nadellaपिछले कुछ वर्षों में अमेरिका में भारत ने अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज की है, चाहे वह सॉफ्टवेयर दिग्गज माइक्रोसॉफ्ट कंपनी द्वारा भारतीय मूल के सत्या नडेला को सीईओ पद पर नियुक्त करना हो या फिर पिछले साल ओबामा प्रशासन द्वारा भारतीय मूल के दर्जन भर से अधिक  लोगों की व्हाइट हाउस में नियुक्ति का मामला. इन सभी घटनाक्रमों ने भारत के पड़ोसी देश चीन की चिंता बढ़ा दी है. वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन ने अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में एक नई राजनीति को जन्म दिया. यह वही दौर था, जब भारत में आर्थिक उदारीकरण के बीज पड़ने शुरू हो गए थे. भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत बद से बदतर होती जा रही थी. 1991 के पहले यानी शीतयुद्ध काल में दुनिया के तमाम मुल्क मुख्य तौर पर दो धड़ों में बंटे थे. एक गुट सोवियत संघ की अगुवाई वाला कम्युनिस्ट देशों का था, तो दूसरी ओर पूंजीवाद का झंडाबरदार अमेरिका नेतृत्व की भूमिका में था. हालांकि, एक और खेमा था, जो किसी भी गुट में नहीं था. यह कहलाया गुटनिरपेक्ष देशों का समूह. भारत, मिस्र, श्रीलंका एवं इंडोनेशिया जैसे देश इसके सदस्य थे.
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अंतरराष्ट्रीय राजनीति काफी तेजी से बदली. सोवियत संघ का अस्तित्व ख़त्म हो गया और उससे 15 नए देशों का जन्म हुआ. इसके बाद अमेरिका दुनिया का एकमात्र सुपर पावर रह गया. चूंकि अन्य देशों की अर्थव्यवस्था भी चरमराने लगी थी, ऐसे में गुटनिरपेक्ष समूह के सदस्यों का भी रुझान अमेरिका की ओर बढ़ने लगा. यहीं पहली बार भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए आर्थिक सुधारों का सहारा लिया और अपने बाज़ार दुनिया के लिए खोल दिए. सोवियत संघ और गुटनिरपेक्षता से बदल कर उसका झुकाव अमेरिका की ओर बढ़ने लगा. आज स्थिति यह है कि भारत-अमेरिका के बीच व्यापार रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच कर 63.7 अरब डॉलर से भी अधिक का हो गया है. भारत के साथ अमेरिका के संबंधों में प्रगाढ़ता से पड़ोसी देश चीन में बेचैनी का आलम देखा जा रहा है.
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में तेजी से सामरिक और आर्थिक स्तर चीन के उभार को देखते हुए यह हवा बनने लगी थी कि चीन के रूप में एक नए सुपर पावर का अस्तित्व दुनिया में आ रहा है. चीन ने भी इस दिशा में क़दम उठाने शुरू कर दिए. शी जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद चीन ने आर्थिक तौर पर अमेरिका से रिश्ते बेहतर करने की पहल भी की है. डॉलर और चीनी मुद्रा युआन को लेकर दोनों देशों के बीच काफी टकराहट देखने को मिली थी, लेकिन उन तमाम विवादों से आगे बढ़ते हुए चीन ने अमेरिका के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. चीन ने अमेरिका में निवेश किया और लगातार वहां पैर पसार रहा है. लेकिन, हाल में अमेरिका में भारत के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए चीन की पेशानी पर बल आने शुरू हो गए हैं. अमेरिकी कंपनियों में भारतीय मूल के प्रमुखों की बढ़ती संख्या चीन की बेचैनी का सबब बनती जा रही है. हाल में सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने सीईओ पद पर सत्या नडेला को नियुक्त किया. नडेला के अलावा पेप्सीको की इंद्रा नूई, ड्यूश बैंक के अंशु जैन और मास्टर कार्ड इंक के अजय बंगा पहले से ही पश्‍चिमी देशों में अपनी सफलता का झंडा बुलंद कर चुके हैं.
हालिया रिपोर्ट, चीन क्यों नहीं दे पा रहा विश्‍वस्तरीय सीईओ-में कहा गया है कि चीन के मुकाबले भारतीय पश्‍चिमी देशों में आने के लिए अधिक इच्छुक हैं. वहीं, चीनी लोगों को घरेलू स्तर पर रा़ेजगार के तमाम अवसर उपलब्ध हैं. नतीजतन, चीनी नागरिक अपना मुल्क को छोड़ना अच्छा नहीं समझते. इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन में प्रबंधन स्तर पर लोगों को लगभग एक लाख 31 हज़ार डॉलर तक सालाना मिलते हैं. भारत की तुलना में यह चार गुना अधिक है. भारत में यही वेतन औसतन 35 हज़ार डॉलर के क़रीब है. चीनी नागरिकों के देश न छोड़ने की एक वजह यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों में वहां का जीवन स्तर बेहतर हुआ है. वहां हर तरफ़ अवसर हैं. चीन खुद शीर्ष स्तर पर योग्य अधिकारियों की कमी से जूझ रहा है. ऐसे में चीनी नागरिकों का बाहर जाना बेहद अव्यवहारिक लगता है. चीन के बनिस्बत भारत में स्थिति विपरीत है. पिछले कुछ वर्षों में भारत की आर्थिक विकास दर काफी प्रभावित हुई है. अगर अमेरिकी अर्थव्यवस्था की बात करें, तो वह भी पटरी से उतरी हुई थी, लेकिन अचानक अमेरिकी अर्थव्यवस्था के दुरुस्त होने के बाद भारत के साथ उसके संबंधों में एक नई ऊंचाई देखने को मिली है. यह बात भी चीन को चुभ रही है.
अमेरिका में भारत के प्रभाव पर चीन की चिंता की एकमात्र वजह यही नहीं है. दरअसल, साल 2013 में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 12 से अधिक भारतीय मूल के अमेरिकी लोगों को व्हाइट हाउस में अहम पदों पर नियुक्त किया. अगर जानकारों की मानें, तो ओबामा प्रशासन में काम करने वाले भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों की संख्या 50 से भी अधिक है. ये सभी किसी देश के लिए अमेरिका की नीतियों को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इसके अलावा राजनयिक बॉबी जिंदल एवं डिस्ट्रिक एटॉर्नी कमला हैरिस जैसी महत्वपूर्ण शख्सियतें अमेरिका में भारत की उपस्थिति को मजबूती से पेश कर रही हैं. ऐसे में चीन की चिंता लाजिमी है और चीन भी अपनी इस चिंता को बखूबी जानता-समझता है.

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