केवल लखनऊ पर खर्च हो रहा है एक करोड़ हर रोज़
नेताओं की ह़िफाज़त और तीमारदारी में लगी रहती है पुलिस
आम से लेकर खास आदमी की सुरक्षा पुलिस के हवाले रहती है. जाम से निजात दिलाना हो या समाज को अपराध मुक्त बनाने की कवायद. सुरक्षा का दायित्व सिर्फ पुलिस विभाग का ही है. लेकिन इस सुरक्षा की कीमत जानेंगे तो अवाक रह जाएंगे. लखनऊ जनपद की एक दिन की सुरक्षा करने की कीमत पुलिस विभाग एक करोड़ रुपये लेती है. यानि एक करोड़ रुपये प्रतिदिन के खर्च पर लखनऊ की सुरक्षा होती है. हालांकि एक करोड़ रुपये प्रतिदिन के खर्च पर आम आदमी की सुरक्षा कितनी होती है, यह समीक्षा का विषय है. इस एक करोड़ रुपये का आधा हिस्सा खास लोगों (वीआईपी हस्तियों) की सुरक्षा पर ही खर्च हो जाता है.
लखनऊ शहर में पुलिस लोगों की सुरक्षा में तत्पर रहने का दावा करती है. लखनऊ जनपद में आगजनी हो या फिर जाम की शिकायत, चौराहे पर सरेआम लूट और हत्या का मामला हो या राहजनी या छेड़खानी-गुंडागर्दी का, हर मामले में पुलिस आम और खास की सुरक्षा का दावा करती है. लेकिन पुलिस इस पर कितना खरा उतरती है, यह सभी जानते हैं. पुलिस का आंकिक विभाग कहता है कि लखनऊ जनपद में तैनात पुलिसकर्मी और अधिकारियों के वेतन मद में सालाना 3,46,12,36,051 रुपये खर्च हुए. इस आंकड़े को 12 माह में बांटा जाए तो एक दिन का वेतन 96,14,544.58 रुपये आता है. इस वेतन के अलावा पुलिस विभाग का पेट्रोल खर्च, स्टेशनरी सहित कई ऐेसे कार्य हैं जिसका भुगतान सरकार हर माह करती है. लखनऊ जनपद में 17 पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी), 58 निरीक्षक (इंसपेक्टर), ट्रैफिक और सिविल पुलिस मिला कर करीब 550 दारोगा (सब इंसपेक्टर), 1082 मुख्य आरक्षी (हेड कांस्टेबल)और 5205 सिपाहियों की तैनाती है. इसके अलावा एक दर्जन से अधिक एडीशनल एसपी और एक एसएसपी हैं.
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प्रोटोकॉल महकमे के एक आला अधिकारी के मुताबिक, वीआईपी ड्यूटी में प्रतिदिन का आंकड़ा निकालना कठिन है, क्योंकि शहर में वीआईपी की संख्या बढ़ती जाती है. एक अनुमान के मुताबिक प्रतिदिन लगभग 20 एस्कॉर्ट वीआईपी ड्यूटी में लगे रहते हैं. एक एस्कॉर्ट में एक जिप्सी वाहन, एक चालक, एक हेड कांस्टेबल और दो सिपाही तैनात होते हैं. इसके साथ ही लगभग पांच पीएसओ लगाए जाते हैं. पीएसओ में एक दारोगा होता है. पुलिस लाइन के प्रतिसार निरीक्षक बताते हैं कि तकरीबन छह सौ सिपाही वीआईपी हस्तियों की सुरक्षा में लगे हैं. इनमें से अधिकतर नेताओं की सुरक्षा फ्री में होती है, यानी उसका खर्चा सरकार उठाती है. इसके साथ ही प्रतिदिन तीन सौ सिपाहियों की ड्यूटी कोर्ट में कैदियों की पेशी कराने में लग जाती है. कुल मिलाकर प्रतिदिन डेढ़ हजार से अधिक पुलिसकर्मी आम आदमी की सुरक्षा से दूर ही रहते हैं. इसमें दर्जनों दारोगा भी शामिल हैं. लब्बोलुबाव यह है कि आम नागरिकों की सुरक्षा के लिए आधे पुलिसकर्मी ही जनपद में मौजूद होते है. इसमें भी कुछ पुलिसकर्मियों की ड्यूटी रात में तो कुछ की ड्यूटी दिन में लगाई जाती है. यह हाल है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का. प्रदेश के जिलों का हाल तो और भी बदतर है.
वीआईपी और वीवीआईपी ड्यूटी में पुलिसकर्मियों की अत्यधिक संख्या में तैनाती को लेकर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन इस मुद्दे पर कोई नेता ध्यान क्यों दे! यहां तक कि एनएसजी कमांडो को भी नेताओं की सुरक्षा में लगाया जाता है. जेड प्लस कैटेगरी में संबंधित व्यक्ति की सुरक्षा में 40 पुलिसवाले लगाए जाते हैं. साथ ही 10-10 की संख्या में कमांडो की टीम होती है. एक बार में पांच कमांडो तैनात रहते हैं. इनमें से एक इंचार्ज होता है. बाकी चार कमांडो संबंधित व्यक्ति को घेरे रहते हैं. जिस वीवीआईपी को यह सुरक्षा दी जाती है, उसके साथ एक सब-इंस्पेक्टर और चार सिपाही की टीम वैन में काफिले के आगे-पीछे चलती है. केंद्र सरकार की ओर से संबंधित व्यक्ति को नेशनल सिक्युरिटी गार्ड (एनएसजी) के 10-10 कमांडो उपलब्ध कराए जाते हैं. साथ ही, पीएसी के कोबरा कमांडो भी तैनात किए जाते हैं. सुरक्षा की इस श्रेणी के अलावा जेड, वाई और एक्स श्रेणी भी हैं. इन श्रेणियों की सुरक्षा में भी बड़ी तादाद में पुलिसकर्मी तैनात रहते हैं. प्रदेश में वीआईपी सुरक्षा पाने वालों में मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, पार्षद, नौकरशाह, पूर्व नौकरशाह, जज, पूर्व जज, व्यापारी, क्रिकेटर, सिनेमा कलाकार, साधु-संत, मुल्ला-मौलवी से लेकर सत्ता तक पहुंच वाले माफिया और दलाल भी शामिल हैं.
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यूपी में गनर-फैशन के मारे सबसे अधिक
यूपी में सुरक्षा मुहैया कराने और हथियारबंद गनर की मांग लगातार बढ़ती जा रही है. छुटभैये इसे ही स्टेटस-सिम्बल मानते हैं. मौजूदा सरकार में तो गनर पाने के लिए किसी बड़े नेता या नौकरशाह की सिफारिश ही काफी है. सत्ता व सामर्थ्यवानों की सुरक्षा पर 25 करोड़ रुपये प्रति माह खर्च करने वाली सरकार तो अब किश्तों में भी गनर मुहैया करा रही है. यह बात भी उजागर हो चुकी है कि गृह विभाग को सिर्फ एक सिफारिशी फोन मिलने पर संबंधित व्यक्ति को गनर दे दिया जाता है. नियमतः एक महीने के लिए सरकारी गनर मिलता है, लेकिन सरकार के चहेतों के लिए यह तीन-चार साल तक बेरोक-टोक जारी रहता है. ऐसे डेढ़ हजार तथाकथित वीआईपी हैं, जिनकी सुरक्षा में तीन हजार से अधिक गनर लगे हैं. जिन लोगों की सुरक्षा-अवधि (गनर अवधि)खत्म भी हो गई, उन्हें भी सत्ता-लाभ प्राप्त हो रहा है. अब इससे ही अंदाजा लगा लीजिए कि इन्फोर्समेंट निदेशालय की जांच और आयकर छापों की मार झेलने वाले विवादास्पद बिल्डर संजय सेठ जैसे लोगों को भी सरकारी सुरक्षा मिली हुई है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के सख्त निर्देश पर गृह विभाग के प्रमुख सचिव, डीजीपी और डीजी (सिक्युरिटी) की सदस्यता वाली विशेष कमेटी बनी हुई है जो गनर के लिए दिए जाने वाले आवेदनों की जांच करती है. गनर देने से पहले आवेदक के इलाके की स्थानीय खुफिया इकाई (एलआईयू) से जांच रिपोर्ट प्राप्त करने और उसकी गहन समीक्षा जरूरी है. लेकिन यह नियम जमीन पर कहीं नहीं दिखता. अब तो वीआईपी छोड़िए, मायावती के मुख्यमंत्रित्वकाल में राजधानी में बनी तमाम मूर्तियों और पत्थर-पार्कों की सुरक्षा में भी सुरक्षाबल लगे हैं. आम आदमी क्या करे!