आम अदमी पार्टी जब से दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई है, उसका विवादों से पीछा नहीं छूट रहा है. कुछ विवादों को राजनीति से प्रेरित कहा जा सकता है, लेकिन कुछ विवाद ऐसे हैं जो उसके अपने पैदा किए हुए हैं. आप देश में एक अलग तरह की राजनीति के वादे और एक असाधारण जनमत के साथ सत्ता में आ तो गई, लेकिन बहुत जल्द ही उसे यह अहसास हो गया कि अलग राजनीति की राह बहुत कठिन है. अभी कार्यकारी मुख्य सचिव और एंटी करप्शन ब्रांच (एसीबी) के अधिकार और उनके अधिकारियों की नियुक्तिको लेकर उप-राज्यपाल(एलजी) और आप सरकार के बीच रस्साकशी का खेल चल ही रहा था कि इसी बीच राज्य सरकार के कानून मंत्री जितेन्द्र सिंह तोमर की फर्जी डिग्रीयों का मामला सामने आ गया. एलजी के साथ चले विवाद को राजनीति से प्रेरित साबित कहा जा सकता है, लेकिन जो पार्टी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से पैदा हुई हो और उस पर लोगों ने इतना विश्वास जताया हो. उस पार्टी के एक मंत्री को फर्जीवाड़े के आरोप में पुलिस हिरासत लिया जाए, तो उस पार्टी की छवि को कितना नुक़सान होगा. इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. क्योंकि यह बात बिलकुल साफ़ है कि आप के पूर्व नेता प्रशांत भूषण ने विधानसभा चुनाव के दौरान जिन दागी उम्मीदवारों के नाम पार्टी के आंतरिक लोकपाल को दिए थे. उनमें जितेंद्र तोमर का भी नाम शामिल था. यदि उसी वक्त तोमर की उम्मीदवारी रद्द कर दी गई होती तो पार्टी को आज इस फज़ीहत से बच जाती, और उसकी साख पर बट्टा भी नहीं लगता.

बहरहाल तोमर की फर्जी डिग्री प्रकरण से पार्टी की छवि को जितना नुकसान होना था हो चुका. अब ख़बरें आ रही हैं कि तोमर को पार्टी से निष्कासित करने का निर्णय पार्टी ने ले लिया है. कानून मंत्री के पद से तो उन्होंने पहले ही त्यागपत्र दे दिया है. लेकिन मामले की जांच पुलिस अभी भी कर रही है, वहीं पत्नी के उत्पीड़न के मामले में पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती पर भी कार्रवाई कभी भी हो सकती है. उनकी पत्नी, दिल्ली महिला आयोग और दिल्ली पुलिस के पास अपनी शिकायत दर्ज करा चुकी हैं. शिकायत की जांच के बाद पुलिस उनके खिलाफ भी कार्रवाई करेगी. इससे दिल्ली का सियासी पारा एक बार फिर चढ़ जायेगा. लेकिन अधिकारियों की नियुक्ति को लेकर केजरीवाल और नजीब जंग के बीच शुरू हुई जंग अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है. इस लड़ाई की शुरुआत कार्यकारी मुख्य सचिव शकुंतला गैमलिन की नियुक्ति से हुई थी. गैमलिन की नियुक्ति की अधिसूचना जारी करने वाले दिल्ली सरकार के प्रिंसिपल सेक्रेटरी अनिंदो मजुमदार को हटाकर उनकी जगह अरविंद केजरीवाल ने अपने सचिव राजेन्द्र कुमार को प्रिंसिपल सेक्रेटरी बना दिया था. इस फैसले को बाद में एलजी नजीब जंग ने गैर क़ानूनी करार देते हुए रद्द कर दिया था.
इस बीच एसीबी पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अधिसूचना जारी कर दी. जिसमें दिल्ली की शासन व्यवस्था में एलजी की भूमिका की संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की गई थी. इसके साथ ही एसीबी के मामले में दिल्ली सरकार के सीमित अधिकारों की बात कही गई थी. इस अधिसूचना पर रोक लगाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी. जिसे कोर्ट ने खारिज किया था. लेकिन कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा था कि अगर कोई संवैधानिक या क़ानूनी अड़चन न हो, उप-राज्यपाल को जनादेश का सम्मान करना चाहिए. हाईकोर्ट ने अपनी टिप्पणी में गृह मंत्रालय की अधिसूचना को संदिग्ध करार दिया था. इसपर गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की संदिग्ध की टिप्पणी को आधारहीन और गैरजरूरी करार देते हुए इसे खारिज कर दिया.
अब सवाल यह भी उठता है कि आखिर दिल्ली के मौजूदा विवाद के संबंध में संविधान क्या कहता है? इस मसले पर क़ानून के जानकारों की राय क्या उप-राज्यपाल के हक में है. एक अख़बार को दिए बयान में दिल्ली के चार मुख्यमंत्रियों के साथ काम कर चुके दिल्ली विधानसभा के सचिव के पद पर काम कर चुके एस के शर्मा कहते हैं कि अधिकारों को लेकर इस तरह कि लड़ाई मुख्यमंत्री और एलजी के बीच कभी नहीं हुई थी. उन्होंने दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना का हवाला देते हुए कहा कि वे कहा करते थे कि वे केवल एक मुख्य सचिव हैं. दिल्ली सरकार के पास कोई अधिकार नहीं है. वहीं दिल्ली की अनोखी संवैधानिक स्थिति को संविधान की धारा 239 में साफ़ किया गया है, जिसके मुताबिक यहां एक मंत्री परिषद होगी. यहां मंत्रिमंडल कुल विधायकों की संख्या का 10 प्रतिशत के बराबर होगा, जिसका नेतृत्व मुख्यमंत्री करेंगे. विधायकों को कोई अधिकार नहीं है. उन्हें सिर्फ़ वही अधिकार हैं कि जो फैसला वह लें, उसे उप-राज्यपाल को भेजें. अब यह उप राज्यपाल पर निर्भर है कि उस फैसले कोे लागू करते हैं या नहीं. मामले को केंद्र सरकार के पास भी भेजा जा सकता है. केंद्र का फ़ैसला आने तक मामले में उप-राज्यपाल के निर्देश लागू होंगे. कहने का मतलब यह है कि दिल्ली के मौजूदा विवाद के मामले में क़ानूनी तौर पर उप- राज्यपाल का पक्ष भारी है. उनका यह कहना तर्कसंगत है कि दिल्ली के अधिकारियों की नियुक्ति उनके अधिकार क्षेत्र में हैं न कि राज्य सरकार के. लेकिन यह भी हकीकत है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की चुनी हुई सरकार है. यदि यह सरकार अपनी पसंद के अधिकारियों को प्रमुख पदों पर नियुक्तकरना चाहती है तो उप राज्यपाल को इसे अहम का विषय नहीं बनाना चाहिए. मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को भी इस संवैधानिक पद की मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए. उन्हें यह भी समझना चाहिए कि लोकतंत्र का अर्थ केवल टकराव ही नहीं होता, सहमति भी इसका एक अहम तत्व है. यदि केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो इसके लिए उप-राज्यपाल से टकराव के आलावा भी बहुत से रास्ते हैं.
जहां तक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने का सवाल है तो दिल्ली की राजनीति में दखल रखने वाली तीनों पार्टियां आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा सभी इस पक्ष में नज़र आती हैं. भाजपा तो साहेब सिंह वर्मा के मुख्यमंत्रित्व काल से यह मांग करती आई है, लेकिन इसके विपक्ष में यह दलील दी जाती है कि दिल्ली देश की राजधानी है, इसलिए इससे पूर्ण राज्य का दर्जा देने की राह में कई तरह की तकनीकी अड़चने हैं. ऐसे में यह सवाल भी उठ सकता है कि यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता, तो फिर एक चुनी हुई सरकार की यहां आवश्यकता क्या है. जैसा कि पूर्व मुख्यमंत्री कहा करते थे कि उनकी हैसियत एक मुख्य सचिव की है. एक मुख्य सचिव के होते हुए दूसरे की आवश्यक्ता क्या है. एक मयान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं ऐसे में टकराव होना लाजिमी है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here