जिस तरह सरकारी वकीलों की नियुक्ति चर्चा और विवादों में है, उसी तरह प्रदेश का महाधिवक्ता चुनने में भी तमाम किस्म की सियासी नौटंकियां हुई थीं. प्रदेश सरकार का उहापोही चरित्र महाधिवक्ता के चयन में उजागर हो गया था. कभी शशि प्रकाश सिंह यूपी के महाधिवक्ता बनाए जा रहे थे तो कभी महेश चतुर्वेदी. अंदर-अंदर राघवेंद्र सिंह भी लगे थे और उन्होंने सुनील बंसल को पकड़ रखा था. एक समय तो यह भी आया, जब राज्य सरकार ने आधिकारिक तौर पर कह दिया कि हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के वरिष्ठ अधिवक्ता शशि प्रकाश सिंह प्रदेश के महाधिवक्ता होंगे. 27 मार्च 2017 को यह फैसला हुआ और कहा गया कि 28 मार्च को इसकी बाकायदा घोषणा होगी. तमाम अखबारों में शशि प्रकाश सिंह के महाधिवक्ता बनने की खबरें और उनकी तस्वीरें भी छप गईं. लेकिन सरकार ने औपचारिक घोषणा नहीं की. शशि प्रकाश सिंह को संघ का समर्थन प्राप्त था. वे संघ के अनुषांगिक संगठन अधिवक्ता परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और परिषद की यूपी इकाई के अध्यक्ष रहे हैं. लेकिन महाधिवक्ता की नियुक्ति में भी संघ की नहीं चली. विधानसभा चुनाव लड़ना चाह रहे पूर्व सांसद राघवेंद्र सिंह को पार्टी ने विधायकी का टिकट नहीं दिया था. सुनील बंसल ने इसके एवज में उन्हें प्रदेश का महाधिवक्ता बनाने में भूमिका अदा की. इसीलिए अधिवक्ता जगत में चर्चा है कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति सुनील बंसल और राघवेंद्र सिंह की आपसी समझदारी और साठगांठ से हुई है. महाधिवक्ता पद के लिए कतार में खड़े महेश चतुर्वेदी और रमेश कुमार सिंह जैसे वरिष्ठों को अपर महाधिवक्ता का पद लेकर संतुष्ट होना पड़ा. महेश चतुर्वेदी बसपा सरकार में मुख्य स्थाई अधिवक्ता थे. रमेश सिंह राजनाथ सिंह के शासनकाल में प्रदेश के अपर महाधिवक्ता थे.
महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आदेश की भी कोई परवाह नहीं की. मुख्यमंत्री का स्पष्ट आदेश था कि एचपी श्रीवास्तव को एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल के पद से हटाया जाए. लेकिन इस आदेश को महाधिवक्ता ने ताक पर रख दिया और पुनरीक्षित सूची में भी एचपी श्रीवास्तव को एडिशनल चीफ स्टैडिंग काउंसिल के बतौर शामिल कर लिया. प्रदेश के कुछ महत्वपूर्ण कानूनी मामले में सरकार की किरकिरी कराने के कारण मुख्यमंत्री ने श्रीवास्तव को तत्काल प्रभाव से हटाने का आदेश दिया था. सत्ता गलियारे के शीर्ष सूत्र बताते हैं कि मुख्यमंत्री का आदेश सरकार के विधि परामर्शी (एलआर) के दफ्तर में दबा दिया गया है. यहां फिर से जिक्र करना जरूरी है कि यूपी सरकार के अपर विधि परामर्शी (एडिशनल एलआर)) रणधीर सिंह के सगे भाई रणविजय सिंह को महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बना दिया है. स्वाभाविक है कि राघवेंद्र ने यह सब सोच-समझ कर ही किया होगा. राघवेंद्र और एचपी श्रीवास्तव के बड़े पुराने गहरे सम्बन्ध रहे हैं. सरकारी वकील होते हुए भी एचपी श्रीवास्तव अपने मित्र राघवेंद्र के लिए अपनी पेशेगत-प्रतिबद्धता को ताक पर रखते रहे हैं.
उत्तर प्रदेश के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने भरी अदालत में योगी सरकार की किरकिरी कराई तो उनकी योग्यता को लेकर तमाम सवाल उठने लगे. मामला वर्ष 2007 में गोरखपुर में हुए एक दंगे को लेकर था और खुद योगी आदित्यनाथ उसके घेरे में थे. इस मामले में सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट में महाधिवक्ता की हरकतों के कारण प्रदेश सरकार की खूब फजीहत हुई.
सुनवाई के दौरान यह मुद्दा उठा था कि अगर सरकार किसी के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी देने से इंकार कर दे तो क्या सरकार के फैसले को दरकिनार कर कोई मजिस्ट्रेट मामले की सुनवाई कर सकता है? उत्तर प्रदेश के अपर महाधिवक्ता (एडिशनल एडवोकेट जनरल) मनीष गोयल और सरकार की तरफ से पैरवी के लिए आए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अजय कुमार मिश्र सरकार के पक्ष में दलील दे रहे थे. बहस के दौरान ही महाधिवक्ता (एडवोकेट एडवोकेट जनरल) राघवेंद्र सिंह खड़े हो गए और उन्होंने अपने ही सहयोगियों की दलील को काटना शुरू कर दिया. महाधिवक्ता के इस रवैये से पूरी कोर्ट सकते में आ गई. सुनवाई कर रहे न्यायाधीश कृष्ण मुरारी और एसी शर्मा भी हैरत में आ गए और उन्होंने महाधिवक्ता से पूछ ही लिया कि कोर्ट सरकार की तरफ से आए एडिशनल एडवोकेट जनरल और सुप्रीम कोर्ट के वकील की बात सही मानें या फिर एडवोकेट जनरल की बात को सही माना जाए! हाईकोर्ट ने कटाक्ष करते हुए कहा, आप दोनों पहले फैसला कर लें कि आप लोग कहना क्या चाहते हैं. आप लोग खुद ही एक राय नहीं हैं. अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार के महाधिवक्ता को महत्वपूर्ण और गंभीर मामले में अदालत में हाजिर नहीं रहने के लिए फटकार भी लगाई. हाईकोर्ट ने सरकार के वकीलों के बरताव से नाराज होते हुए कहा था, हम एडवोकेट जनरल के खिलाफ रिस्ट्रेंट ऑर्डर पास कर रहे हैं. आपकी राय अपने सहयोगी वकीलों से अलग है, जबकि यह बेहद गंभीर मामला है. आप ज्यादातर समय लखनऊ में रहते हैं जबकि एडवोकेट जनरल का मुख्य कार्यालय इलाहाबाद में है. अदालत ने इस बात को संज्ञान में लिया था कि यूपी सरकार के वकीलों के पास मूल याचिका में बदलाव के विरोध में कोई ठोस सबूत नहीं है.