चौथी दुनिया ने अपने 25 अप्रैल, 2011 के अंक में कोयला घोटाले का पर्दाफाश किया था. उस वक्त न सीएजी की रिपोर्ट आई थी और न किसी ने सोचा था कि इतना बड़ा घोटाला भी हो सकता है. उस वक्त हमारी रिपोर्ट पर किसी ने विश्वास नहीं किया. चौथी दुनिया ने अपनी पहली रिपोर्ट में ही कहा था कि यह घोटाला नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का पहला महाघोटाला है, जिसमें इस देश को 26 लाख करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है. देश की तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया अब भी तटस्थ बैठा है. वह तय नहीं कर पा रहा है कि घोटाला है भी या नहीं. और, अगर घोटाला है, तो फिर कितने का है. चौथी दुनिया की रिपोर्ट को देश के उच्चतम न्यायालय ने सही साबित किया और 218 में से 214 कोयला ब्लॉकों के आवंटन रद्द कर दिए. मोदी सरकार अब फिर से इन कोयला खदानों की नीलामी कर रही है. अब तक 33 खदानों की नीलामी से ही दो लाख नौ हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा पैसा देश को मिल चुका है. मतलब यह कि नीलामी प्रक्रिया ने चौथी दुनिया की रिपोर्ट पर भी मुहर लगा दी है. 09 सितंबर, 2013 के अंक में चौथी दुनिया ने एक कवर स्टोरी छापी, जिसका शीर्षक था-मनमोहन सिंह जेल जा सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने मनमोहन सिंह को आरोपी बनाकर इस ख़बर की भी पुष्टि कर दी है.
मनमोहन सिंह के आरोपी बनते ही सोनिया गांधी ने पार्टी नेताओं को मनमोहन सिंह का बचाव करने के आदेश दे दिए. सोनिया ने कांग्रेस दफ्तर से मनमोहन सिंह के घर तक मार्च करके उनके प्रति पार्टी के समर्थन का इजहार किया. अजीबोगरीब स्थिति है. एक व्यक्ति इतिहास के सबसे बड़े घोटाले का आरोपी बनता है और देश की सबसे पुरानी पार्टी उसके साथ खड़ी हो जाती है. क्या यही गांधी, नेहरू और पटेल की पार्टी का चरित्र रह गया है? सवाल यह है कि सोनिया गांधी ने ऐसा क्यों किया, इस राजनीतिक ड्रामे के पीछे क्या कारण था? मनमोहन सिंह के साथ सॉलिडेरिटी तब क्यों नहीं दिखाई गई, जब सुप्रीम कोर्ट ने उनसे पूछताछ करने का आदेश दिया? मनमोहन सिंह अब तक चुप रहे हैं. लेकिन, जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने मनमोहन सिंह को कोयला घोटाले में आरोपी नंबर छह बनाया, तो कांग्रेस पार्टी का पसीना छूटने लगा. सोनिया गांधी ने इस मुद्दे पर कांग्रेस कार्यसमिति की आपात बैठक बुलाई. बैठक में कार्यसमिति के वरिष्ठ रणनीतिकारों ने मनमोहन के ख़िलाफ़ मुकदमे और अन्य अहम मसलों पर रणनीति तैयार करते हुए सिंह के समर्थन में पार्टी दफ्तर से उनके आवास तक मार्च करने का निर्णय लिया. हालांकि, ऐसी बैठकों में यह पहले ही तय हो जाता है कि क्या फैसला करना है. बैठक स़िर्फ औपचारिकता होती है. सोनिया गांधी ने इस मुद्दे पर आपात बैठक बुलाकर यह साबित कर दिया कि मनमोहन सिंह को आरोपी बनाया जाना कांग्रेस पार्टी के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है. इसलिए एक रणनीति के तहत आपात बैठक बुलाई गई. सोनिया गांधी कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों से मिलीं, साथ ही दोनों सदनों के पार्टी सांसदों को भी तलब किया गया. मजेदार बात यह है कि इस बैठक में मनमोहन सिंह को नहीं बुलाया गया. सभी ने वही किया, जो पहले से तय था. सारे लोग कांग्रेस कार्यालय से मार्च करते हुए मनमोहन सिंह के घर पहुंचे. अब सवाल यह है कि सोनिया गांधी ने ऐसा क्यों किया?
कोयला घोटाले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बात पर भरोसा नहीं किया और शपथपत्र देने के लिए कहा. कई बार मनमोहन सरकार के अटॉर्नी जनरल वाहनवती को फटकार लगाई गई. कई बार संसद के अंदर और बाहर सरकार को माफी मांगनी पड़ी. यह घोटाला ऐसा था, जिसे छिपाने के लिए कांग्रेस सरकार ने हरसंभव उपाय किए. तत्कालीन क़ानून मंत्री अश्विनी कुमार ने सीबीआई रिपोर्ट ही बदल दी. पकड़े जाने पर झूठ बोला कि उन्होंने स़िर्फ रिपोर्ट का व्याकरण ठीक किया. कोर्ट ने जब कड़ा रुख अपनाया, तो सीबीआई ने स्वीकार किया कि सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट को पेश करने से पहले उसे क़ानून मंत्री और पीएमओ ने देखा तथा उसमें बदलाव भी कराए.
सच्चाई यह है कि मनमोहन सिंह उस दौरान प्रधानमंत्री ज़रूर थे, लेकिन वह कभी भी एक स्वतंत्र प्रधानमंत्री के रूप में काम नहीं कर सके. वह शायद देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री रहे, जिन्हें अपनी मनपसंद कैबिनेट चुनने की आज़ादी नहीं थी. मनमोहन सरकार से जुड़े लोगों द्वारा जितनी भी किताबें लिखी गईं, सबने यही लिखा कि मनमोहन सिंह स़िर्फ मुखौटा थे, सत्ता का केंद्र हमेशा 10 जनपथ ही रहा. मनमोहन सिंह राजनेता कभी नहीं रहे, उनके पास जनसमर्थन नहीं है, वह आज तक कोई चुनाव नहीं जीते और हमेशा पिछले दरवाजे से राज्यसभा के सदस्य बनते रहे. ये उनकी कमियां नहीं, बल्कि खूबियां थीं, जिनकी वजह से उन्हें सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनाया था. दस साल की यूपीए सरकार की कहानी सोनिया गांधी के इस ़फैसले से सही साबित हुई. मनमोहन सिंह नीतीश कुमार के मांझी नहीं निकले, उन्होंने कभी विद्रोह नहीं किया, क्योंकि वह एक करियरिस्ट हैं. सीधे शब्दों में कहें, तो वह प्रधानमंत्री पद की नौकरी कर रहे थे. उनमें देश और कांग्रेस पार्टी को नेतृत्व देने की कभी इच्छा ही नहीं जगी. चूंकि वह एक करियरिस्ट हैं, इसलिए स्वयं को बेदाग रखने और बचाने के लिए हरसंभव क़दम उठाएंगे. यही वजह है कि वह दबाव में टूट जाते हैं. सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी इस बात को जानती है. जब 2-जी घोटाला हुआ, मामला कोर्ट पहुंचा और गिरफ्तारियां होने लगीं तथा जब शक की सुई मनमोहन सिंह की तरफ़ मुड़ने लगी, तब वह टूट गए. उन्होंने ऐसा बयान दिया कि कांग्रेस की किरकिरी हो गई. उन्होंने कहा कि 2-जी घोटाला गठबंधन के दबाव का नतीजा है. लेकिन, कोयला घोटाले में तो वह यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि जब घोटाला हुआ था, तब मनमोहन सिंह स्वयं कोयला मंत्री थे. मनमोहन सिंह के दस्तखत से कोयला खदानों का आवंटन हुआ और इसलिए वह इस घोटाले की ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते.
अब जरा समझते हैं कि सोनिया गांधी ने पार्टी नेताओं के साथ एकजुट होकर मनमोहन सिंह के घर तक मार्च क्यों किया. दरअसल, एक ख़बर यह आई कि आरोपी बनाए जाने के तुरंत बाद मनमोहन सिंह ने भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं से संपर्क साधा और फोन करके अपनी व्यथा सुनाई. बताया गया कि मनमोहन सिंह ने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं एवं मंत्रियों से कहा कि यह उनकी लड़ाई है. उन्होंने यह भी कहा कि पार्टी उनका बचाव नहीं करेगी, इसलिए वह खुद अपना बचाव करेंगे. भाजपा नेताओं ने मनमोहन सिंह को आश्वासन दिया कि बदले की भावना के साथ कोई कार्रवाई नहीं होगी. यह ख़बर आते ही कांग्रेस पार्टी के अंदर हड़कंप मचना स्वाभाविक था. मनमोहन सिंह को अदालत में एक आरोपी बनकर पेश होना है और यह उनके लिए एक शर्मनाक परिस्थिति है. कोयला खदानों का आवंटन उनके दस्तखत से हुआ है, ऐसे में बचने का बस एक ही रास्ता है. मनमोहन सिंह तभी बच सकते हैं, जब वह या तो सरकारी गवाह बन जाएं या फिर यह साबित कर दें कि उन्होंने जो किया, वह किसी के दबाव में किया. मतलब यह कि वह कोयला घोटाले के सारे राज उजागर करके खुद पर लगा दाग मिटा दें. मनमोहन सिंह कहीं दबाव में आकर कोर्ट में सब कुछ उजागर न कर दें, उसी को रोकने के लिए सोनिया गांधी ने
मार्च किया.
यह बात है 2006-07 की, जब शिबू सोरेन जेल में थे और सरकार त़ेजी से कोयला खदान मुफ्त में बांटने लगी थी. सबसे बड़ी बात यह है कि उक्त कोयला खदानें स़िर्फ 100 रुपये प्रति टन की खनिज रॉयल्टी के एवज में बांट दी गईं. मतलब यह कि पहले मुफ्त में खदानें दे दी गईं, फिर उन खदानों से कोयला निकालने के बाद 100 रुपये प्रति टन के रेट से सरकार को पैसे मिलने का प्रावधान बनाया गया. ऐसा तब किया गया, जब कोयले का बाज़ार मूल्य 1800 से 2000 रुपये प्रति टन के ऊपर था. समझने वाली बात यह है कि मनमोहन सरकार ने संसद को यह विश्वास दिलाया था कि माइंस और मिनरल (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. नोट करने वाली बात यह है कि इस विधेयक में साफ़-साफ़ लिखा था कि कोयले या किसी भी खनिज की खदानों के लिए सार्वजनिक नीलामी की प्रक्रिया अपनाई जाएगी. अगर यह विधेयक 2006 में ही पास हो जाता, तो 26 लाख करोड़ रुपये का नुक़सान नहीं होता. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे म़ंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी, लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने यह विधेयक चार सालों तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा और इस दौरान देश के सबसे बड़े घोटाले को अंजाम दिया गया. संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और कोयला खदान बांटने का गोरखधंधा चलता रहा.
कोयला घोटाले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बात पर भरोसा नहीं किया और शपथपत्र देने के लिए कहा. कई बार मनमोहन सरकार के अटॉर्नी जनरल वाहनवती को फटकार लगाई गई. कई बार संसद के अंदर और बाहर सरकार को माफी मांगनी पड़ी. यह घोटाला ऐसा था, जिसे छिपाने के लिए कांग्रेस सरकार ने हरसंभव उपाय किए. तत्कालीन क़ानून मंत्री अश्विनी कुमार ने सीबीआई रिपोर्ट ही बदल दी. पकड़े जाने पर झूठ बोला कि उन्होंने स़िर्फ रिपोर्ट का व्याकरण ठीक किया. कोर्ट ने जब कड़ा रुख अपनाया, तो सीबीआई ने स्वीकार किया कि सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट को पेश करने से पहले उसे क़ानून मंत्री और पीएमओ ने देखा तथा उसमें बदलाव भी कराए. इतना ही नहीं, बेशर्मी की हद यह कि घोटाले से जुड़े कागजात गायब हो जाने की ख़बर फैला दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने जब सीबीआई से अधिकारियों और ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज करने को कहा, तो सारे कागजात अपने आप मिल गए. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सारे ग़ैर क़ानूनी आवंटनों पर मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर हैं. अब सवाल यह है कि कांग्रेस सरकार ने इस घोटाले पर पर्दा डालने और सीबीआई की जांच को पथभ्रष्ट करने के लिए अनैतिक तरीके क्यों अपनाए तथा किसे बचाने की कोशिश की जा रही है?
दरअसल, 2006 से 2009 के बीच तत्कालीन कोयला मंत्री शिबू सोरेन जेल में थे. उस दौरान इस मंत्रालय की ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास थी. उन दिनों कोल ब्लॉक आवंटन का काम पीएमओ की ओर से गठित एक स्क्रीनिंग कमेटी देख रही थी, लेकिन सारे ़फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय के कुछ अधिकारी ले रहे थे. तत्कालीन कोयला सचिव बार-बार पत्र लिखकर प्रधानमंत्री को बता रहे थे कि कोयला खदानों के आवंटन में नियमों की अनदेखी हो रही है, आवंटन के लिए नीलामी प्रणाली अपनानी चाहिए, लेकिन मनमोहन सिंह ने उनकी बात नहीं मानी. सवाल है कि आख़िर क्या वजह थी कि कोल ब्लॉक आवंटन के लिए नीलामी कराने के कोयला सचिव के सुझाव को प्रधानमंत्री कार्यालय ने नज़रअंदाज़ किया? जाहिर है, जांच इस बात की भी होनी चाहिए कि पीएमओ में बैठे किस व्यक्ति या अधिकारी ने कोयला सचिव की राय खारिज की और किसके कहने पर ऐसा किया? क्या तत्कालीन प्रधानमंत्री देश को यह बताएंगे कि उनकी सरकार ने किस नियम के तहत कोल ब्लॉक आवंटन नीलामी के ज़रिये न कराकर पहले आओ-पहले पाओ की नीति पर किया? यह सब जानते हुए उन्होंने खदानों के आवंटन पर दस्तखत क्यों किए? क्या उन पर किसी का दवाब था? ऐसे कई सवाल हैं, जिनका जवाब मनमोहन सिंह को देना है. कांग्रेस पार्टी को डर यही है कि कहीं मनमोहन सिंह अपनी छवि बचाने के लिए सच न उगल दें. मनमोहन सिंह के सामने अब बस दो रास्ते हैं. एक यह कि वह इस घोटाले की ज़िम्मेदारी ले लें और इतिहास में एक भ्रष्ट प्रधानमंत्री के रूप में खुद को प्रस्तुत करें या फिर वह सच-सच सारी बातें बता दें.
जब विनाश मनुष्य पर आता है, पहले विवेक मर जाता है. यह कहावत कांग्रेस पार्टी और खासकर सोनिया गांधी पर अक्षरश: लागू होती है. पहले घोटाला करो, देश के संसाधन लुटवा दो. पकड़े जाने पर घोटाले से इंकार कर दो. मीडिया हो-हल्ला मचाए, तो जीरो लॉस थ्योरी देकर उसे शांत कर दो. सीएजी जब आरोप की पुष्टि कर दे, तो आंख दिखाओ और कहो कि वह अपनी औकात में रहे. और, जब सुप्रीम कोर्ट तलब करे, तो वहां जाकर झूठ बोल दो. सीबीआई की जांच का आदेश हो जाए, तो उसकी चार्जशीट बदल दो. पकड़े जाओ, तो कोर्ट में कहो कि यह एक नीतिगत ़फैसला है और कोर्ट को इस पर बोलने का अधिकार नहीं है. कांग्रेस पार्टी और उसके वकील नेताओं को लगता है कि वे देश में अकेली ऐसी प्रजाति हैं, जिसके पास ज्ञानचक्षु है और बाकी पूरे देश की जनता मूर्ख है. कांग्रेस की यही सोच उसे रसातल में ले गई है. अगर कांग्रेस की यह सोच नहीं बदली, तो दिल्ली की तरह देश के राजनीतिक पटल पर उसका अस्तित्व शून्य रह जाएगा.