स्वच्छता का पूर्ण लक्ष्य हासिल करने के लिए सभी विद्यालयों, आंगनबाड़ी केन्द्रों में स्वच्छता सुविधाएं उपलब्ध कराने और जहां आवश्यकता हो वहां सामुदायिक शौचालय सुविधाओं की व्यवस्था कराने की योजना बनाई गई है. ठोस और तरल कचरा प्रबंधन में सुधार स्वच्छ भारत अभियान (ग्रामीण) की एक महत्वपूर्ण कड़ी है.
भारत सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान 2 अक्टूबर 2014 को प्रारंभ किया था. इस अभियान का उद्देश्य स्वच्छता अभियान चलाकर एक साफ-सुथरा देश बनाना था. इसके दो प्रमुख उप-अभियान हैं, ग्रामीण और शहरी, जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की स्वच्छता पर ध्यान केंद्रित करते हैं. इस अभियान का लक्ष्य 2019 तक पूर्ण स्वच्छता का लक्ष्य हासिल करना है. इस पहल से यह उम्मीद भी रखी गई है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बेहतर छवि बने और दुनिया भर में इसे रहने, यात्रा और निवेश करने के लिए एक बेहतर स्थान के रूप में देखा जाए.
इस अभियान के तहत भारत के अधिकतर राज्यों में घरेलू शौचालय (आईएचएचएल) निर्माण के लिए प्रोत्साहन राशि 10,000 से बढ़ा कर 12,000 कर दी गई है. इसे केंद्र और राज्य दोनों 75ः25 के अनुपात में वहन करेंगे. आंध्र प्रदेश जैसे कुछ राज्य नेशनल रूरल एम्प्लायमेंट गारंटी स्कीम (नरेगा) की मद से 3000 रुपए की अतिरिक्त राशि स्नान सुविधाओं के साथ शौचालय बनाने के लिए दे रहे हैं. स्वच्छता का पूर्ण लक्ष्य हासिल करने के लिए सभी विद्यालयों, आंगनबाड़ी केन्द्रों में स्वच्छता सुविधाएं उपलब्ध कराने और जहां आवश्यकता हो वहां सामुदायिक शौचालय सुविधाओं की व्यवस्था कराने की योजना बनाई गई है. ठोस और तरल कचरा प्रबंधन में सुधार स्वच्छ भारत अभियान (ग्रामीण) की एक महत्वपूर्ण कड़ी है.
15 नवम्बर 2015 को केंद्र सरकार ने इस अभियान के लिए भारत में सभी कर योग्य सेवाओं पर 0.5 प्रतिशत का स्वच्छ भारत उपकर लगाया. इसके अलावा, 24 नवम्बर 2014 को स्वच्छ भारत कोष (क्लीन इंडिया फंड) की स्थापना की गई ताकि कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व निधि (सीएसआर), व्यक्तियों, संस्थागत दाताओं और अप्रवासी भारतीयों से फंड हासिल किया जा सके.
मार्च 2016 में अभियान ने लक्ष्य प्राप्ति के लिए 60 महीनों की निर्धारित समय सीमा में से 18 महीने पूरे कर लिए हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 16,78,26,730 ग्रामीण परिवार रहते हैं. इनमें से 67.3 प्रतिशत परिवार खुले में शौच करते हैं और केवल 35 प्रतिशत परिवारों के आवास परिसर में पेयजल उपलब्ध है. इस अभियान के दौरान 18 महीनों में रिकॉर्ड एक करोड़ 76 लाख शौचालयों का निर्माण किया गया. इससे घर में शौचालय बनाने वाले परिवारों का दायरा 42.12 प्रतिशत से बढ़कर 51.83 प्रतिशत हो गया.
इसका मतलब यह है कि एसबीएम (ग्रामीण) को 2 अक्टूबर 2019 से पहले गांवों में ठोस और तरल कचरों के निष्पादन के साथ-साथ शेष 8 करोड़ 8 लाख परिवारों के लिए शौचालय का निर्माण करना होगा. लिहाज़ा कार्य की रफ़्तार को देखकर ग्रामीण क्षेत्रों में 100 प्रतिशत लक्ष्य की प्राप्ति दूर की कौड़ी लगती है.
जनवरी 2016 के अंत तक, स्वच्छ भारत कोष में 369.74 करोड़ रुपए का अनुदान जमा था. हालांकि स्वच्छ भारत कोष के दिशानिर्देशों के अनुसार पानी की आपूर्ति बढ़ाने और ख़राब हो चुके शौचालयों की मरम्मत को प्राथमिकता दी गई है, लेकिन इस कोष का अधिकांश धन अब नए शौचालयों के निर्माण पर खर्च हो रहा है. स्वच्छ भारत उपकर के मद में जमा राशि की जानकारी अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है.
एसबीएम (ग्रामीण) के दिशानिर्देशों में राज्य और जिला स्तर में रैपिड एक्शन और लर्निंग यूनिट्स (आरएलयू) की स्थापना की बात की गई है. इनका काम फील्ड स्तर की सर्वोत्तम कार्यप्रणाली का पता लगाकर उसे अभियान के कार्यान्वयन में शामिल करना है. हालांकि जुलाई 2015 में एक राष्ट्रीय स्तर की आरएलयू की स्थापना की अधिसूचना जारी कर दी गई थी, लेकिन आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ को छोड़कर किसी राज्य ने अभी तक इस प्रावधान को गंभीरता से नहीं लिया है. एसबीएम (ग्रामीण) में सुधार, खुले शौचालय को कम करने और एसएलडब्ल्यूएम में राज्यों के बेहतर प्रदर्शन को प्रोत्साहित करने के लिए मार्च 2016 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 150 करोड़ डॉलर की विश्व बैंक की परियोजना को मंजूरी दी. हालांकि, इस योजना को लागू करने में अभी कुछ समय लग सकता है.
अभियान की अड़चनें
ग्रामीण परिवारों के व्यवहार में परिवर्तन लाना एक चुनौतीपूर्ण काम है, क्योंकि ब्लॉक और जिला स्तरों पर अभियान को कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक कौशल और जनशक्ति का अभाव है. शौचालयों की स्वीकृति और उपयोग के लिए एक और महत्वपूर्ण शर्त पर्याप्त पानी की उपलब्धता है. जब तक एसबीएम (ग्रामीण) पानी की आपूर्ति सुनिश्चित नहीं करता है, तब तक लोग नवनिर्मित शौचालयों का इस्तेमाल नहीं करेंगे.
एसबीएम के अंतर्गत प्रोत्साहन राशि जारी करने की प्रक्रिया को सरल कर दिया गया है, जिसमें कुल भुगतान केवल दो किश्तों में किया जाता है. जब स्वच्छता विभाग के अधिकारी किसी परिवार को शौचालय निर्माण की मंजूरी दे देंगे, तब उस परिवार को शौचालय के आधार के निर्माण के लिए खुद 6 हजार रुपए खर्च करने पड़ेंगे. इसके बाद ही उस परिवार को उतनी ही प्रोत्साहन राशि की पहली किस्त मिलेगी.
शौचालय निर्माण के बाद प्रोत्साहन की अंतिम किस्त दी जाती है. इसके बाद विभाग, शौचालय के ढांचे की माप लेता है. इस तरह गरीब परिवार, विशेष रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवारों को शौचालय बनाने के लिए पहले अपने जेब से पैसा खर्च करना होगा. दरअसल यह एक ऐसी अड़चन है, जो अभियान की प्रगति को धीमी कर रही है. दिसंबर 2015 में एक फील्ड स्टडी के दौरान लेखक द्वारा एकत्रित आंकड़ों ने इस तथ्य को बिलकुल स्पष्ट कर दिया. विभिन्न समुदायों के 3,335 घरों के कुल सैंपल में से केवल 13.2 प्रतिशत घरों में शौचालय, स्नान कक्ष और पानी का कनेक्शन था, जबकि 764 अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवारों में से केवल 5.1 प्रतिशत के पास ही ये सुविधाएं थीं.
सेंटर फॉर वर्ल्ड सॉलिडेरिटी, हैदराबाद के तत्वाधान में सस्टेनेबल ग्राउंड वाटर मैनेजमेंट (एसओजीडब्ल्यूएम) परियोजना पर किए गए फील्ड स्टडी में पाया गया कि गांवों में बड़ी संख्या में शौचालय ख़राब पड़े हैं. एसओजीडब्ल्यूएम परियोजना के अधिकारियों ने 2011-12 में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के छह ग्राम पंचायतों के कुल 3317 घरों के अध्ययन में पाया कि 1161(35 प्रतिशत) परिवारों में पिछले दशक के दौरान सरकारी मदद से बनाए गए शौचालय बेकार हो गए हैं. जब तक एसएमबी (ग्रामीण) के तहत उन परिवारों को अपने शौचालय ठीक करने के बारे में प्रेरित नहीं किया जाता है, तब तक गांवों को खुले में शौच से मुक्ति दिलाना मुश्किल होगा. फिलहाल, 2011 की जनगणना या एसबीएम के आंकड़ों में बेकार पड़े शौचालयों का कोई उल्लेख नहीं है यानि इनके मुताबिक सभी शौचालय उपयोग में हैं.
सुधारात्मक उपाय
एसबीएम (ग्रामीण) के समक्ष तीन मुख्य बाधाएं हैं. पानी की आपूर्ति के अभाव में शौचालयों की स्वीकृति और इस्तेमाल का प्रभावित होना, लाभार्थी परिवारों द्वारा निर्माण पर आंशिक शुरुआती खर्च और गांवों में कई बेकार शौचालयों का होना.
शौचालयों का उपयोग बढ़ाने में पानी आपूर्ति की भूमिका को राज्य और केंद्र सरकार ने भी स्वीकार किया है, लेकिन कार्यान्वयन के स्तर पर कोई रणनीति नहीं अपनाई गई. एसबीएम (ग्रामीण) के तहत चयनित गांवों में पर्याप्त पानी की आपूर्ति उपलब्ध कराने के लिए एसबीएम ने संयुक्त दृष्टिकोण अपनाने की वकालत की है, लेकिन अभी तक जिला स्तर पर इसका कोई कार्यान्वयन नहीं हुआ है. इसके तहत प्रत्येक ब्लॉक से कुछ गांवों को चुन लिया जाता है. फिर इन गांवों को ओडीएफ (यानी खुले में शौच मुक्त) बनाने के लिए प्रयास किए जाते हैं. इसके बाद उन परिवारों की पहचान की जाती है जिनके पास शौचालय नहीं हैं. इसके बाद उन्हें शौचालय निर्माण के लिए प्रेरित किया जाता है. शौचालय बन जाने के बाद इसका उपयोग हो रहा है या नहीं, इसकी जांच की जाती है. कुछ गांवों में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को इस काम के लिए अनुबंधित किया जाता है, स्वच्छता अभियान के लिए किसी गांव की पहचान कर लेने के बाद जल वितरण नेटवर्क को ठीक करने के लिए भी निवेश किया जाना चाहिए. सभी घरों तक जल कनेक्शन सुनिश्चित किया जाना चाहिए. ग्राम पंचायतों को बेहतर जल आपूर्ति और रख-रखाव की प्रणाली विकसित करनी चाहिए. और सबसे महत्वपूर्ण यह कि पानी की आपूर्ति को सुचारू रूप से जारी रखने के लिए भूजल स्रोतों की निरंतरता पर जोर दिया जाना चाहिए. इन उपायों के अभाव में पर्याप्त पानी की आपूर्ति नहीं हो पाएगी (खास तौर पर सूखे जैसे हालात में) और गांववाले फिर से खुले में शौच के लिए मजबूर होंगे.
शौचालयों के इस्तेमाल को पानी की आपूर्ति के साथ जोड़ने से महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी और स्वच्छता अभियान में तेजी आएगी. गांवों में एक चीज़ और देखी गई है कि वहां महिलाएं पर्याप्त पानी की आपूर्ति के अभाव में शौचालय निर्माण में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेती हैं. ऐेसे में शौचालय के लिए पानी लाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं के सिर पर आ जाती है. जिन परिवारों के पास पानी की आपूर्ति नहीं है, उन्हें एसबीएम (ग्रामीण) के तहत शौचालय और पानी का कनेक्शन दोनों एक साथ मुहैया कराना चाहिए. राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना के फंड को एसबीएम (ग्रामीण) के साथ जोड़ कर इस्तेमाल करने के साथ-साथ स्वच्छ भारत कोष को बेहतर ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है.
माइक्रो फाइनेंस तंत्र को मज़बूत करना
6000 रुपए अपनी जेब से खर्च करने की शर्त ने दूरदराज के गांवों में गरीबों, विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों, के बीच शौचालय निर्माण की गति को धीमा कर दिया है. एक और मुद्दा शौचालय निर्माण के साथ साथ अतिरिक्त सुविधाओं के निर्माण में अधिक लागत का होना है. कई घर जब शौचालय निर्माण का निर्णय लेते हैं तो पश्चिमी शैली की शौचालय सीट और टाइल्स लगाना पसंद करते हैं और शौचालय से लगा स्नान कक्ष बनाना चाहते हैं. कुछ घर शौचालयों का आकार बढ़ाना चाहते हैं. जोड़ों की बीमारियों से ग्रस्त बुजुर्गों की सुविधा के लिए पश्चिमी शैली की टॉयलेट सीट की मांग बढ़ रही है. यह मांग फ्लोराइड प्रभावित क्षेत्रों में अधिक है. दरअसल, शौचालय के साथ स्नान कक्ष के निर्माण का खर्च बीस से पच्चीस हजार रुपए तक आता है. बार-बार सूखे से प्रभावित होने व शौचालय निर्माण में अधिक लागत की वजह से ग्रामीण परिवार पहले से स्वीकृत शौचालयों के निर्माण में विलंब करते हैं.
छोटे ऋृण की उपलब्धता गरीबों को शौचालय निर्माण के लिए प्रेरित करेगी. वाणिज्यिक और अन्य बैंकों के लिए छोटे ऋृण देना व्यवहार्य नहीं है. हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रहे माइक्रो फाइनेंस संस्थान (एमएफआई) माइक्रो लोन देते हैं. हालांकि वे लाभ अर्जित करने वाली कंपनियां हैं और अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दरों पर कर्ज देती हैं. इसके अलावा, स्वच्छता को बढ़ावा देने के लिए उनका कोई स्पष्ट सामाजिक उद्देश्य नहीं होता. लेकिन कई महिला स्वयं-सहायता समूह, एनजीओ द्वारा संचालित परस्पर सहयोगी सहकारी समितियां (एमएसीएस), बचत और ऋृण सहकारी समितियां और किसानों की सहकारी समितियां, जो स्वयं सहायता के सिद्धांत पर काम करती हैं, हर महीने पर्याप्त मात्रा में पैसा जमा कर लेती हैं. ये अपेक्षाकृत कम ब्याज दरों पर 5000 से लेकर 30,000 रुपए तक के ऋृण प्रदान करती हैं.
स्वच्छ भारत अभियान के दिशा निर्देशों में संशोधन से भारत में शौचालय निर्माण में तेजी आएगी. स्वच्छ भारत कोष का उपयोग कर जिला स्तर पर रिवोल्विंग फंड बनाई जा सकती है, जिससे स्थानीय सहकारी संस्थाओं को ऋृण दिया जा सकता है. इस प्रकार, गरीबों पर ब्याज का बहुत अधिक बोझ डाले बिना, एसबीएम (ग्रामीण) को अधिक समावेशी बनाकर 2019 के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है. इसके अलावा, जब लोग स्वेच्छा से ऋृण लेकर स्वच्छता के बुनियादी ढांचे का निर्माण करते हैं, तो यह निश्चित है कि वे निर्माण की गुणवत्ता का ख्याल रखेंगे.
बेकार पड़े शौचालयों को ठीक करना
2 अक्टूबर 2014 तक ग्रामीण भारत में 42.12 प्रतिशत घरों में शौचालय थे. लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि वे सभी शौचालय इस्तेमाल योग्य थे. कुछ गांवों में 35 प्रतिशत शौचालय बेकार पड़े हैं या उनका उपयोग नहीं हो रहा है. पिछली सरकार की योजनाओं द्वारा वित्त पोषित कई शौचालय अधूरे थे और कुछ समय बाद बेकार हो गए थे.
सबसे पहले तो पूर्ण और अपूर्ण दोनों तरह के बेकार शौचालयों की अलग-अलग गणना की जानी चाहिए. एसबीएम (ग्रामीण) को ऐसे शौचालयों के लिए जल कनेक्शन भी उपलब्ध कराना चाहिए. 3000 रुपए के छोटे निवेश के साथ, कई ऐसे बेकार शौचालय ठीक किए जा सकते हैं. स्वच्छ भारत कोष के उद्देश्यों में बेकार हो गए शौचालयों की मरम्मत के लिए धन का इस्तेमाल करने की बात की गई है. बेकार शौचालयों की मरम्मत का मतलब आम तौर पर भर चुके टैंक की मरम्मत, टूटे हुए सीट को बदलना या शौचालय के लिए छत का निर्माण शामिल है.