तहत अल्पसंख्यक छात्रों को पैसा बांटने में लगी हुई हैं. 14 अगस्त, 2014 को लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए नजमा हेपतुल्लाह ने यह स्वीकार किया था कि उन्हें ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले अल्पसंख्यकों की संख्या के बारे में जानकारी नहीं है और इस सिलसिले में सरकार के अन्य मंत्रालयों से उन्हें ऐसी कोई संख्या अभी तक हासिल नहीं हुई है. 10 मार्च, 2015 को एक बार फिर अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी ने राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि पहले देश में ग़रीबी से संबंधित आंकड़े योजना आयोग द्वारा जारी किए जाते थे.
उन्होंने आगे बताया कि मंत्रालय की ओर से मल्टी-सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम (एमएसडीपी) के तहत देश भर में अल्पसंख्यकों की घनी आबादी वाले क्षेत्रों में 117 आईटीआई, 44 पॉलिटेक्निक, 645 हॉस्टल, 1092 स्कूल भवन और 20,656 अतिरिक्त क्लास रूम बनाने की स्वीकृति दे दी गई है. यहां पर ग़ौर करने वाली बात यह है कि अल्पसंख्यकों को लेकर पिछली मनमोहन सिंह सरकार के काम करने का तरीक़ा भी कुछ ऐसा ही था. यह घोषणा तो कर दी जाती थी कि इतने आईटीआई, हॉस्टल, अतिरिक्त क्लास रूम आदि बनाए जाएंगे, लेकिन उन पर ज़मीनी स्तर पर कहीं काम हुआ भी या नहीं, सरकार यह बात कभी बताती नहीं थी. मोदी सरकार में हम यह उम्मीद करते हैं कि जब ये सारे आईटीआई, पॉलिटेक्निक, हॉस्टल, स्कूल भवन और अतिरिक्त क्लास रूम अल्पसंख्यकों की घनी आबादी वाले क्षेत्रों में बनकर तैयार हो जाएंगे, तो सरकार जनता को यह ज़रूर बताएगी कि वे कहां-कहां बने हैं, ताकि अगर कोई वहां जाकर देखना चाहे, तो ज़रूर देख ले और अल्पसंख्यकों को यह भरोसा हो जाए कि वाकई में मोदी सरकार उनके लिए ज़मीनी स्तर पर काम कर रही है. फिलहाल, मोदी सरकार का एक वर्ष पूरा होने पर जनता के सामने ऐसा कोई विवरण प्रस्तुत नहीं किया गया है.
इसके बाद 22 जुलाई, 2014 को राज्यसभा में अल्पसंख्यकों से संबंधित एक और सवाल का जवाब देते हुए नजमा हेपतुल्लाह ने बताया कि वित्तीय वर्ष 2013-14 में केंद्र सरकार की ओर से उनके मंत्रालय को 3,511 करोड़ रुपये सालाना बजट के रूप में दिए गए थे, जिनमें से 1789.55 करोड़ रुपये यानी 50.97 प्रतिशत रकम अन्य स्कॉलरशिप स्कीमों पर ख़र्च की गई. ये वही स्कॉलरशिप स्कीमें हैं, जिनका उल्लेख हमने ऊपर किया. नजमा हेपतुल्लाह ने राज्यसभा को यह भी बताया कि देश के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर रहे अल्पसंख्यक छात्रों को अगर कोई जानलेवा बीमारी हो जाती है, तो उसके इलाज के लिए उनके मंत्रालय की ओर से मौलाना आज़ाद सेहत स्कीम शुरू की गई है, जिसके तहत ऐसे छात्र को इलाज कराने के लिए दो लाख रुपये तक की आर्थिक सहायता मुहैया कराई जाएगी. उल्लेखनीय है कि यह स्कीम यूपीए सरकार के आख़िरी दिनों में शुरू की गई थी, जिसे मौजूदा मोदी सरकार आगे बढ़ा रही है.
हैरानी की बात यह है कि नजमा हेपतुल्लाह को मालूम नहीं है कि भारत में ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले (बीपीएल) अल्पसंख्यकों की संख्या कितनी है और वह केवल विभिन्न स्कॉलरशिप स्कीमों के तहत अल्पसंख्यक छात्रों को पैसा बांटने में लगी हुई हैं. 14 अगस्त, 2014 को लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए नजमा हेपतुल्लाह ने यह स्वीकार किया था कि उन्हें ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले अल्पसंख्यकों की संख्या के बारे में जानकारी नहीं है और इस सिलसिले में सरकार के अन्य मंत्रालयों से उन्हें ऐसी कोई संख्या अभी तक हासिल नहीं हुई है. 10 मार्च, 2015 को एक बार फिर अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी ने राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि पहले देश में ग़रीबी से संबंधित आंकड़े योजना आयोग द्वारा जारी किए जाते थे. योजना आयोग यह डाटा सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के तहत काम करने वाले नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) से प्राप्त करता था.
मुख्तार अब्बास नक़वी ने राज्यसभा को यह भी बताया कि एनएसओ ने धार्मिक आधार पर आंकड़े एकत्र नहीं किए, हालांकि पहले वह ऐसा करता था. यही कारण है कि योजना आयोग के पास ग़रीबी से संबंधित 2011-12 के जो आंकड़े हैं, उनमें मुसलमानों की कोई अलग से संख्या नहीं बताई गई है. लेकिन, मुख्तार अब्बास नक़वी को यह जवाब भी देना चाहिए कि अगर सच्चर कमेटी देश के मुसलमानों में ग़रीबी की स्थिति का पता लगा सकती है, तो फिर मोदी सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती? उल्लेखनीय है कि 2006 में तत्कालीन यूपीए सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में सच्चर कमेटी ने बताया था कि वर्ष 2004-05 में नगरीय क्षेत्रों में रहने वाले 38.4 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 26.9 प्रतिशत मुसलमान ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे थे. स्वयं मुख्तार अब्बास नक़वी ने 10 मार्च, 2015 को राज्यसभा में उक्त सवाल का जवाब देते हुए सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का ज़िक्र किया था.
मुख्तार अब्बास नक़वी ने 20 मार्च, 2015 को राज्यसभा में एक और सवाल का जवाब देते हुए बताया कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय में कुल 98 स्थायी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को रखने की अनुमति दी गई है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि बक़ौल मुख्तार अब्बास नक़वी, इस समय मंत्रालय में केवल 66 अधिकारी-कर्मचारी ही कार्यरत हैं. ऐसी स्थिति में हम स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं कि अल्पसंख्यकों से संबंधित काम कितनी तेज़ी से अंजाम पा रहे होंगे? सरकार को यह जवाब देना चाहिए कि वह अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के उक्त रिक्त पद कब भरेगी? मोदी सरकार को लेकर मुसलमानों की चिंता अभी तक दूर न होने की एक बड़ी वजह यह भी है कि अल्पसंख्यक मामलों जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय में इस समय एक भी मुस्लिम अधिकारी मौजूद नहीं है. इससे मुसलमानों के इस मत को बल मिलता है कि अल्पसंख्यकों को लेकर मोदी सरकार की नीयत सा़फ नहीं है.
अब बात करते हैं मुसलमानों के साथ देश में होने वाले भेदभाव की. भारत का संविधान भले ही धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव की अनुमति न देता हो, लेकिन आज़ादी के 67 वर्षों से अधिक समय गुज़र जाने के बावजूद आज भी जाति और धर्म के आधार पर लोगों के साथ भेदवभाव हो रहा है. हाल में मुंबई के ज़ीशान को मुसलमान होने के कारण हरि कृष्णा नामक कंपनी में नौकरी न मिलना इसका ताजा उदाहरण है. इस तरह के भेदभाव को मद्देनज़र रखते हुए सच्चर कमेटी ने समान अवसर आयोग गठित करने की स़िफारिश की थी, ताकि अल्पसंख्यकों, विशेषत: मुसलमानों के साथ अगर धार्मिक आधार पर कहीं भेदभाव होता है कि तो यह आयोग उस पूरे मामले की जांच-पड़ताल कर सके और दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिला सके. मोदी सरकार सच्चर कमेटी की इस अनुशंसा पर क्या अमल कर रही है, इसका एक लिखित जवाब देते हुए नजमा हेपतुल्लाह ने पिछले वर्ष 22 जुलाई को राज्यसभा को बताया था कि समान अवसर आयोग (ईओसी) की रूपरेखा क्या होगी और वह काम कैसे करेगा, इसकी रूपरेखा तैयार करने के लिए पिछली यूपीए सरकार ने विशेषज्ञों का एक समूह बनाया था, जिसने ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, ब्रिटेन एवं अमेरिका जैसे देशों में मौजूद इस तरह के मॉडल का विवरण सहित अध्ययन किया था और उसके बाद एक रिपोर्ट तैयार की थी. फिर पिछली यूपीए सरकार ने ही संबंधित विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट, मंत्रियों के समूह की अनुशंसाओं और विचार-विमर्श के आधार पर अल्पसंख्यकों के लिए समान अवसर आयोग (ईओसी) गठित करने के लिए ईओसी बिल-2013 का मसौदा तैयार कर लिया था, ताकि उसे संसद में पेश किया जा सके, लेकिन उसी समय 2014 के आम चुनाव आ गए, जिसके बाद केंद्र में नई सरकार बन गई. नजमा हेपतुल्लाह ने राज्यसभा को बताया था कि उनकी सरकार अब संबंधित राजनेताओं से ईओसी बिल का मसौदा तैयार करने के लिए एक बार फिर मंज़ूरी प्राप्त करने की कोशिश कर रही है, ताकि समान अवसर आयोग गठित करने के लिए इस बिल को संसद में पेश किया जा सके. दुर्भाग्य है कि जुलाई, 2014 के बाद संसद के दो सत्र हो चुके हैं, लेकिन मोदी सरकार द्वारा ईओसी बिल अब तक संसद में पेश नहीं किया जा सका है और न यह मालूम है कि कब तक इस पर आ़िखरी अमल मुमकिन हो सकेगा.